मसालों में धनिए का एक अहम रोल है. बिना धनिए के कोई भी मसाला अधूरा है. इसकी पत्तियों और दानों का खाने में खूब इस्तेमाल किया जाता है. इसके अंदर कई औषधीय गुण भी होते हैं. इसमें लगने वाले प्रमुख कीट और रोग इस प्रकार है जो फसल के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव छोड़ते है जिससे किसान की मेहनत बेकार हो सकती है.
माहु/ मोयला (Aphid)
यह कीट धनिये में फूल आते वक्त या उसके बाद बीज बनते समय फसल को चपेट में ले लेता है. यह कीट हरें रंग का होता है, जिसके शिशु और वयस्क दोनो ही पौधे के तनों, फूलों व बीजों जैसे कोमल अंगो का रस चूसते हैं, जिससे पौधा कमजोर हो जाता है और उपज में भारी कमी होती है.
रोकथाम- एफिड कीट से बचाव हेतु थायोमेथोक्सोम 25 डब्लू जी 100 ग्राम या इमिडाक्लोप्रिड 17.8% SL 80 मिली प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें. इसके अलावा जैविक माध्यम से बवेरिया बेसियाना 250 ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करने से एफीड को नियंत्रण में लाया जा सकता है.
कटुआ सूंडी (Cutworm)
इस कीट की लट्ट (सूंडी) भूरे रंग की होती है, जो शाम के समय पौधों को जमीन की सतह के पास से काटकर गिरा देती है. इस कीट का प्रौढ़ काले भूरे रंग का चित्तीदार पतंगा होता है. इस पतंगा के आगे वाले पंख हल्के भूरे या काले भूरे और कीनारों पर काले चिन्ह होते हैं, वहीं पिछले पंख सफ़ेद होते हैं. इसका प्रकोप फसल की शुरुआती अवस्था में अधिक होता है.
रोकथाम- इस कीट से रोकथाम के लिए खेत और आसपास की जगह को खरपतवार मुख्त रखें. जैव-नियंत्रण के माध्यम से एक किलो मेटारीजियम एनीसोपली (कालीचक्र) को 50-60 किलो गोबर खाद या कम्पोस्ट खाद में मिलाकर बुवाई से पहले या मिट्टी में पहली बारिश के पहले खेत में मिला दें. इसके नियंत्रण के लिए रोपाई के समय कार्बोफ्युरोन 3% GR की 7.5 किलो मात्रा प्रति एकड़ की दर से खेत में मिला सकते हैं. या कारटॉप हाइड्रोक्लोराइड 4% G की 7.5 किलो मात्रा प्रति एकड़ की दर से खेत में बिखेरें. या क्लोरपायरीफोस 20% EC की 1 लीटर मात्रा सिंचाई के पानी के साथ मिलकर प्रति एकड़ की दर से दें. खड़ी फसल में कीट दिखाई देने पर क्लोरपायरीफोस 20% EC @ 300 मिली या डेल्टामेथ्रिन 2.5 EC प्रति 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.
मकड़ी (Mites): यह कीट छोटी छोटी मकड़ी होती है जो पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसते है. इस कीट का प्रकोप दाना बनते समय ज्यादा होता है, जिससे पूरा पौधा हल्के पीले रंग का दिखने लगता है. इसका प्रकोप प्रमुख रूप से नई पत्तियों और पुष्पक्रम के दौरान होता है और पौधा छोटा रह जाता है.
रोकथाम- अधिक प्रकोप वाले स्थानों पर अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुवाई करने से इस कीट से फसल को कम हानि होती है. इसके नियंत्रण के लिए प्रॉपरजाइट 57% EC की 2 मिली मात्रा या एबामेक्टिन 1.9% EC की 0.4 मिली मात्रा एक लीटर पानी में छिडकाव करें.
