दिल्ली का भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूरे भारत में हरित क्रंति का केन्द्र माना जाता है, जहां वैज्ञानिक प्रयासों के बूते उच्च पैदावार वाली किस्मों को तैयार किया जाता है और फिर उन्हें किसानों में वितरित कर लोकप्रिय करने का प्रयास रहता है. हरित क्रांति के बाद के युग में गेहूं की बौनी किस्म और चावल की उच्च पैदावार की किस्मों द्वारा किसानों की पैदावार बढ़ी जिसके कारण वर्ष 1970 से आगे वाले दशक में देश खाद्य अनाज की फसलों की पैदावार में स्वावलंबी हुआ.
किसानों के लिए तकनीकें
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा चना, अरहर व मूंग की जो उन्नत किस्में विकसित की गई हैं वह असिंचित खेती स्थितियों में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है. ये किस्में अल्प अवधि की हैं तथा फसलचक्र के लिए उचित हैं और प्रोटीन का प्रमुख स्रोत होने के साथ-साथ भारत में अनाज उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रखती हैं. चने की पूसा में -1105, 1108 व 2024 अत्यधिक स्वीकृति व उत्पादक काबुली किस्में हैं जबकि पूसा के पास- 362, 1103, 372 व बी.जी.डी - 72 अधिक क्षेत्र में अपनाई जाने वाली देसी किस्में हैं. संस्थान द्वारा हाल ही में पूसा में 5023, पूसा 3022(काबुली) व पूसा- 5028, पूसा- 3043 देसी चने की किस्मों की पहचान की गई है जो अधिक उपज वाली हैं. इस प्रकार बढ़ी पैदावार वाली ये किस्में अच्छे तथा बड़े बीज के कारण उत्कृष्ट मूल्य भी देती है.
भारत चना उत्पादन व क्षेत्रफल दोनों में प्रमुख स्थान रखता है. दालों की खेती के लिए कुल क्षेत्रफल 31.11 मिलियन हैक्टेयर व उत्पादन 24.51 मैट्रिक टन है, जिसमें चने का योगदान क्रमष:10.76 मिलियन हैक्टेयर व 11.16 मैट्रिक टन है. भारत में चने की खेती अपने अपने-फसली मौसम के दौरान बहुत से जैविक व अजैविक दबावों से गुजरती है. अजैविक दवाबों में सूखा उच्च व निम्न तापमान है. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा के उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के उत्पादन के लिए स्टेट फार्म कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के साथ गत 20 वर्षों से निकर की सहभागिता रही है. लगभग एक मिलियन टन चने का आयात सरकारी, गैरसरकारी व अन्य संस्थानों द्धारा किया जाता है.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में किए जाने वाले शोध कार्य इसी दिशा में किए गए हैं. इस लेख में वर्णित पूसा की सभी किस्मों के विभिन्न स्थानों पर उनके अनुकूलन क्षेत्रों में परीक्षण किए गए हैं औसत पैदावार अनुकूलन क्षेत्रों में अनुकूल मौसम में संपूर्ण उन्नत कृषि विधियों को अपनाकर किए गए परीक्षणों के आधार पर दी गई है. अत: दर्शायी गई पैदावार खेती की संपूर्ण विधियां जैसे सही समय पर बिजाई, विभिन्न महत्वपूर्ण अवस्थाओं पर सिंचाई, उर्वरकों का प्रयोग, निराई-गुड़ाई, पौध संरक्षण आदि को अपनाकर ली जा सकती है. वर्ष 2000 से 2018 तक अनुमोदित की गई किस्में, जिनका विकास बदलती जलवायु के अनुसार टिकाऊ खेती के लिए किया गया है तथा किसानों ने इनसे भरपूर लाभ कमाया है, इनका फसलवार विवरण इस प्रकार है:
प्रजाति का नाम
पूसा चमतकार(बी.जी.-1053)काबुली
जारी करने का वर्ष
सन् 2000
जिस राज्य के लिए जारी की गई
दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र तथा गुजरात.
विशेषताएं
- सिंचित व असिंचित दशा में उपयुक्त है.
- औसत उपज 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिऱोधी है.
प्रजाति का नाम
पूसा-1088(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2005
जिस राज्य के लिए जारी की गई
दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान
मुख्य विशेषताएं
- सिंचित व असिंचित दशा में उपयुक्त है.
- औसत उपज 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
- यह फ्यूजेरियम उक्टा, जड़ गलन एवं बोनापन विषाणु के लिए प्रतिरोधी है.
- सूखा सहने की उच्च क्षमता है.
प्रजाति का नाम
पूसा-1103(देसी)
जारी करने का वर्ष
सन् 2005
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- देरी से बुवाई की दशा में उपयुक्त है.
- औसत उपज 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- जंगली प्रजाति से विकसित पहली किस्म है.
- यह उक्टा, जड़ गलन व ब्रूचिडस के लिए अवरोधी है.
