टैपिओका या कसावा एक कन्द वाली फसल की श्रेणी में आती है. इसकी जड़ों में स्टार्च की भारी मात्रा होती है, जिसे साबूदाना बनाने में उपयोग किया जाता है. दक्षिण भारत में इसकी खेती आमतौर पर की जाती है किन्तु अब मध्यप्रदेश के कुछ किसान भी इसकी खेती करने लगे हैं. तकनीकी रूप में साबूदाना किसी भी स्टार्च युक्त पेड़ पौधों के गूदे से बनाया जा सकता है किन्तु अधिक स्टार्च होने की वजह से टपिओका साबूदाने के उत्पादन के लिए उपयुक्त पाया गया है.
जलवायु:
यह फसल गर्म एवं आद्र जलवायु में अच्छी वृद्धि करती है. इसका पौधा एक बार स्थापित होने के बाद सूखा भी सहन कर लेता है. टैपिओका सभी प्रकार की मिट्टी पर उगता है, लेकिन खारा, क्षारीय और गैर-सूखा मिट्टी उपयुक्त नहीं है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में टैपिओका या कसावा की खेती की जाती है.
रोपण का मौसम:
इसकी खेती कन्द के जमीन में रोपाई से की जाती है. सालभर में कभी भी इसकी रोपाई की जा सकती है किन्तु दिसम्बर माह रोपाई के लिए सर्वश्रेष्ठ है.
रोपण विधि और रोपण सामग्री:
टीला विधि: इस विधि का उपयोग उस मिट्टी में किया जाता है जिसकी जल निकासी अच्छी नहीं है. इसमें 25-30 सेमी की ऊंचाई के टीले तैयार किए जाते हैं और इन्ही टीलों में टैपिओका के कन्द को रोपा जाता है.
रिज विधि: इस विधि का उपयोग बारिश वाले क्षेत्रों में ढलानदार भूमि में और सिंचित क्षेत्र में समतल भूमि में किया जाता है. इसमें रिज की ऊंचाई 25-30 सेमी तक रखी जाती है.
समतल विधि: अच्छी जल निकासी वाली समतल भूमि में इसका उपयोग किया जाता है.
विधि: 2-3 सेंटीमीटर डायमीटर वाले परिपक्व स्वस्थ तनों का का चयन करना चाहिए. तने के ऊपरी भाग का चयन करे तथा कठोर भाग को हटा दे. 15-20 सेमी लंबाई के सेट्स तैयार कर लें. लगभग 15 दिनो बाद इन सेट्स पर पत्तियाँ उग आती हैं और अंकुरण शुरू हो जाता है. सेट्स को 5 सेमी गहरा लम्बवत लगाया जाता है. ब्रांचिंग या सेमी-ब्रांचिंग पौधों के लिए पंक्ति से पंक्ति और पौधों से पौधों की 90 सेमी दूरी पर पौधे लगाने चाहिए. गैर ब्रांचिंग प्रकार के पौधों के लिए पंक्ति से पंक्ति और पौधों से पौधों की 75 सेमी दूरी पर पौधे लगाने चाहिए.
टैपिओका की उन्नत किस्में
H-97: यह टैपिओका की अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है. यह हाइब्रीड किस्म मध्यम लम्बाई की है, जिसमें स्टार्च की मात्रा 27-29 प्रतिशत तक होता है. इसका उत्पादन 25-35 टन प्रति हेक्टेयर होता है. यह सूखे एवं मौसेक रोग के प्रति सहनशील किस्म है.
H-165: यह टैपिओका की अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है. यह हाइब्रीड किस्म मध्यम लम्बाई की है, जिसमें स्टार्च की मात्रा 23-25 प्रतिशत तक होता है. 8-9 महीनों के भीतर इसकी उपज 33-38 टन प्रति हेक्टेयर होती है. यह मौसेक रोग के प्रति सहनशील किस्म है.
H-226: यह हाइब्रीड किस्म मध्यम लम्बाई की है, जिसमें स्टार्च की मात्रा 27-29 प्रतिशत तक होता है. इसका उत्पादन 25-35 टन प्रति हेक्टेयर होता है. यह सूखे एवं मौसेक रोग के प्रति सहनशील किस्म है.
