कटाई से पूर्व गुण : फलों में कटाई/तोड़ाई के पूर्व गुण जैस कि पूर्ण पोषण, कीड़ों-मकाड़ों व रोगों का प्रबंधन आदि फल एवं सब्जियों की गुणवत्ता निर्धारित करते हैं। नाइट्रोजन की अधिक मात्रा देने से कच्चे माल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रसायनों, कीटनाशकों का अधिक मात्रा में उपयोग करना भी फल एवं सब्जियों को न तो ताजा खाने के लिए लाभदायक है और न प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त है। इसलिए उपज के परिवेश में जैविक खेती की ओर ध्यान देने की जरुरत है, जिससे न कीड़े-मकोड़ों का प्रयोग कम होगा, बल्कि फलों एवं सब्जियों पर पड़ने वाले रसायनों का स्तर भी कम हो जाएगा।
परिपक्वता : फलों का सड़ना-गलना उनकी परिपक्वता पर काफी निर्भर करता है। पके फल एवं सब्जियों में रोगों की ग्रहणशीलता में वृद्धि हो जाती है, क्योंकि इनमें सूक्ष्मजीवी पदार्थ जैसे टैनिन, 3,4 डीहाइड्राक्सी बेन्जल डीहाइड (3,4), 6 मीथाक्सी मेलिन एवं बैन्जोइक एसिड की मात्रा में कमी हो जाती है, जिसके फलस्वरूप रोगों का संक्रमण फलों एवं सब्जियों में अधिक होता है। इसके अतिरिक्त फलों एवं सब्जियों में ऊतकों की कोशिकाओं में की पारगम्यता में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप जल एवं पोषण पदार्थ निकलकर ‘‘अन्तर कोशिकीय अवकाश’’ में चले जाते है, जिसके कारण फल एवं सब्जियां खराब हो जाती है। परिपक्वता के दौरान या परिपक्वता पर सेब के फलों में ‘पैनिसिलिन एक्सपेन्सम’ आम, केला, पपीता में ‘कोटोक्टोट्राइकम प्रजाति’ और नींबू वर्ग के फलों में ‘आल्टरनेरिया प्रजाति’ नामक कवकों का प्रकोप बहुत अधिक होता है।
फलों को यदि तोड़ाई/कटाई के बाद संग्रह करना हो या दूरस्थ बाजारों में बिक्रकी हेतु भेजना हो, तो खराबी से बचाने हेतु इन्हें पकने से पूर्व ही तोड़ लेना चाहिए। विशेष रूप से ऐसे फलों एवं सब्जियों को जो तोड़ाई के बाद पक सकते हैं। जैसे क्लाइमैटिक फल (आम, केला, सेब, नाशपाती, अमरुद आदि) फलों व सब्जियों का उन रासायनिक पदार्थों से उपचार करना चाहिए, जिनसे पकने व जीर्णता की गति धीमी पड़ जाती है, फलों की पैकिंग में यदि पोटेशियम परमेगनेट, एथीलीन का उपयोग किया जाए, तो ऐसा करने से फलों के पकने की गति धीमी पड़ जाती है।
यांत्रिक क्षति: फलों को बिना धाव के तोड़ना असम्भव है, क्योंकि जब भी फल के पेड़ से अलग करते हैं, तो टूटने के स्थान पर घाव अवश्य बन जाता है। इसके अतिरिक्त तोड़ाई, श्रेणीकरण व पैकिंग के समय असावधानी बरतने से चोट या खरोंच लग जाती है। इसी चोट या खरोंच के द्वारा अनेक रोगजनक जीव फलों में प्रवेश कर जाते हैं, जिसके फलस्वरूप फल रोगग्रस्त होकर खराब हो जाते है जैसे केले क्राउन व स्टेमरोट, अन्ननास में पडिसिसल राट और आम के फलों में स्टेम-एण्ड राट के संक्ररण घाव के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। नींबू प्रजाति के फलों में फल भित्ति में खरोंच लग जाने से ग्रीनमोल्ड और ब्ल्यू मेल्ड का आक्रमण हो जाता है। इसी प्रकार सेब की तोड़ाई में मामूली चोट से वात रन्ध्र के फट जने ब्ल्यू मेल्ड का संक्रमण तीव्र गति से हो जाता है और फल सड़कर खराब हो जाता है।
फलों की तोड़ाई एवं रख रखाव के समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि उनमें किसी प्रकार चोट व खरोंच न लगे। वर्गीकरण के समय कटे-कटे, रोगग्रस्त या चोटयुक्त फलों को स्वास्थ्य फलों से निकाल देना चाहिए, क्योंकि सबसे पहले सड़न इन्हीं फलों में पैदा होती है, जो अच्छे फलों को खराब कर देते हैं।
