खरपतवार ऐसे अवांछित पौधे होते हैं जो हमारे मुख्य फसलों के साथ बिना उगाए ही उग जाते हैं और फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. खरपतवार को कई अन्य नामों से भी जाना जाता हैं, जैसे- घास-फूस, बंद, आदि.
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खरपतवार मुख्य फसलों से पांच तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा (competition) और वो है- स्थान(space) , प्रकाश (light), पोषक तत्व (nutrients), हवा (air) और पानी (water) .
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खरपतवार (Weed ) शब्द का प्रयोग सबसे पहले Jethro Tull ने किया था इसलिए इनको खरपतवार विज्ञान का जनक (Father of weed science) कहा जाता है.
परिभाषा
1- "खरपतवार (Weed) वह पौधे है जो बिना उगाए उस स्थान पर उग जाता है जहां किसान नहीं चाहता कि वहां उगे."
2- "खरपतवार (weed) वह अवांछित या अनावश्यक पौधा है जो किसी स्थान पर बिना उगाए ही उग जाता है, और जो फसल के साथ पोषक तत्वों, जगह, प्रकाश, हवा व पानी के लिए प्रतिस्पर्धा (competition) करता है, और जिसकी उपस्थिति में किसान को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती है खरपतवार कहलाते हैं."
खरपतवारों की विशेषताएं
आज हममें से खरपतवार(weeds) के बारे में जानते तो सभी हैं लेकिन इन खरपतवारों के अद्भुत विशेषताओं के बारे में बहुत कम ही जानते हैं. तो चलिए जानते इनकी कुछ खास विशेषताएं-
परिभाषा
1- "खरपतवार (Weed) वह पौधे है जो बिना उगाए उस स्थान पर उग जाता है जहां किसान नहीं चाहता कि वहां उगे."
2- "खरपतवार (weed) वह अवांछित या अनावश्यक पौधा है जो किसी स्थान पर बिना उगाए ही उग जाता है, और जो फसल के साथ पोषक तत्वों, जगह, प्रकाश, हवा व पानी के लिए प्रतिस्पर्धा (competition) करता है, और जिसकी उपस्थिति में किसान को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती है खरपतवार कहलाते हैं."
खरपतवारों की विशेषताएं
आज हममें से खरपतवार(weeds) के बारे में जानते तो सभी हैं लेकिन इन खरपतवारों के अद्भुत विशेषताओं के बारे में बहुत कम ही जानते हैं. तो चलिए जानते इनकी कुछ खास विशेषताएं-
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शीघ्र वृद्धि
खरपतवार (weeds) फसलों से पहले व जल्दी वृद्धि कर लेते हैं. क्योंकि ये फ़सल के साथ प्रतियोगी होते हैं जो जगह, हवा, पानी, पोषक तत्व व प्रकाश के लिए फसलों के साथ प्रतियोगिता करते हैं. कुछ-कुछ खरपतवार जल्दी वृद्धि करने के साथ-साथ अधिक फैलने वाले भी होते हैं.
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अत्यधिक बीज उत्पादन
खरपतवार फसलों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा बीज उत्पादन करने की क्षमता रखते हैं. जैसे चौलाई व मकोय का एक पौधा 1,50,000 से 2,00,000 बीज प्रति पौधा उत्पादन कर सकते हैं. इसी प्रकार बथुआ भी 70,000 से 75,000 बीज प्रति पौधा उत्पादन कर सकता है.
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बीजों की जीवन क्षमता अधिक
खरपतवारों के बीज कई वर्षों तक जीवित रह सकता है. जैसे मोथा का बीज 20 वर्ष तक, हिरनखुरी का बीज लगभग 50 वर्ष, बथुआ का बीज 25 से 40 वर्ष व जंगली सरसों का बीज 40 वर्ष तक भूमि में दबे रहने के बाद भी अंकुरित होने की क्षमता रखते हैं.
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अधिक गहरी जड़े
कुछ खरपतवारों के बीज बहुत गहरे होते हैं जिससे वे अधिक गहराई तक मृदा से पोषक तत्व व जल ग्रहण करते हैं. जैसे कांस, हिरनखुरी आदि खरपतवारों की जड़े 3 से 4 मीटर की गहराई तक भी होती हैं.