श्री विसखाम: यह अधिक उत्पादन देने वाली हाइब्रीड किस्म है. यह नॉन ब्रांचिंग किस्म है, जिसमें स्टार्च की मात्रा 27-29 प्रतिशत तक होता है. 10 महीनों के भीतर इसकी उपज 35-38 टन प्रति हेक्टेयर होती है.
इसके अलावा श्री सहया, श्री प्रकाश, श्री हर्षा, श्री जया, श्री विजया मुख्य किस्म है जिसे केन्द्रीय कंद फस अनुसंधान संस्थान, त्रिरुवन्त्पुरम, केरल द्वारा विकसित किया गया है. यह संस्थान इस फसल से संबन्धित प्रशिक्षण भी देता है.
कीट एवं रोग प्रबंधन
इसमें विभिन्न प्रकार के प्रमुख कीट एवं रोग लगते हैं जैसे-
मिलीबग: इस कीट के शिशु और वयस्क दोनों ही फसल को नुकसान पहुँचाते हैं. फूल, फल और मुलायम टहनियों के रस को चूसकर पौधें को कमजोर करते हैं. यह कीट मधुरस स्त्रावित करता है जिसके ऊपर हानिकारक फफूंद विकसित होती है और प्रकाश संश्लेषण क्रिया बाधित करता है. यह सफेद मोम जैसे आवरण से ढका रहता है.
इसकी रोकथाम के लिए एसिटामिप्रीड 20% SP @ 100 ग्राम प्रति एकड़ या क्लोरोपायरीफॉस 20% EC @ 300 मिली प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर दें. जैविक नियंत्रण के लिए 250 ग्राम वर्टिसिलियम या ब्यूवेरिया बेसियाना कीटनाशी को 200 लीटर पानी की दर से फसल पर छिड़काव करें.
सफेद मक्खी: यह सफेद रंग की मक्खी है. इसकी रोकथाम के लिए ड़ाइमेथोएट 30% EC @ 400 मिली दवा या एसिटामिप्रीड 20% SP @ 100 ग्राम या डायफैनथीयुरॉन 50% WP @ 250 ग्राम या पायरीप्रोक्सीफैन 10% + बॉयफैनथ्रिन 10% EC @ 250 मिली या टोल्फेनपायरॅड 15% EC @ 200 मिली प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
मोजेक रोग: यह रोग विषाणुजनित होता है जिसका इलाज नही किया जा सकता किन्तु फैलने से रोका जा सकता है. इस रोग का प्रसार सफ़ेद मक्खी के द्वारा होता है. अतः इसके नियंत्रण के लिए एसिटामिप्रीड 20% SP @ 100 ग्राम या डायफैनथीयुरॉन 50% WP @ 250 ग्राम या पायरीप्रोक्सीफैन 10% + बॉयफैनथ्रिन 10% EC @ 250 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.
भूरी पत्ती धब्बा रोग: इस रोग में पत्ती पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते है. नियंत्रण के लिए मेंकोजेब 75 WP 500-600 ग्राम प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर दे.
कन्द सड़न रोग: पौधे पर कोई बाहरी लक्षण नहीं होता है. गोल और अनियमित गहरे घाव परिपक्व कंद में दिखाई देते है. इन घावों के चारों ओर सफेद फफूंद विकसित होती है. कुछ समय बाद ये भूरे धब्बों में बादल जाते है और 5-7 दिनों में कंद सिकुड़ कर सड़ जाते हैं. ट्राइकोडर्मा विरिडी की 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर पौधे के तने के पास दीजिये. या रसयनिक कार्बेण्डजिम 50% WP की 2 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी में मिलाकर जमीन में तने के पास डालें.
साबूदाना निर्माण
साबूदाना निर्माण केलिए पहले कंद के छिलके की मोटी परत को उतारकर धो लिया जाता है. धुलने के बाद उन्हें कुचला जाता है. निचोड़कर इकठ्ठा हुए गाढे द्रव को छलनियों में डालकर छोटी-छोटी मोतियों सा आकार दिया जाता है. उसके बाद धूप में सुखा लिया जाता है या एक अलग प्रक्रिया के तहत भाप में पकाते हुए एक और गरम कक्ष से गुजारा जाता है. सूखने के बाद साबूदाना तैयार हो जाता है.
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