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शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों की उन्नत खेती के लिए अपनाएं ये विधि, कम समय में मिलेगी उच्च उपज

सर्दी को मौसम में हरी पत्तेदार सब्जियों की खेती किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है. इसी क्रम में आज हम किसानों के लिए शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों की उन्नत खेती से जुड़ी अहम जानकारी लेकर आए हैं, जिससे वह कम समय में अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं. आइए इनके बारे में जानते हैं...

KJ Staff
शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों की उन्नत खेती ,
शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों की उन्नत खेती ,

पोषण की दृष्टि से हरी पत्तेदार सब्जियां महत्वपूर्ण हैं. संतुलित आहार तालिका के अनुसार 100 ग्राम हरी पत्तेदार सब्जियां प्रतिदिन दैनिक आहार में लेनी चाहिए. ये विभिन्न पोषक तत्वों की किफायती स्त्रोत हैं. इनमें विटामिन ए, सी, लौह, कैल्शियम, सोडियम, फॉस्फोरस, पोटाशियम तथा रेशे व अन्य पोषक तत्व प्रचूर मात्रा में पाए जाते हैं. अन्य सब्जियों की तुलना में पत्तेदार सब्जियों की खेती में कम लागत आती है. शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों में मुख्यतः पालक, मेथी, बथुआ, आदि सम्मिलित हैं जिनकी उत्पादन तकनीक निम्नवत है.

उन्नत किस्में:

क्र.स.

फसल

उन्नत किस्में

1

पालक

आलग्रीन, पूसा हरित, पूसा ज्योति, पंत कम्पोजिट-1, एच.एस.-23, पूसा भारती, जोबनेर ग्रीन

2

मेथी

 

राजेन्द्र क्रांति, हिसार सोनाली, हिसार सुवर्णा, हिसार माधवी, हिसार मुक्ता, अजमेर मेथी-1, अजमेर मेथी-2, आरएमटी-1, पूसा अर्ली बंचिंग, कसूरी मेथी, लेम सेलेक्शन-1, पंत रागिनी, गुजरात मेथी-1, गुजरात मेथी-1

3

बथुआ

 

पूसा ग्रीन

 

जलवायु:

पालक मुख्यतः शीतकालीन फसल है परन्तु इसे मध्यम तापमान में पूरे वर्ष उगाया जा सकता है. ठंड के मौसम में इसकी वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है एवं एक फसल से 5-6 कटाई ली जा सकती है परन्तु गर्मी के मौसम में ऊंचे तापमान के कारण इसकी बढ़वार रुक जाती है एवं एक ही कटाई मिलती है तथा बाद में बीज के डंठल निकल आते है. पालक की अच्छी वृद्धि और उपज के लिए 15-20 डिग्री सेंटीग्रेट तापक्रम उपयुक्त रहता है. मेथी शरदकालीन फसल है तथा इसमें पाला सहन करने की क्षमता होती है. इसकी वानस्पतिक वृद्धि के लिए लंबे ठन्डे मौसम, आर्द्र जलवायु एवं कम तापमान उपयुक्त होते हैं. बीज अंकुरण के समय 21-27 डिग्री सेंटीग्रेट, वानस्पतिक वृद्धि के समय 15-21 डिग्री सेंटीग्रेट तथा फसल पकने के समय 27-35 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है.

बथुआ की खेती रबी मौसम में की जाती है. यह फसल पाला सहन करने में सक्षम होती है. पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुवाई अप्रैल माह में की जाती है.

भूमि का चुनाव तैयारी:

पालक, मेथी एवं बथुआ की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है परन्तु जीवांशयुक्त दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. मान 6.5-7.5 के मध्य हो, जिसमें उचित जल निकास की क्षमता एवं कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो, उत्तम मानी जाती है. खेत साफ, स्वच्छ एवं भुरभुरा तैयार होना चाहिए अन्यथा अंकुरण प्रभावित होता है. जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाना चाहिए जिससे नमी संरक्षित रह सके.

बीज दर:

पालक: 25- 30 किग्रा बीज/ हेक्टेयर
मेथी: 15-20 किग्रा बीज/ हेक्टेयर
बथुआ: 5-7 किग्रा बीज/ हेक्टेयर

बीज बुवाई:

पालक में बीज बुवाई का समय अक्टूबर-नवंबर है परन्तु इसकी बुवाई मैदानी क्षेत्रों में लगभग वर्षभर की जा सकती है. समतल क्षेत्रों में बीज बुवाई प्रायः छिटकवां विधि से करते हैं परन्तु पंक्तियों में बुवाई अधिक लाभप्रद है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15-20 सेंटीमीटर रखी जाती है.

मेथी की बुवाई का समय मैदानी क्षेत्रों में मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक एवं पर्वतीय क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल सर्वोत्तम होता है. बुवाई में देरी से उपज कम प्राप्त होती है. बेहतर उत्पादन के लिए बुवाई पंक्तियों में 25 से.मी. कतार से कतार की दूरी पर तथा 10 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी की दर से करनी चाहिए. बीज बुवाई की गहराई 5 से.मी. से ज्यादा नहीं रखनी चाहिए. 