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समानता
सामान्यतः यह देखा जाता है कि कुछ फसलों व खरपतवारों के पौधे और बीजों में समानता देखने को मिलती है. जिस से खरपतवार आसानी से वृद्धि व विकास कर लेते हैं. जिसको शुरुआत में पहचानना कठिन होता है लेकिन वृद्धि के बाद पहचाना जा सकता है. जैसे- गेहूं के खेत में गेहुसां, धान के खेत में जंगली धान या करेगा, सरसों के खेत में जंगली सरसों.
उसी प्रकार खरपतवारों के बीजों की बनावट व रंग फसलों के बीज के समान होती है. जिससे इसकी पहचान करना कठिनाई व फसल में आसानी से मिल जाता है. जिससे ये फसलों के साथ उग कर हानि पहुंचाते हैं. जैसे सरसों में सत्यानाशी नामक खरपतवार व बरसीम में कासनी खरपतवार के बीजों में समानता होती है.
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वानस्पतिक प्रवर्धन
अगर खरपतवारों को भौतिक या यांत्रिक विधि से नष्ट भी कर दे तो कुछ खरपतवार ऐसे होते हैं जो कि अपने विभिन्न वनस्पतिक भागों द्वारा अपना पुनः प्रसारण कर लेते हैं. जैसे- मोथा, दूब खास आदि .
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खरपतवार प्रतिकूल परिस्थितियों (unfavorable conditions) में भी जीवित रह सकते हैं
जैसे-खरपतवार सभी प्रकार की मृदाओं (अम्लीय,क्षारीय,लवड़िय, बंजर) में वृद्धि, कम पानी व कम पोषक तत्वों की उपस्थिति में भी जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं व प्रतिकूल जलवायवीय दशाओं से अप्रभावित होते हैं. खरपतवारों पर कीट व रोग का प्रभाव भी कम ही देखने को मिलता है.
खरपतवार का खेत में प्रवेश
मानव, पक्षी व हवा के द्वारा.
खेत में मिट्टी समतलीकरण के दौरान मिट्टी एक जगह से दूसरी जगह ले जाने पर
कार्बनिक तत्वों एवं गोबर की खाद उपयोग करने पर
ऑर्गेनिक मल्चिंग के रूप में खरपतवार उपयोग करने पर
खरपतवारों का वर्गीकरण
एक वर्षीय खरपतवार
ऐसे खरपतवार जो अपना जीवन चक्र एक वर्ष में पूरा कर लेते हैं, एक वर्षीय खरपतवार कहलाते हैं. इनका प्रवर्धन मुख्यतः बीजों से होता है, जैसे- पोर्टुलाका, जंगली चौलाई, बथुआ आदि.
दो वर्षीय खरपतवार
ऐसे खरपतवार जो प्रथम वर्ष में वानस्पतिक वृद्धि करते हैं तथा दूसरे वर्ष में प्रजनन वृद्धि करते हैं, दो वर्षीय खरपतवार कहलाते हैं, जैसे जंगली गाज़र, जंगली प्याज, जंगली गोभी, बनयार्ड घास आदि.
बहुवर्षीय खरपतवार
ऐसे खरपतवार जो 2 वर्ष से अधिक वर्ष तक जीवित रहते हैं, बहुवर्षीय खरपतवार कहलाते हैं, यह विपरीत वातावरण में भी जीवित रह सकते हैं. जैसे मोथा, जरायन, हिरनखुरी, गाजर, घास आदि.
खरपतवार से हानियां
खरपतवारों से फसलों को तो नुकसान होता ही है साथ-साथ मानव जाति व पशु धन को भी इससे हानियां होती हैं. खरपतवार से फ़सल को औसत 30 से 45℅ तक हानि होती हैं
1- फसल उत्पादन पर खरपतवार का प्रभाव
खरपतवार से फसल को सबसे ज्यादा नुकसान होता है. यह औसतन 30 से 45 प्रतिशत हो सकता है. अगर खरपतवार बहुत ज्यादा हो तो यह नुकसान का प्रतिशत बहुत ज्यादा भी हो सकता है. इससे फसल के उत्पादन में भारी कमी आती है.
