कोरोना काल में बाद आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की मांग बेहद बढ़ गई है. देश और दुनियाभर में औषधियों का बाजार काफी बड़ा हो गया है. इसी के चलते किसान मेडिसिनल प्लांट्स की खेती की ओर आकर्षित हुए हैं. औषधियों की खेती लाभ का धंधा साबित हो रही है. किसान भाई सर्पगंधा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, शतावरी, मुलैठी, एलोवेरा, तुलसी की खेती कर रहे हैं. आज के लेख में शतावरी व अश्वगंधा की खेती से संबंधित जानकारी सम्मेलित की गई है.
क्या है शतावरी और अश्वगंधाः
शतावरी और अश्वगंधा औषधीय पौधे हैं. इनका प्रयोग सदियों से आयुर्वेद में किया जा रहा है. अश्वगंधा शरीर को मजबूत बनाता है वहीं शतावरी से प्रजनन प्रकिया और पाचन में मदद मिलती है. इन दोनों औषधियों की बाजार में बहुत मांग रहती है. लिहाजा इनकी खेती लाभ का सौदा साबित हो रही है.
कैसे करें खेती की शुरुआतः
औषधि पौधों की खेती आम फसलों की तुलना में काफी अलग होती है. इस तरह की खेती के लिए आपको प्रशिक्षित होना जरूरी है, तभी फसल का उत्पादन अच्छा होता है. इसके लिए लखनऊ स्थित सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिसिनल एंड ऐरोमैटिक प्लांट्स ट्रेनिंग प्रदान करता है. आप वहां जाकर ट्रेनिंग ले सकते हैं साथ ही संस्थान के माध्यम से दवा कंपनियां आपके साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन करती हैं, जिससे फसल बेचने में समस्या नहीं आती.
चलिए अब जानते हैं शतावरी की खेती के बारे में -
1- शतावरी के लिए उत्तम जलवायुः शतावरी एक बहुवर्षीय पौधा है. यह एक किस्म की सब्जी है.
2- भारत के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय इलाकों में इसकी खेती की जाती है.
3- शतावरी सर्दियों का पौधा है, इसलिए खासतौर पर इसे ठंडे क्षेत्रों में लगाया जाता है. इसके पौधे 25 से 30 डिग्री तक तापमान सह सकते हैं.
4- इसकी बुवाई जुलाई के आसपास की जाती है. कुछ की बुवाई बसंत के आसपास की जाती है.
5- शतावरी की खेती के लिए दोमट, चिकनी दोमट मिट्टी, जिसका पीएच मान 6 से 8 के बीच हो, वह उपयुक्त मानी जाती है.
कैसे करें बुवाईः
शतावरी की बुवाई से पहले खेत को गहराई तक जोतना चाहिए. इसके बाद इसमें पंक्तियों से 10-12 सेमी गहराई तक 1/3 नाइट्रोजन, फॉस्फेट, तथा पोटाश की पूर्ण खुराक डाल देना चाहिए. साथ ही खेत की निंदाई गुड़ाई करते रहे ताकि खरपतवार न हो सके. एक हेक्टेयर के लिए लगभग 7 किलो बीज इस्तेमाल होता है. शतावरी के पौधों को रोपने के बाद इसकी सिंचाई जरूरी होती है. इसके पौधे को खंभे या लकड़ी का सहारा देकर रखना होता है.
शतावरी की फसल 16 से 22 महीने में पककर तैयार होती है. कई किसान इस अवधि के बाद भी फसल खोदते हैं. फसल तैयार होने के बाद खुदाई की जाती है, जिसमें शतावरी की जड़ें मिलती है. इसे धूप में सुखाया जाता है, सूखने के बाद पूरी फसल एक तिहाई हो जाती है. यानि 10 किलो जड़ सूखने के बाद 3 किलो रह जाएगी.
शतावरी की खेती में निवेश और मुनाफाः
शतावरी की खेती में मुख्य खर्चा बुवाई और सिंचाई में आता है. एक एकड़ शतावरी की खेती करने में अच्छे बीच समेत मिलाकर 1 लाख के आसपास का खर्च आता है. अगर सभी चीज़ों का ध्यान रखा जाए तो एक एकड़ में करीब 150-180 क्विंटल गीली ज़ड़ प्राप्त होती है, जो कि सूखने के बाद 25-30 क्विंटल रह जाती है. बाजार में 20 से 25 हजार प्रति क्विंटल के हिसाब से आप इसे बेच सकते हैं. इस तरह आप एक एकड़ से 5 से 6 लाख तक का मुनाफा हर साल कमा सकते हैं.