हरी पत्तियों के लिए उत्तर भारत में बथुआ की बुवाई का उचित समय अक्टूबर के अंत से मध्य नवम्बर है. बीज बुवाई के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 40 से.मी. तथा दो कतारों के बीच की दूरी 10-15 से.मी. रखते हैं. बीज बुवाई 1.5 से 2.0 से.मी. गहराई पर करते हैं.

खाद एवं उर्वरक:

पालक में बुवाई से 3-4 सप्ताह पूर्व अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद लगभग 20-25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में भली भाँति मिलायें. इसके अतिरिक्त 100 किग्रा नत्रजन, 50 किग्रा फॉस्फोरस तथा 50 ग्राम पोटॉश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. नत्रजन की एक चौथाई मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं  पोटॉश की पूरी मात्रा बुवाई से पूर्व अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए. शेष नत्रजन बराबर मात्रा में बांटकर प्रत्येक कटाई के बाद देते हैं. शीतकालीन फसल में औसतन 3 से 4 टॉप ड्रेसिंग  करते हैं. ग्रीष्मकालीन फसल में उर्वरकों की मात्रा आधी हो जाती है क्योंकि केवल एक ही कटाई मिल पाती है.

मेथी में खेत की तैयारी के समय भूमि में 10-15 टन गोबर की खाद दें. मेथी  की जड़ें नत्रजन स्थिरीकरण का कार्य करती हैं अतः फसल को नत्रजन की आवश्यकता औसतन कम मात्रा में  लगती है. रसायनिक खाद के रूप में 20-25 किग्रा नत्रजन, 40-50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 20-30 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है. नत्रजन की आधी मात्रा एवं फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा अंतिम जुताई के समय भूमि में मिला दें तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा को बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं बची मात्रा को पुष्पन के समय टॉप ड्रेसिंग के रूप में सिंचाई के साथ देनी चाहिए.

बथुआ में खेत की अंतिम तैयारी के समय 20-25 टन गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट तथा 20 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस एवं 20-30 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से भली भांति भूमि में मिला दें. प्रत्येक कटाई के बाद 10 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए.

सिंचाई: शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों में बीज की बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है. पहली सिंचाई बीज जमाव के बाद करते हैं तथा इसके पश्चात 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

खपतवार नियंत्रण: शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों में फसल की प्रारंभिक अवस्था में खरपतवार नियंत्रण के लिए 2-3 निराई की आवश्यकता होती है. निराई खुरपी की सहायता से की जाती है. दो पंक्तियों के बीच हल्की गुड़ाई भी कर देनी चाहिए जिससे पौधों की जड़ों में वायु संचार पूर्ण रूप से हो सके. 

शीतकालीन पत्तेदार सब्जियों में रोग एवं कीट प्रबंधन

चूर्णिल आसिता: इस रोग से संक्रमित पौधों में प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों की सतह पर सफेद पाउडर दिखाई देता है जो संक्रमण बाद जाने पर पूरे पौधे पर सफेद चूर्णिल आवरण बना देता है. इस रोग से मेथी की फसल अधिक प्रभावित होती है.

प्रबंधनइस रोग के नियंत्रण के लिए घुलनशील गंधक 20-25 ग्राम/10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें.

पर्णदाग: यह रोग पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक एवं मेथी आदि की एक प्रमुख समस्या है. इस रोग में पत्तियों पर गोल या अर्धगोलाकार धब्बे बनते हैं जिनका किनारा भूरा तथा बीच का भाग सफेद या हल्के रंग का होता है. तनों तथा पत्तियों पर इस रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं.

प्रबंधन: इस रोग के प्रबंधन के लिए बीज बुवाई के समय विटावैक्स 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज दर से उपचारित करें. कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 किग्रा का एक हजार लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता: इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्बे बनते हैं तथा निचली सतह पर भूरे या बैंगनी रंग की रुई के समान उलझी हुई कवक की बढ़वार दिखाई देती है.

प्रबंधन: इस रोग के नियंत्रण के लिए रिडोमिल एम जेड-72 का 2.5 किग्रा का एक हजार लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

पालक भृंग (पालक बीटल): इस कीट के वयस्क पत्तों में छेदकर फसल को हानि पहुंचाते हैं.

प्रबंधन: इस कीट की रोकथाम के लिए नीम बीज अर्क (5%) या स्पिनोसेड 45 एस. सी. 1 मिलीलीटर/ 4 लीटर का छिड़काव करें.  

चेंपा: इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही कोमल पत्तियों से रस चूसते हैं. कीट के अधिक प्रकोप की अवस्था में पत्ते पीले पड़कर मुरझा जाते हैं.

प्रबंधन: इस कीट के प्रबंधन के लिए नीम बीज अर्क (5%) या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस. एल. 1 मिलीलीटर/3 लीटर का प्रयोग करें. लेडी बर्ड भृंग का संरक्षण करें.

थ्रिप्स: इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही पत्तों को नुकसान पहुंचाते हैं जिससे पौधों की बीज बनने की प्रक्रिया प्रभावित होती है.

प्रबंधन: इस कीट की रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. 2 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

लेखक:

डॉ. पूजा पंत, सह प्राध्यापक, कृषि संकाय, एस.जी.टी. विश्वविद्यालय, गुरुग्राम, हरियाणा

English Summary: method for advanced cultivation of winter leafy vegetables farming Published on: 30 October 2024, 04:16 PM IST

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