2- उपज की गुणवत्ता में कमी
खेतों के खरपतवार की समस्या होने से इसका फसल की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है क्योंकि उपज में खरपतवार के बीज मिल जाए तो यह उपज की गुणवत्ता (quality) खराब कर सकते हैं.
3- खरपतवार रोग व कीटों को आश्रय देता है
बहुत से ऐसे भी खरपतवार होते हैं जो फसल की कटाई के बाद या कजेत खाली खेत रहने से फसलों के रोग व कीटों को आश्रय देने का काम करते हैं. जिससे वह रोग व कीट फसल लगने के पश्चात फिर से फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं.
जैसे- बथुआ (Chinopodium album) चने की सुंडी (grass caterpillar) को आश्रय देता है, उसी प्रकार quick grass (Elymus repens) गेहूं के ब्लैक रस्ट रोग (black rust of wheat) को आश्रय देता है.
4- कृषि यंत्रों, मशीनों व श्रम पर अधिक व्यय
जिन क्षेत्रों में या खेत में खरपतवारों का प्रकोप बहुत अधिक रहता है, वहां इनकी रोकथाम के लिए खेतों में जुताई-गुड़ाई आदि कृषि क्रियाएं करनी पड़ती हैं, जिससे बार-बार कृषि यंत्रों, मशीनों व श्रमिकों से काम लेने के कारण व्यय या लागत में बढ़ोतरी हो जाती है.
5- खरपतवार से पशुधन में हानि
वैसे तो बहुत से खरपतवारों को पशु खा जाते हैं लेकिन कुछ खरपतवार को अगर पशु खा ले तो उस पर इसका बहुत हानिकारक प्रभाव देखा जा सकता है.
पशुओं के स्वास्थ्य पर खरपतवार का प्रभाव- कुछ खरपतवार को अगर पशु खा लेते हैं तो वो बीमार हो सकते हैं जैसे- बथुआ (Chinopodium album) से दम घुटने या जिसे Asphyxia भी कहते हैं की समस्या हो सकती है.
बरु घास (Sorghum halepense) को अगर पशुओं द्वारा कल्ले फूटते समय चर लेने पर पशुओं पर जहरीला प्रभाव पड़ता है.
उसी प्रकार जरायन खरपतवार (Lantana camara) से पशुओं को jaundice का खतरा रहता है.
कुछ जहरीले खरपतवारों से पशुओं के दुग्ध उत्पादन पर व उसकी गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है.
6- खरपतवारों से मानव जीवन पर प्रभाव
- गाजर घास (parthenium hysterophorus) की पत्तियां के स्पर्श मात्र से ही मनुष्य में एलर्जी, खुजली व जलन होने लगती है.
-अगर सरसों के बीज में सत्यानाशी के बीज मिल जाए और उससे तेल निकाल कर उपयोग करें तो मनुष्य में अंधापन रोग (Dropsy Disease) हो जाता है.
खरपतवारों के लाभ
वैसे तो खरपतवारों से हानियां अधिक होती हैं लेकिन कुछ खरपतवारों से हमें कुछ लाभ भी होते हैं जो निम्नलिखित हैं-
1- मृदा क्षरण रोकने में सहायक
खरपतवारों की जड़े मृदा को बांध कर रखती है जिससे खरपतवार मृदा संरक्षण में सहायक होते हैं.
2- खरपतवारों का औषधीय महत्व
बहुत से खरपतवार औषधीय महत्व के होते हैं. जैसे-
हजारदाना नामक खरपतवार का काड़ा पीलिया के रोगी को पिलाने से सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
चिरचिटा नामक खरपतवार को सर्पदंश के इलाज के प्रयोग किया जाता है.
माना जाता है कि दूब घास शक्तिवर्धक औषधि है, क्योंकि दूब घास में ग्लाइकोसाइड,विटामिन A व C पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है.
सत्यानाशी का जड़ कुष्ठ रोग में सहायक होता है.
3- खाने में उपयोग
कुछ खरपतवारों का उपयोग भाजी (सब्जी) के रूप में खाने में उपयोग किया जाता है. जिसका पोषक महत्व बहुत ही अच्छा है. जैसे- बथुआ (Chinopodium album), चौलाई (Amaranthus),चरोटा (Cassia tora) इत्यादि|
4- चारे के रूप में खरपतवार का उपयोग
बहुत से खरपतवार ऐसे हैं जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं, जिससे चारे के रूप में उपयोग किया जाता है. जैसे-दूब घास, चौलाई, बथुआ आदि.
