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लहसुन की वैज्ञानिक खेती

लहसुन में गंधक युक्त यौगिक एलाएल प्रोपाइल डाईसल्फाइड तथा एलिन नामक अमीनो अम्ल पाये जाते है. सामान्य दशा में एलिन रंगहीन, गंधहीन तथा जल में घुलनशील होता है परन्तु जब लहसुन काटा, छीला तथा कुचला जाता है तो इसमें उपस्थित एलीनेज एन्जाइम सक्रिय हो जाते है

लहसुन में गंधक युक्त यौगिक एलाएल प्रोपाइल डाईसल्फाइड तथा एलिन नामक अमीनो अम्ल पाये जाते है. सामान्य दशा में एलिन रंगहीन, गंधहीन तथा जल में घुलनशील होता है परन्तु जब लहसुन काटा, छीला तथा कुचला जाता है तो इसमें उपस्थित एलीनेज एन्जाइम सक्रिय हो जाते है तथा एलिन को एलिसिन में बदल देते है. इसी परिवर्तन के कारण इसमें से विशिष्ट, तेज गंध आने लगती है. जीवाणुओं के विरुद्ध सक्रियता भी इसी एलिसिन नामक पदार्थ के कारण होती है.लहसुन का उपयोग सम्पूर्ण विश्व में मसालों या विभिन्न दवाइयों के रूप में होता है. ताजे लहसुन में खाद्य पदार्थ जैसे कार्बोहाइड्रेड (62.8%), प्रोटीन(63.3%), लवण (1%), रेशे (0.8%), इसके अतिरिक्त कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहा आदि तत्व पाये जाते है साथ ही विटामिन्स ए, बी नियामिन, निकोटिनिक अम्ल भी पाये जाते है. लहसुन में विभिन्न औषधीय गुण पाए जाते है, जिसके कारण यह प्राचीन काल से अत्यन्त उपयोगी मसाले की फसल है. लहसुन का प्रयोग अचार, चटनी, केचअप आदि संसाधित पदार्थों को बनाने में किया जाता है.

भूमि एवं जलवायु

लहसुन की खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है परन्तु इसके लिए जीवाश्म युक्त उपजाऊ व जल निकास युक्त बलुई दोमट और दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. भारी, चिकनी मिट्टी में कंद का आकार छोटा व खुदाई में कठिनाई होती है. यह पाला व लवणीयता को भी कुछ स्तर तक सहन कर सकती है. लहसुन की वृद्धि के समय ठण्डा व नम जलवायु तथा कन्द परिपक्वता के समय शुष्क जलवायु उपयुक्त रहती है. ठंडी जलवायु का पौधा होने के कारण इसकी खेती फलदार बगीचों में भी की जा सकती है. अधिक तापमान व नमी में कलियों के सड़ने की संभावना रहती है तथा अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. इसकी अच्छी उपज के लिए 130-240 सेन्टीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है.

भूमि की तैयारी

लहसुन की खेती के लिए गहरी जुताई तथा इसके बाद हैरों से भूमि की जुताई करना उपयुक्त रहता है. जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है. इसके बाद खरपतवार निकालकर खेत को समतल कर लेते हैं.

 

उन्नतशीन प्रजातियां

1. जामनगर सफेद- इस किस्म के कंदों में कलियाँ, आकार में बड़ी तथा संख्या में 20-25 तक होती हैं एवं कंदों का व्यास 3.5 से 4.5 से.मी. तक होता है. इसकी उपज 130 क्विंटल/हेक्टेयर तक प्राप्त होती है. इसकी संस्तुति रबी मौसम में ऐसे क्षेत्रों के लिए की जाती है, जहां पर्पल ब्लाच या अंगमारी की बीमारी नहीं आती है.

2. यमुना सफेद (जी-1)- इस किस्म के कंद रंग सफेद, चमकदार एवं घने होते हैं. प्राप्त कंदों का व्यास 4.0 से 4.5 से.मी. होता है. अधिकतर कीटों- रोगों के प्रति इस किस्म में निरोधकता पाई जाती है. इस किस्म से 150 क्विंटल/हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है.