- उत्तर भारत में धान आधारित फसलचक्र प्रणाली के लिए उपयुक्त है.
प्रजाति का नाम
पूसा-1105(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2005
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली तथा अन्य उत्तरी राज्य
मुख्य विशेषताएं
- असिंचित व सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है.
- सामान्य व देरी से बुवाई की दशा के लिए उपयुक्त है.
- औसत उपज 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- मोटा दाना(100 दानों का भार 30 ग्राम) है.
- मृदा जनित बीमारियों को एक हद तक रोकने में सहायक है.
- सूखा परिस्थिति के लिए अत्यधिक सहनशीलता है.
प्रजाति का नाम
पूसा-1108(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2006
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- सिंचित क्षेत्रों के लिए समय से बुवाई की दशा में उपयुक्त है.
- औसत उपज 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- मृदा जनित बीमारियों के लिए अवरोधी है.
- मोटा,समान, क्रीमी रंग का आकर्षित दाना, पकने में श्रेष्ठ गुण उच्च बाजार मूल्य रखता है.
प्रजाति का नाम
पूसा-547(देसी)
जारी करने का वर्ष
सन् 2006
जिस राज्य के लिए जारी की गई
दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान
मुख्य विशेषताएं
- सिंचित दशा में देरी से बुवाई के लिए उपयुक्त है.
- औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- पहले से बेहतर होने की विकसित किस्म है.
- मध्यकालीन, परिपक्वता उक्टा, जड़ गलन, बौनापन बीमारी के लिए तथा फली छेदक के लिए सहनशील है.
प्रजाति का नाम
बी.जी.डी-128 पूसा-1088(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2007
जिस राज्य के लिए जारी की गई
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड क्षेत्र तथा राजस्थान.
मुख्य विशेषताएं
- सिंचित व देरी से बुवाई की दशा में उपयुक्त है.
- औसत उपज 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी तथा बहुतायत में बोए जाने वाला है.
- अर्ध- सीधी बढ़त के स्वभाव के कारण यांत्रित कटाई के लिए उयुक्त है.
प्रजाति का नाम
पूसा-2024(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2008
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- असिंचित व सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है.
- औसत उपज 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- फली छेदक व मृदा जनित बीमारियों के विरुद्ध औसत प्रतिरोधी है.
प्रजाति का नाम
पूसा-5023(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2011
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजनधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- काबुली चने की इस किस्म का अनुमोदन 2011 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली में सिंचित क्षेत्रों में बिचाई के लिए किया गया.
- इसकी औसत पैदावार 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसका दाना अत्यधिक मोटा है तथा 100 दानों का वजन 50 ग्राम है.
- यह किस्म उख्टा बीमारी के प्रति मध्यम अवरोधी है.
प्रजाती का नाम
पूसा-5028(देसी)
जारी करने का वर्ष
सन् 2011
जिस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली में सिंचित अवस्था में बिजाई के लिए अनुमोदित की गई है.
- औसत पैदावार 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसके दाने का आकार बड़ा है (36 ग्राम प्रति 100 दाने) दानों में प्रोटीन की मात्रा अधिक है तथा पानी सोखने की अधिक क्षमता है.
- मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है. विभिन्न बिमारियों जैसे सूखा जड़ गलन एवं बौनापन के प्रति प्रतिरोधक तथा मुर्झाना एवं बोटराइटस ग्रे मोल्ड के प्रति मध्यम प्रतिरोधक एवं कालर रोट नामक बिमारी के प्रति सहनशील है.
प्रजाति का नाम
पूसा हरा चना 112(देसी)
जारी करने का वर्ष
2013
किस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- हरे दाने वाले देसी चने की इस किस्म का अनुमोदन 2013 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली में सिंचित व असिंचित अवस्था में बिजाई के लिए किया गया.
- इसकी औसत पैदावार 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसके दाने गहरे हरे रंग के हैं जो एक समान आकार के एवं पकाने में बहुत अच्छे हैं.
- यह किस्म फुजेरियम सूखा रोग तथा सूखे के प्रति उच्च प्रतिरोधी है.
प्रजाति का नाम
पूसा 2085(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2013
किस राज्य के लिए जारी की गई
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली
मुख्य विशेषताएं
- काबुली चने की इस किस्म का अनुमोदन 2013 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली में सिंचित अवस्था में बिजाई के लिए किया गया. इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- इसके दाने का आकार बड़ा है (36 ग्राम प्रति 100 दाने) तथा दानों में प्रोटीन की मात्रा अधिक है एवं इनमें पानी सोखने की अधिक क्षमता है.
- यह किस्म मृदा जनित रोगों के लिए प्रतिरोधी है. विभिन्न बिमारियों जैसे सूखा, जड़ गलन एवं बौनापन के प्रति प्रतिरोधक तथा मुर्झाना एवं बोटराइटस ग्रे मोल्ड के प्रति मध्यम प्रतिरोधक एवं कालर रोट नामक रोग के प्रति सहनशील है.