5- सजावट और लॉन बनाने में प्रयोग
दूब घास का उपयोग लॉन के निर्माण में किया जाता है. जबकि जरायन ( Lantana camara ) का उपयोग सड़क के किनारे सजावट के रूप में या खेतों के किनारे बाड़े के रूप में लगाते हैं.
6- खरपतवारों का आर्थिक महत्व
खरपतवारों का प्रयोग प्राचीन काल से ही लोगस अपने दैनिक जीवन में करते आ रहे हैं. जैसे- कांस (खरपतवार) का उपयोग छप्पर के रूप में किया जाता है.
चरोटा, चौलाई आदि खरपतवारों के भाजी (सब्जी) को बाजारों में विक्रय किया जाता है.
लेमन घास (Lemon grass) के तेल का प्रयोग सुगन्धित व सौंदर्य युक्त तेलों व साबुन में किया जाता है.
खरपतवार की रोकथाम
1- मल्चिंग द्वारा
मल्चिंग का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसमे पौधे के चारों ओर की जमीन को सुव्यवस्थित रूप से ढक दिया जाता है. यह मल्चिंग दो प्रकार की होती है. पहली प्राकृतिक मल्चिंग (पुआल,भूसा,सूखी घास,गन्ने की पत्तियां,फल के अवशेष) का प्रयोग कर तथा दूसरी प्रकार से प्लास्टिक मल्चिंग के द्वारा (पॉलीथीन शीट)
पॉलीथीन मल्चिंग
2- निराई- गुड़ाई
हाथ या मशीन से खरपतवार की किसी भी फसल से सफाई करना ही निराई गुड़ाई कहलाती है.
3- रासायिनकों के प्रयोग द्वारा
ऐसे रसायन जो खरपतवार का उन्मूलन एवं रोकथाम करते हैं अथवा वृद्धि को रोकते हैं खरपतवार नाशी कहलाते हैं, रसायन मानव और वातावरण दोनों के लिए हानिकारक है इसलिए इसके उपयोग से बचना चाहिए अथवा बहुत कम उपयोग करना चाहिए. इसका सावधानीपूर्वक उपयोग न करने से फसल की भी हानि हो सकती है तथा फसल नष्ट भी हो सकती है.
4- जैविक नियंत्रण
कीट, जीवाणु,कवक, पौधों का उपयोग उपयोग करके खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है. किसान चाहे तो बुवाई से पहले खेत से निकलने वाले खरपतवार की जुताई कर उसे खेत में मिला सकते है. यह हरी खाद का काम करेगी . इस से खरपतवार नष्ट भी हो जाएंगे और मिट्टी में हरी खाद के प्रयोग से कई पोषक तत्वों की पूर्ति भी हो जाएगी .
5- सस्य वैज्ञानिक विधिओं से नियंत्रण
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सही फसल चक्कर का प्रयोग करके
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सही फसलों का चयन करके
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सही तरह से भू - परिष्करण क्रियाओं द्वारा
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खेत में पलेवा सिखाई करके
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फसल को ध्यान में रखते हुए सही समय पर बुवाई करके
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बोई हुई फसल को सही गहराई में बो कर
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सही और उत्तम बीज के चयन व पौधे से पौधे की सही दूरी निर्धारित करके
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सही में मात्रा में कार्बनिक खादों का प्रयोग करके
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सही विधि से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से
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सही और उत्तम विधि से फसल की कटाई करके
निष्कर्ष
मुख्यता देखा जाए तो खरपतवार किसानों और खेती दोनों के लिए फायदेमंद कम और नुकसान दायक ज्यादा है. कुछ खरपतवार को छोड़ दिया जाए तो सभी ही कहीं न मानव जीवन में गलत ही प्रभाव छोड़ते हैं. किसान को इसके नियंत्रण के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिस से हमारी मृदा को नुकसान न हो और फसल का उत्पादन कम भी न हो.
विशाल यादव, ज्योति विश्वकर्मा
शोध छात्र, प्रसार शिक्षा विभाग, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या
सहायक प्राध्यापक, रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना, राजस्थान
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