शतावरी की खेती में जोखिमः
शतावरी एक लंबी अवधि वाली फसल है, जिसमें पैदावार आने में काफी वक्त लगता है. शतावरी की फसल में कुंगी नामक बीमारी का खतरा रहता है, जिससे पेड़ मर जाते हैं. इसकी रोकथाम के लिए बॉडीऑक्स घोल को डालना चाहिए.
अब जानते हैं अश्वगंधा की खेती के बारे में-
अश्वगंधा को असगंद भी कहा जाता है. इसका उपयोग यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा में होता है.
1- अश्वगंधा का पौधा झाड़ीनुमा होता है, जिसकी ऊंचाई 1.4 से 1.5 मीटर होती है. इसका पौधा कठोर होता है और शुष्क व उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अच्छे से बढ़ता है.
2- असगंद की खेती प्रमुख तौर पर मध्य प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है. ऐसे अर्ध-उष्णकटिबंधीय क्षेत्र जहां हर साल 500 से 800 मिमी वर्षा होती है, अश्वगंधा की खेती की जा सकती है.
3- इसकी खेती के लिए रेतीली दोमट, हल्की लाल मिट्टी उपयुक्त होती है. मिट्टी का पीएच मान लगभग 7.5 से लेकर 8 के बीच में होना चाहिए.
4- इस फसल के लिए 20 डिग्री सेल्सियस से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान सबसे उपयुक्त माना जाता है.
5- असगंद की प्रमुख किस्में जवाहर असगंद-20, जवाहर असगंद- 134, राज विजय अश्वगंधा- 100 हैं. एक हेक्टेयर भूमि में अश्वगंधा की खेती के लिए लगभग 10-12 किलो बीज का उपयोग होता है.
6- अच्छी बात ये है कि अश्वगंधा की खेती में नियमित समय से वर्षा होने पर फसल की सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती. अगर बारिश नहीं होती तो सिंचाई की जरुरत होती है.
कैसे करें बुवाईः
अश्वगंधा की खेती के लिए खेत की अच्छे तरीके से जुताई जरूरी है. बारीक एक समान मिट्टी के लिए दो से तीन बार जुताई जरूरी होती है. जुताई बारिश से पहले हो जानी चाहिए. इसके बाद बारी आती है बुवाई की.
अश्वगंधा के बीजों को पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है. इसके बाद खेत में पौधों की बुवाई होती है. इसके बीज 6-7 दिनों में अंकुरित हो जाते हैं. फिर 30 से 40 दिन पुराने पौधों को रोपा जाता है. आम तौर पर फसल बुवाई के 165 से 180 दिनों के भीतर कटाई को तैयार हो जाती है. फसल को खरपतवारों से दूर रखने के लिए कम से कम दो बार निराई आवश्यक होती है. पहली निराई बुवाई के 21 से 25 दिनों के अंदर और दूसरी निराई इतने ही अंतराल के बाद की जाती है. इसके बाद खरपतवारों को समय समय पर हटाते रहना चाहिए.
कब होती है कटाईः
अश्वगंधा की फसल तैयार होने पर इसकी पत्तियां सूख जाती हैं, फल का रंग लाल या नारंगी हो जाता है. इसके बाद फसल की कटाई होती है. कटाई में पौधों को जड़ सहित उखाड़ लेते हैं, जड़ से 1 से 2 सेंटीमीटर तने को भी काटा जाता है. फिर इनके टुकड़ों को धूप में सुखाया जाता है.
अश्वगंधा की खेती में निवेश और मुनाफा-
सभी पहलुओं का ध्यान रखा जाए तो एक हेक्टेयर से 500 से 600 किलोग्राम जड़ें मिलती है, और 50 से 60 किलो बीज मिलता है. इन्हें अलग अलग बेचकर तीगुना मुनाफा मिलता है. एक हेक्टेयर में अश्वगंधा की खेती पर 10 हजार का खर्च आता है, जबकि मुनाफा लाखों में होता है.
अश्वगंधा की खेती में जोखिम-
अश्वगंधा की फसल कम लागत में तैयार हो जाती है. सिंचाई की ज्यादा जरुरत नहीं होती. अश्वगंधा में रोग व कीटों का प्रभाव नहीं पड़ता. हालांकि माहू कीट तथा पूर्णझुलसा रोग से फसल प्रभावित होती है, इसके लिए सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है. ऐसे में मोनोक्रोटोफास का डाययेन एम- 45, तीन ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर बोआई के 30 दिन के अंदर छिड़काव रोग कीटों से बचाता है.
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