प्रजाति का नाम
पूसा-3022(काबुली)
जारी करने का वर्ष
सन् 2016
किस राज्य के लिए जारी की गई
उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र
मुख्य विशेषताएं
- देश के उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में सिंचित अवस्था में सामान्य समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त है.
- इसकी औसत पैदावार 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस किस्म का विकास देसी एवं काबुली प्रजातियों के संकरण द्वारा किया गया है.
- इसका दाना अत्यधिक मोटा है (100 दानों का वजन 36 ग्राम), आकर्षक रंग वाला है जिसमें प्रोटीन की मात्रा 24 प्रतिशत है.
- यह किस्म सूखा, जड़ गलन, एस्कोकाइटा ब्लाइट एवं स्टंट बीमारी के प्रति मध्यम अवरोधी है.
प्रजाति का नाम
पूसा-3043
जारी करने का वर्ष
सन् 2018
किस राज्य के लिए जारी किया गया
उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र
मुख्य विशेषताएं
- उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र (पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम के मैदानी क्षेत्र) में सिंचित अवस्था में बिजाई के लिए अनुमोदित की गई है.
- औसत पैदावार 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
- मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है. बोटराइटस ग्रे मोल्ड के प्रति मध्यम प्रतिरोधक है.
उत्तरी भारत के लिए चना उत्पादन की तकनीक
बुआई का समय - समय पर बुआई रु. 1- 15 नवंबर या पछेती बुआई 25 नवंबर से 7 दिसंबर तक.
बीज की मात्रा - मोटे दानों वाला चना रु. 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, सामान्य दानों वाला चना रु. 70-80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर.
बीज उपचार - बीमारियों से बचाव के लिए थीरम या बाविस्टीन 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करें. राइजोबियम टीका से 200 ग्राम टीका प्रति 35-40 कि.ग्रा. बीज को उपचारित करें.
उर्वरक - उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें.
नत्रजन - 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर
फास्फोरस - 50 कि.ग्रा, प्रति हेक्टेयर
जिंक सल्फेट - 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर
इस सभी में 100 कि.ग्रा डाई अमोनियम फॉस्फेट प्रति हेक्टेयर डालें.
बुआई की विधि - चने की बुआई कतारों में करें. गहराई रु.7 से 10 से.मी. गहराई पर बीज डालें.
कतार से कतार की दूरी रु. 30 से.मी. (देसी चने के लिए)
रु. 45 से.मी. (काबुली चने के लिए)
खरपतवार नियंत्रण - फ्लक्लोरिन 200 ग्राम (सक्रिय तत्व) का बुआई से पहले या पेंडेमेथलीन 350 ग्राम(सक्रीय तत्व) का अंकुरण से पहले 400-450 लीटर पानी में घोल बनाकर एक एकड़ में छिड़काव करें. पहली निराई-गुड़ाई, बुआई के 30-35 दिन बाद तथा दूसरी 55-60 दिन बाद आवश्यकतानुसार करें.
सिंचाई - यदि खेत में उचित नमी न हो तो पलेवा करके बुआई करें. बुआई के बाद खेत में नमी न होने पर दो सिंचाई, बुआई के 45 दिन एवं 75 दिन बाद करें.
पौध संरक्षण
कटुआ सुंडी(एगरोटीस इपसीलोन) - इस कीड़े की रोकथाम के लिए 200 मि.ली. फेनवालरेट(20 ई.सी.) या 125 मि.ली. साइपरमैथारीन(25 ई.सी.) को 400-450 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकतानुसार छिड़काव करें
फली छेदक (हेलिकोवरपा आरमीजेरा) - यह कीट चने की फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इससे बचाव के लिए या 150 मि.ली. स्पिनोसैड 45 एस सी या 125 मि.ली. साइपरमैथारीन (25 ई.सी.) को 400-450 लीटर पानी में घोल बनाकर उस समय छिड़काव करें, जब कीड़ा दिखाई देने लगे. यदि जरुरी हो तो 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें.
उकठा रोग - इस रोग से बचाव के लिए उपचारित करके ही बीज की बुआई करें तथा बुआई 25 अक्टूबर से पहले न करें. फसल चक्र अपनाया जाना चाहिए.
जड़ गलन - इस रोग के प्रभाव को कम करने के लिए रोगग्रस्त पौधों को ज्यादा न बढ़ने दें. रोगग्रस्त पौधों एवं उनके अवशेष को जलाकर नष्ट कर दें या उखाड़कर गहरे ज़मीन में दबा दें. अधिक गहरी सिंचाई न करें.
बीज का स्रोत - चने का शुद्ध बीज भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के निम्नलिखित संभागों या स्टेशनों से सीमित मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है.
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें - आनुवंशिकी संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान, नई दिल्ली- 110012, दूरभाष- 011-25841481
साभार - सी. भारद्वाज एवं संजीव कुमार चौहान
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
गिरीश चंद्र पांडे, कृषि जागरण
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