घाव द्वारा फैलने वाले कवको को रोकने के लिए तोड़ाई के बाद शीघ्र ही फलों को कवकनाशी दवा जैसे थायाबेन्डाजोल और सोडियम आरथेफिना इलफीनेट से उपचारित करना चाहिए।
आडू में ‘राइजापास राट’ को रोपने हेतु तोड़ाई व उपचार के मध्य का समय 10 घंटे से आधिक नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार माल्स के फलों में ग्रीन मोल्ड के संक्रमण को रोकने हेतु तोड़ाई एवं उपचार के बीच का समय 24 घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए।
रासायनिक क्षति: वृक्षों से फलों तोड़ाई के बाद और संग्रहण के समय अनेक रसायनों का रोगों के नियंत्रण हेतु उपयोग किया जाता है, कभी इनकी आद्रता अधिक होने के कारण फलों में घाव पैदा हो जाते हैं और वे खराब हो जाते हैं। संग्रह के समय अमोलिया गैस के क्षरण से फलों का रंग खराब हो जाता है। इसी प्रकार गंधक के घूमन से फलों का वास्तविक रंग उड़ जाता है। इससे कई प्रकार के शरीर क्रियात्मक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिन्हें रोकने हेतु रसायन की सही सान्द्रता का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। शीत संग्रहण में एमोनिया गैस के क्षरण पर नियंत्रण होना चाहिए।
तापमान: फलों के खराब होने का यह प्रमुख कारण है, प्रत्येक फल के लिए एक औसत तापमान होता है जिसे यह ठीक दशा में संग्रह किए जाते हैं। इससे अधिक अथवा कम तापमान फलों के लिए हानिकारक है।
अ) अधिक तापमान : अधिक तापमान में फलों की भौतिक व रासायनिक क्रियाओं की गति में वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप पानी का वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है, जिसके परिणामस्वरूप फलों का भार कम हो जाता है और वे मुरझा कर सिकुड़ जाते हैं। कभी-कभी फल पकने भी लगते हैं।
संग्रहण के समय अधिक तापमान के प्रकोप से फलों के कई प्रकार शरीर क्रियात्मक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जैसे स्कैल्ड, स्पोटिंग, रस्सेटिंग आदि। जिन फलों के छिल्क कोमल होते हैं वे इस प्रकार से अधिक प्रभावित होते हैं। ऐसे विकार युक्त फलों पर रोगाणुओं का संक्रमण अधिक तापक्रम पर तीव्र गति से होता है और फल खराब हो जाते हैं।
अधिक तापमान से उत्पन्न् होने वाले विकारों के नियंत्रण हेतु सबसे पहले फलों का पूर्व शीलन करना चाहिए। इससे श्वसन की गति कम हो जाती है। फल पकने की क्रिया धीमी हो जाती है। फलों से पानी का उड़ना कम हो जाता है और हानिकारक कवकों की वृद्धि कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप परिवाहन व संग्रहण के फल कम खराब होते हैं। पूर्व शीतलन की विधियाँ है जैसे हाइड्रोकूलिंग, एयर कूलिंग और फलों को बर्फ के सम्पर्क से विकार कम किया जा सकता है। विकसित देशों में इस क्रिया का प्रचलन हमारे देश की तुलना में बहुत अधिक है।
ब) कम तापमान: बहुत कम तापमान भी फलों के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे कई प्रकार के शारीरिक क्रियात्मक विकार उत्पन्न् हो जाते हैं, जिसे हिमीकरण और अभिशीतन क्षति कहते हैं। हिमीकरण क्षति उस समय होती है, जब फलों के ऊतक तापमान हिमीकरण बिन्दू से नीचे चला जाता है फल के ऊतकों में बर्फ के कारण बन जाते हैं। जिससे फलों में कड़ापन आ जाता है।
