Potato Late Blight Fungus: आलू का लेट ब्लाइट, फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टान्स के कारण होता है, एक अत्यधिक विनाशकारी रोग है जो समय पर प्रबंधित न होने पर विनाशकारी नुकसान का कारण बन सकता है. यह रोग ठंडी और नम परिस्थितियों में पनपता है और अनुकूल परिस्थितियों में, यह कुछ ही दिनों में पूरे आलू के खेतों को तबाह कर सकता है. यह रोग मुख्य प्रभावों में शामिल हैं...
तेजी से फसल विनाश: लेट ब्लाइट पत्तियों, तनों और कंदों को व्यापक नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे प्रकाश संश्लेषण कम हो जाता है और गंभीर मामलों में 100% तक उपज का नुकसान होता है.
कटाई के बाद के नुकसान: संक्रमित कंद अक्सर भंडारण में सड़ जाते हैं, जिससे आर्थिक नुकसान और बढ़ जाता है.
बढ़ी हुई उत्पादन लागत: किसानों को कवकनाशी और अन्य प्रबंधन प्रथाओं में भारी निवेश करना पड़ता है, जिससे उत्पादन की लागत बढ़ जाती है.
बाजार प्रभाव: व्यापक लेट ब्लाइट प्रकोप से आपूर्ति कम हो सकती है, जिससे कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है और खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है.
आलू की फसल में पेस्ट (खरपतवारों, कीटों व रोगों) से लगभग 40 से 45 फीसदी की हानि होती है. कभी-कभी यह हानि शत प्रतिशत भी हो सकती है. आलू की सफल खेती के लिए आवश्यक है की समय से पछेती झुलसा रोग का प्रबंधन/ Management of Late Blight Disease किया जाए.
आयरलैंड का भयंकर अकाल जो साल 1945 में पड़ा था, इसी रोग के द्वारा आलू की पूरी फसल तबाह हो जाने का ही नतीजा था. जब वातावरण में नमी व रोशनी कम होती है और कई दिनों तक बरसात या बरसात जैसा माहौल होता है, तब इस रोग का प्रकोप पौधे पर पत्तियों से शुरू होता है. यह रोग 4 से 5 दिनों के अंदर पौधों की सभी हरी पत्तियों को नष्ट कर सकता है. पत्तियों की निचली सतहों पर सफेद रंग के गोले गोले बन जाते हैं, जो बाद में भूरे व काले हो जाते हैं. पत्तियों के बीमार होने से आलू के कंदों का आकार छोटा हो जाता है और उत्पादन में कमी आ जाती है. इस के लिए 20-21 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है. आर्द्रता इसे बढ़ाने में मदद करती है. पछेती झुलसा के विकास को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय कारक तापमान और नमी हैं. स्पोरांगिया निचली पत्ती की सतहों और संक्रमित तनों पर बनते हैं जब सापेक्षिक आर्द्रता 90% होती है. बीजाणु बनाने की प्रक्रिया (स्पोरुलेशन) 3-26 डिग्री सेल्सियस (37-79 डिग्री फारेनहाइट) से हो सकता है, लेकिन इष्टतम सीमा 18-22 डिग्री सेल्सियस (64-72 डिग्री फारेनहाइट) है. आलू एवं की सफल खेती के लिए आवश्यक है कि इस रोग के बारे में जाने एवं प्रबंधन हेतु आवश्यक फफूंदनाशक पहले से खरीद कर रख लें एवं समय उपयोग करें अन्यथा रोग लगने के बाद यह रोग आप को इतना समय नहीं देगा की आप तैयारी करें. पूरी फसल नष्ट होने के लिए 4 से 5 दिन पर्याप्त है.
पछेती झुलसा रोग का प्रबंधन
पछेती झुलसा रोग से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए, रोग प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग, समय पर फफूंदनाशकों का प्रयोग तथा फसल चक्र और उचित सिंचाई प्रबंधन जैसी सांस्कृतिक प्रथाओं सहित एकीकृत रोग प्रबंधन प्रथाओं को लागू करना आवश्यक है. इस रोग के विनाशकारी प्रभावों को कम करने के लिए प्रारंभिक पहचान और सक्रिय प्रबंधन महत्वपूर्ण है.
जिन किसानों ने अभी तक आलू की बुवाई नहीं किया है वे मेटालोक्सिल एवं मैनकोजेब मिश्रित फफूंदीनाशक की 1.5 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर उस में आलू एवं टमाटर के कंदों या बीजों को आधे घंटे डूबा कर उपचारित करने के बाद छाया में सुखाकर बुआई करनी चाहिए.
जिन्होंने फफूंदनाशक दवा का छिड़काव नहीं किया है या जिन खेतों में झुलसा बीमारी नहीं हुई है, उन सभी को सलाह है कि मैंकोजेब युक्त फफूंदनाशक 0.2 प्रतिशत की दर से यानि दो ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें. एक बार रोग के लक्षण दिखाई देने के बाद मैनकोजेब नामक देने का कोई असर नहीं होगा इसलिए जिन खेतों में बीमारी के लक्षण दिखने लगे हों उनमें साइमोइक्सेनील मैनकोजेब दवा की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें. इसी प्रकार फेनोमेडोन मैनकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर में घोलकर छिड़काव कर सकते है. मेटालैक्सिल एवं मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर भी छिड़काव किया जा सकता है. एक हेक्टेयर में 800 से लेकर 1000 लीटर दवा के घोल की आवश्यकता होगी. छिड़काव करते समय पैकेट पर लिखे सभी निर्देशों का अक्षरशः पालन करें.
Share your comments