छाछ्या या भभूतिया रोग (Powdery mildew): इस रोग में पौधों की पत्तियों और टहनियों पर सफेद चूर्ण जैसा पदर्था दिखाई देता है. रोग का प्रकोप अधिक होने पर या तो बीज नहीं बनते या बहुत छोटे बीज बनते हैं. जिससे इनकी गुणवत्ता भी अच्छी नहीं होती है.
इसकी रोकथाम के लिए केराथेन SL 1 मिलीलीटर या घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए. 15 दिन के अंतराल पर पूर्ण सुरक्षा के लिए दो-तीन छिड़काव करना उचित रहेगा.
तना पिटिका रोग (Stem Gall): इस रोग की वजह से तने पर कई तरह के आकार के फफोले पड़ जाते हैं. इसकी वजह से पौधों की बढ़त रुक जाती है और पूरी फसल पीली पड़ने लग जाती है. पौधों पर फूल आने की अवस्था पर इस रोग का आक्रमण होने पर बीजों का आकार छोटा हो जाता है. वातावरण में नमी अधिक होने पर इस बीमारी का प्रकोप अधिक बढ़ता है. इस रोग से बचाव के लिए रोगरोधी किस्म आर.सी.आर. 41 बोएं. नियंत्रण के लिए बीजों को बुवाई से पहले थाइरम 1.5 ग्राम एवं कार्बेण्डजीम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर कार्बेण्डजीम 50% WP की 200 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना उचित रहेगा.
उखटा रोग (Wilt): इस रोग में पौधे हरे ही मुरझाने लगते हैं. यह पौधे की शुरुआती अवस्था में ज्यादा होता है लेकिन रोग का हमला किसी भी अवस्था में हो सकता है.
उखटा के बचाव के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करें. बीज को कार्बेण्डजीम 50% WP 2 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरिडी 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचरित करना चाहिए. इसके रासायनिक उपचार हेतु कासुगामायसिन 5% + कॉपर आक्सीक्लोराइड 45% WP दवा की 300 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ या कासुगामायसिन 3% SL की 400 मिली मात्रा प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. मिट्टी उपचार के रूप जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा विरिड की एक किलो मात्रा या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस की 250 ग्राम मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बीखेर दें. खेत में पर्याप्त नमी जरूर बनाए रखें.
झुलसा रोग (Blight)
धनिए की फसल में इस रोग का प्रकोप होने पर पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जिससे पत्तियां झुलसी हुई नजर आती है. वर्षा होने के साथ रोग की संभावना बढ़ जाती है.इन रोगों के निवारण के लिए क्लोरोथालोनिल 70% WP @ 300 ग्राम/एकड़ या कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोज़ब 63% WP @ 500ग्राम/एकड़ या मेटिराम 55% + पायरोक्लोरेस्ट्रोबिन 5% WG @ 600 ग्राम/एकड़ या टेबूकोनाज़ोल 50% + ट्रायफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 25% WG @ 100ग्राम/एकड़ या ऐजोस्ट्रोबिन 11% + टेबूकोनाज़ोल 18.3% SC@ 250 मिली/एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.जैविक उपचार के रूप में ट्राइकोडर्मा विरिडी @ 500 ग्राम/एकड़ या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस @ 250 ग्राम/एकड़ के हिसाब से छिड़कें.
फसल का पाले से बचाव (Crop protection from frost)
पाले से बचाव के लिए पाली पड़ने की संभावना नजर आते ही सिंचाई करनी चाहिए. सूर्यास्त से पहले अगर खेत में धुआं किया जाए तो फसल को पाले से बचाने में मदद मिल सकती है. थायोयूरिया की 500 ग्राम 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर सकते हैं और 15 दिनों के बाद छिड़काव दोहराना चाहिए. चूंकि सल्फर (गंधक) से पौधे में गर्मी बनती है अतः 8-10 किग्रा सल्फर डस्ट प्रति एकड़ का भुरकाव भी किया जा सकता है या घुलनशील सल्फर 600 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करने से पाले के असर को कम किया जा सकता है.
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