3. यमुना सफेद 2 (जी-50)- यह किस्म देश के उत्तरी प्रांतों के लिए उपयुक्त है. कंदों का व्यास 3.5 से 4.0 से.मी. होता है. इसकी औसत पैदावार 150 से 200 क्विंटल/हेक्टेयर है.

4. जी-282- यह देश के उत्तरी एवं मध्य भाग के लिए अनुमोदित की गई किस्म है. अन्य की अपेक्षा इसकी पत्तियां अधिक चौड़ी, कंद तथा कलिया बड़े आकार की होती हैं. इसके कंदों का व्यास 5.0 से 6.0 से.मी. होता है. इसकी औसत पैदावार 175 से 200 क्विंटल/हेक्टेयर है. यह किस्म निर्यात के लिए उपयुक्त पाई गई है.

5. एग्रीफाण्ड पार्वती (जी-313)- यह किस्म उन स्थानों के लिए उपुक्त है जहां दिन लम्बे होते हैं. इसलिए यह उत्तरी भारत में मध्यम व ऊँचे स्थानों के लिए उपयुक्त है. इसके कंद आकार में बड़े एवं कंद का व्यास 5.0 से 6.0 से.मी. होता है. यह किस्म 175 से 225 क्विंटल /हेक्टेयर तक उपज दे सकती है.

6. पंत लोहिया- यह अधिक उपज देने वाली किस्म पर्पल ब्लाच (बैंगनी धब्बा) रोग के प्रति अवरोधी है. परिपक्वता अवधि 175 दिन तथा उपज 120-130 क्विंटल /हेक्टेयर है.

रोपाई का समय व बीज की मात्रा

लहसुन की बुवाई अक्टूबर माह में की जाती है. बुवाई के समय इसके लिए कतार से कतार की दूरी 15 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 7 से.मी. रखनी चाहिए. बुबाई के लिए गांठो से जुड़े हुए जवा का प्रयोग किया जाता है. एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 5-6 क्विंटल जवा की आवश्यकता होती है लेकिन मशीन द्वारा बुवाई करने पर इसकी मात्रा 6-7 क्विंटल/हेक्टेयर तक होती है.

खाद एवं उर्वरक

खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण कराने के बाद आवश्यकतानुसार करना चाहिए. सामान्यत लहसुन की खेती की तैयारी के समय 25 से 30 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाकर जुताई करना चाहिए. कलिया लगाने से पहले 50 किग्रा0 नाइट्रोजन, 60 किग्रा0 फास्फोरस, 100 किग्रा0 पोटाश तथा 25 किग्रा0 जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व आवश्यकता होती है. बुवाई के एक महीने बाद 50 की.ग्रा नाइट्रोजन खड़ी फसल में छिड़कना लाभकारी होता है. लहसुन की बुवाई के 55-60 दिन के बाद किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण व निराई-गुड़ाई

लहसुन में खरपतवार नियंत्रण हेतु पेंडीमेथिलीन 3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 1-2 दिन के अन्दर प्रयोग कर सकते हैं अथवा ऑक्सीडायजोना 1 किग्रा0/हेक्टेयर अंकुरण पूर्व प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण अच्छा होता है तथा उपज भी अच्छी प्राप्त होती है.

लहसुन की खेती से अच्छी पैदावार के लिए 3-4 बार निराई-गुड़ाई अवश्य करें. जिससे कंद को हवा मिले एवं नई जड़ो का विकास हो सके. एक माह बाद सिंचाई के तुरंत बाद डंडे या रस्सी से पौधों को हिलाने से कंद का विकास अच्छा होता है.

सिंचाई

सिंचाई का मुख्य समय गांठों के बनने के समय होता है. इस समय सिंचाई में देर करने और असावधानी बरतने से गाठें फटने लगती हैं, जिससे उपज कम हो जाती है. लहसुन में 12-14 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है.

