फसल चक्र कृषि का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसे बिना लागत के आदान कहा जा सकता है. फसल चक्र, फसलों में पोषण प्रबंधन की विधि के रूप में ही नहीं बल्कि मृदा बांझपन, मृत मृदा और रुग्ण मृदाओं को सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक विधि है.
खेत या इसके किसी भाग में फसलों को इस प्रकार अदल-बदल कर बुवाई करने की प्रक्रिया को जिसमें मिट्टी की उत्पादकता को प्रभावित किए बिना अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सके, फसल चक्र कहते हैं. यह फसल चक्र 1 वर्ष या अधिक के हो सकते हैं. फसल विविधीकरण (अलग-अलग फसल उगाना) समय की मांग है तथा किसान की जोखिम कम करने एवं टिकाऊ उत्पादन के लिए बहुत आवश्यक है.
किसी निश्चित क्षेत्र में निश्चित अवधि में फसलों को इस प्रकार हेर फेर कर बोना, जिससे की फसलों से अधिकतम पैदावार प्राप्त हो सके और भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट ना हो फसल चक्र कहलाता है.
फसल चक्र के सिद्धांत (Principles of crop rotation)
प्रायः फसल चक्र 1 वर्ष से लेकर 3 वर्ष तक का तैयार किया जाता है. फसल चक्र की प्लानिंग करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिस क्षेत्र के लिए फसल चक्र तैयार किया जा रहा है, वहां की जलवायु, भूमि, बाजार मांग कैसी है इसके अलावा सिंचाई सुविधाएं, यातायात सुविधा, किसान की घरेलू आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए फसल चक्र तैयार किया जाता है. फसल चक्र तैयार करते समय निम्न सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए.
गहरी जड़ वाली फसलों के बाद कम गहरी जड़ वाली फैसले बोना: गहरी जड़ वाली फसलों की जड़ें मृदा में अधिक गहराई पर जाकर पोषक तत्व ग्रहण करती है, ऐसे में ऊपरी परत में अधिकांश पोषक तत्व ज्यों के त्यों ही रह जाते हैं. यदि अगले मौसम में गहरी जड़ वाली फसल को बोया गया तो मृदा के निचले स्तर पर पोषक तत्वों की कमी के साथ-साथ फसल से पैदावार भी कम होती है. इसकी बजाय उथली गहराई वाली फसलों को हेरफेर कर बोने से मिट्टी के विभिन्न स्तरों में पोषक तत्वों की समानता बनी रहती है. उदाहरण के लिए कपास-गेहूं, सोयाबीन-गेहूं या अरहर-गेहूं
फलीदार फसल के बाद बिना फलीदार फसलें बोना: किसी भी फसल चक्र में फलीदार फसलों को सम्मिलित किया जाता है. फलीदार फसलों द्वारा मृदा में 30 से 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नत्रजन स्थिरीकरण किया जाता है. दलहनी फसलें नत्रजन की कुल आवश्यकता का लगभग 75% भाग नत्रजन स्तरीकरण से पूरा कर सकती हैं. इस फसलों की कटाई के बाद मृदा में काफी मात्रा में नत्रजन रह जाती है. जिसका उपयोग बाद में बोई गई दूसरी अनाज वाली फसलें आसानी से ले लेती है. उदाहरण के लिए ग्वार -गेहूं, उड़द-रबी मक्का, सोयाबीन- गेहूं आदि.
अधिक खाद चाहने वाली फसलों के बाद कम खाद जाने वाली फसलों को बोना: अधिक खाद चाहने वाली फसलों के बाद कम खाद चाहने वाली फसल बोने से दूसरी फसल को कम खाद देने की जरूरत पड़ती है, साथ ही पिछली फसल को दी गई खाद का सदुपयोग हो जाता है. उदाहरण के लिए आलू -प्याज, गन्ना -गेहूं, कपास- चना, मक्का -चना.
अधिक जल मांग वाली फसल के बाद कम जल मांग वाली फसल बोई जानी चाहिए: ऐसा करने से एक तो सिंचाई साधनों का अत्यधिक उपयोग नहीं करना पड़ेगा, दूसरे भूमि में लगातार अधिक पानी बना रहने से वायु संचार व जीवाणु क्रियाओं को बाधा रहती है, उससे भी बचा जा सकता है. उदाहरण के लिए धान -चना, धान -सरसों आदि
मृदा कटाव को प्रोत्साहन देने वाली फसलों के बाद मृदा कटाव अवरोधक फसलें बोने चाहिए: ऐसी फसलें जो दूर-दूर लाइनों में बोई जाती है, अधिक निराई गुड़ाई चाहती है, मृदा क्षरण को बढ़ावा देती है अतः ऐसी हानि को रोकने के लिए मृदा कटाव अवरोधक फसलें बोनी चाहिए. उदाहरण के लिए मक्का- बरसीम, कपास- चना, धान-चना
एक ही कुल की फसलें लगातार नहीं उगानी चाहिए: लगातार एक ही कुल की फसलें बोने से फसलों में रोग, कीट व खरपतवारों का प्रकोप बढ़ता है. अच्छा फसल चक्र वही है जिसमें सम्मिलित फसलें अलग-अलग कुल की हो. उदाहरण के लिए धान- गेहूं, उड़द सरसों
फसल चक्र किसान की घरेलू आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए: किसान को दैनिक जीवन में अनाज, दालें, तेल, वस्त्र आदि की आवश्यकता रहती है. उनकी पूर्ति के लिए किसानों को उनकी फसलों का चुनाव फसल चक्र हेतु करना चाहिए, जो उक्त आवश्यकताएं पूरी कर सके. उदाहरण के लिए अनाज हेतु- धान, मक्का, बाजरा, गेहूं आदि और दाल के लिए उड़द, अरहर, चना आदि तथा खाद्य तेल हेतु मूंगफली, तिल, सरसों, सोयाबीन आदि.