शीत क्षति को रोकने हेतु फलों का पूर्व शीतलन करके फिर उचित तापमान पर संग्रह करना चाहिए। अधिकतर रोगाणुओं का संक्रमण 5 डिग्री से.ग्रे. से कम तापमान के नीचे बहुत कम होता है। अतः फलों को कम तापमान पर बिना अभिशीतन क्षति के संग्रह करना चाहिए। फलों का रासायनिक उपचार करके भी अभिशीतन क्षति को कम किया जा सकता है।
सापेक्ष आद्रता: सापेक्ष आद्रता वायु की उस जलवाष्प को कहते है, जिसे उस मात्रा के प्रतिशत के स्चरूप में व्यक्त किया जाता है। जिसको वह उसी तापमान पर अवशोषित करने की क्षमता रखती है। इस सापेक्ष आद्रता का फलों की तोड़ाई के बाद वातावरण में उतना ही महत्व है, जितना कि तापक्रक का अधिकांश फलों में 85 से 90 प्रतिशत सापेक्ष आद्रता की आवश्यकता पड़ती है। इसकी कमी या अधिकता दोनों ही फलों के लिए हानिकारक होती है। इसकी कमी से फल मुरझाकर सुखने लगते हैं। जिसके फलस्वरूप इनके भार में काफी कमी आ जाती है। इसकी अधिकता के कारण फलों में कवक रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है, जिससे फल खराब हो जाते हैं, जैसे-अंगूर के दानों पर ‘बोट्राइटिस साइनेरिया’ कवक के कोनिडियम का अंकुरण 85 प्रतिशत से अधिक आद्रता पर तीव्र गति से होता है। जिसके कारण इस रोग का संक्रमण अधिक होता है और फल खराब हो जाते हैं। सापेक्ष आद्रता कई कारकों से प्रभावित होती है। जैसे-तापमान, वायु आदि।
आद्रता नियंत्रण, आधुनिक भण्डारण का महत्वपूर्ण अंग है। अतः फलों को खराबियों से बचाने हेतु सापेक्ष आद्रता पर नियंत्रण करना नितान्त आवश्यक है। तापमान को कम करके भी आद्रता को बढ़ाया जा सकता है। सामान्य भण्डारण में यदि आद्रता अधिक हो तो भण्डारण गृह की खिड़कियां कुछ समय के लिए खुली छोड़ देनी चाहिए। यह तभी करना चाहिए जब बाहर का तापमान कमरे के तापमान से कम हो। ‘कैल्सियम क्लोराइड’ जो नमी का अवशोषण कर लेता है उसे भण्डारण में रखकर बढ़ती आद्रता को कम किया जा सकता है।
परिपक्वता का ज्ञान: फलों की परिपक्वता का समय ज्ञात करने की कई कसौटियां हैं, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं- तोड़ाई के बाद फलों के रखरखाव सम्बंधित अतिरिक्त जानकारी नीचे दी गई है। अधिकांश कच्चे फलों का रंग हरा होता है, लेकिन पकने पर अपनी विशेष किस्म के अनुसार रंग धारण कर लेते हैं, जिनसे फल की परिपक्वता का संकेत मिलता है भारत में परिपक्वता का निरीक्षण करण की यह विधि बहुत प्रचलित हैं। बहुत से क्षेत्रों में फलों का रंग पूरा विकसित नहीं हो पाता है। अनेक क्षेत्रों में फलों का रंग पूर्ण विकसित नहीं हो पाता है और कभी-कभी फलों के रंग में सूर्य के अधिक ताप से परिवर्तन हो जाता है अतः इस दशा में देखकर फलों को नहीं तोड़ना चाहिए।
फलों का आकार: कुछ फलों में फलों में परिपक्वता फलों के आकार से मालूम की जाती है, लेकिन परिपक्वता की कसौटी ज्ञान करने का यह बहुत विश्वसनीय विधि नहीं है, क्यांकि कभी-कभी बड़े फलों का रंग हरा ही रहता है, जो कि तोड़ाई की अवस्था में नहीं रहते हैं और कभी-कभी फल इतने अधिक पक जाते है कि उनके तोड़ने की अवस्था निकल जाती है, फल के आकार पर कृषि क्रियाओं का अधिक प्रभाव पड़ता है जैसे अधिक नाइट्रोजन से फल का भार व आकार शीघ्र बढ़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में आकार के आधार पर तोड़ाई का अनुमान लगाना अत्यन्त कठिन होता है।
बीज का रंग: अनके फलों में बीज के रंग से उनकी परिपक्वता का अनुमान लगाया जा सकता है। कच्चे फलों में बीज का रंग क्रीमी व हल्का भूरा होता है, जो पकने पर गहरे भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं।
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