भूमि में नमी की कमी हो तो कलियों की बुवाई के बाद एक हल्की सिंचाई करते हैं. इसके बाद वानस्पतिक वृद्धि व कंद बनते समय 7-8 दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई व फसल पकने की अवस्था पर 12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें. अतिंम सिचाई खुदाई के लगभग् एक सप्ताह पहले करनी चाहिए.

प्रमख रोग एवं रोकथाम

1. बैंगनी धब्बा (पर्पल ब्लाच)- यह रोग अल्टरनेरिया पोरी नामक फफूँद से होता है. प्रभावित पत्तियों और तनों पर छोटे-छोटे गुलाबी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में भूरे होकर ऑख के आकार के हो जाते हैं तथा इनका रंग बैंगनी हो जाता है.

2. झुलसा रोग (स्टैम्फीलियम ब्लाइट)- इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां एक तरफ पीली तथा दूसरी तरफ हरी रहती हैं.

3. मृदुरोमिल फफूँदी (डाउनी मिल्डयू)- इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों की सतह पर बैंगनी रोयेदार वृद्धि दिखाई देती है जो बाद में हरा रंग लिए पीला हो जाती है अन्त में पत्तियॉ सूखकर गिर जाती हैं.

रोकथाम

बैंगनी धब्बा, झुलसा रोग एवं झुलसा रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 2.5 ग्राम या कार्बन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या कॉपर अक्सिक्लोराइड 1. लीटर प्रति हे0 की दर से घोल बनाकर फसल पर छिड़कांव करें. तथा आवश्यकता पड़ने पर 10-15 दिन के अन्तराल पर पुनः छिड़काव करें.

प्रमुख कीट एवं रोकथाम

थ्रिप्स :- ये कीड़े छोटे और पीले रंग के होते है, जो पत्तियों का रस चूसते हैं. पत्तियों पर हल्के हरे रंग के लम्बे-लम्बें धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में सफेद हो जाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए साइपरमेथ्रिन 0.5 मि.ली. या प्रोफेनोफास 50 ई.सी. एक मि.ली. प्रति पानी में घोलकर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें.

खुदाई एवं उपज

फसल की ऊपर की पत्तियां जब पीली या भूरी पड़ने लगें तथा मुख्य तना मुड़ जाने पर लहसुन पका माना जाता है. इस प्रकर लहसुन के कंद को पकने में 4-5 माह का समय लगता है. खुदाई के पश्चात कंद को साफ करके ऊपर की पत्तियों से बांधते हैं तथा 3-4 दिन के लिए किसी छायादार स्थान पर रखते हैं. जिससे खेत की गर्मी कंद से निकल सकें. लहसुन की औसत उपज 100-125 कु0 प्रति हेक्टेयर होती है.

भण्डारण

लहसुन को लम्बे समय तक सुरक्षित रखने के लिए निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देकर भण्डारण में होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है-

1. भण्डारण के समय गॉठों को अच्छी तरह से सुखा लें.

2. केवल अच्छी तरह से पके हुए ठोस एवं स्वस्थ कन्दों का ही भण्डारण करें.

3. भण्डार गृह नमी रहित एवं हवादार हों.

4. भण्डारण गृह में गाठों का ढेर न लगायें, बेहतर होगा कि गॉठों की सूखी पत्तियों के छोटे-2 गच्छे में बॉधकर लटका दें.

5. फसल की खुदाई के दिन सप्ताह पहले 3000 पी0पी0एम0 मौलिक हाइड्राजाइज का फसल पर छिड़काव कर दिया जाऐ तो भण्डारण की अवधि बढ़ जाती है.

(सचिन प्रताप तौमर- मृदा विज्ञान, कृषि विज्ञान केन्द्र, कटिया, सीतापुर

एवं डा0 दया शंकर श्रीवास्तव- पादप सुरक्षा, कृषि विज्ञान केन्द्र - कटिया, सीतापुर)

English Summary: Scientific farming of garlic Published on: 21 December 2018, 05:22 PM IST

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