कृषि साधनों का वर्ष भर क्षमता पूर्ण ढंग से उपयोग: किसान के पास उपलब्ध कृषि साधनों जैसे सिंचाई साधन, खाद, बीज, उर्वरक तथा श्रमिकों का वर्ष भर पूरा पूरा उपयोग होना चाहिए. फसल चक्र में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए. उदाहरण के लिए अरहर-गेहूं-मूंग.
फसल चक्र निकटवर्ती कृषि आधारित उद्योगों को ध्यान में रखकर तैयार करना चाहिए: फसल चक्र में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि निकटवर्ती क्षेत्र में किस तरह कृषि आधारित उद्योग हैं जैसे शुगर मिल होने पर गन्ना, कॉटन मिल होने पर कपास, दाल मिल हेतु दलहनी फसलों तथा तेल मिल हेतु तिलहनी फसलों का समावेश फसल चक्र में किया जाना चाहिए.
लवणीय मृदाओं हेतु फसल चक्र में लवणीयता सहनशील फसल बोनी चाहिए: अगर खेत का कुछ भाग लवणीय और क्षारीयता से ग्रसित है तो फसल चक्र में लवणता सहनशील फसलें बोनी चाहिए उदाहरण के लिए सनई, ढेंचा, कपास, सरसों, चुकंदर आदि.
फसल चक्र के लाभ (Benefits of Crop rotation)
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फसल चक्र द्वारा मृदा से पोषक तत्व एवं नमी का अवशोषण संतुलित रूप से होने के कारण उर्वरकता बढ़ती है.
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दलहनी फसलों के समावेश से मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है. दलहनी फसलों द्वारा नत्रजन स्थिरीकरण जीवानुओं की क्रियाशीलता से मृदा की जैविक दशा भी सुधरती है.
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खेत में हर वर्ष बरसीम उगाने से कासनी खरपतवार व निरंतर गेहूं बोने से गुल्ली डंडा (गेहूंसा) खरपतवार की मात्रा बढ़ जाती है. रबी मौसम में 1 वर्ष गेहूं व 1 वर्ष बरसीम बोने से कासनी, गेहूंसा आदि खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है. बरसीम की बार-बार कटाई से गेहूंसा नष्ट हो जाता है.
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किसान के पास उपलब्ध कृषि साधनों जैसे सिंचाई, खाद-उर्वरक, श्रमिकों का वर्ष भर पूरा उपयोग हो जाता है. इससे प्रति इकाई उत्पादन लागत में कमी आती है.
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मृदा उर्वरता बढ़ने से मृदा उत्पादकता भी बढ़ती है, जिससे प्रति इकाई खेत से अधिक उपज प्राप्त होती है और किसान की आर्थिक दशा में सुधार होता है.
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फसल चक्र अपनाने से किसान की दैनिक घरेलू आवश्यकताओं जैसे खाद्यान्न, दालें, तेल, सब्जियां आदि को पूरा करने में मदद मिलती है.
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फसल चक्र में एक ही कुल की फसलें निरंतर बोने से फसलों में कीट रोग नियंत्रण हो जाता है.
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जब किसान अपने खेत के लिए फसल चक्र तैयार करता है तो किसान को पहले से ही पता रहता है कि आगामी फसलों में कौन सी फसल बोनी है, उस फसल हेतु उन्नत बीज, खाद उर्वरक, श्रमिक आदि की व्यवस्था पहले से ही कर सकता है. उचित प्लानिंग से आय में वृद्धि होती है.
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मृदा क्षरण रोकने में सहायक फसलों का समावेश फसल चक्र में करने से भूमि सरंक्षण में सहायता मिलती है.
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ऐसा देखा गया है कि सही फसल चक्र अपनाने से फसलों पर कीट, रोग, खरपतवारों के प्रकोप में कमी आती है जिससे फसल उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार होता है.
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मृदा की भौतिक, रासायनिक, जैविक दशाओं में सुधार से मृदा विकार में कमी आती है.
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मृदा के सभी स्तरों में पोषक तत्वों का उचित संतुलन बना रहता है.
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