केला भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला फल है। यह फल हर मौसम में पाया जाता है। केले की खेती भारत में लगभग सभी राज्यों में की जा रही है लेकिन इसकी खेती सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में होती है। केले का इस्तेमाल सबसे ज्यादा फल के रूप में खाने के लिये किया जाता है तथा साथ-साथ जूस, आटा और इसके कच्चे फलों का इस्तेमाल सब्जी बनाने के लिये किया जाता है। केले की इतनी ज्यादा मांग को देखते हुए किसान भाई इसकी खेती करते हैं लेकिन केले के पौधों में विभिन्न प्रकार के रोगों का आक्रमण देखने को मिलता है जिससे किसान भाइयों को बहुत ज्यादा हानि होती है। हम आपको इस लेख में केले में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने वाले हैं।
केले में लगने वाले प्रमुख रोग-
पनामा रोग (फ्यूजेरियम विल्ट)
यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीइस्पोरम उपजाति क्यूबेन्स नामक कवक से होता है। यह रोग पौधे के विकासकाल में कभी भी लग सकता है। रोग के प्रथम लक्षण के रूप में पत्तियों पर हल्की पीले रंग के धारियां बनने लगती हैं फिर धीरे-धीरे पूरी पत्ती पीली पड़ जाती है और कुछ पत्तियां टूटकर लटक जाती हैं। इस रोग से प्रभावित पौधे को काटकर देखने पर वैस्कुलर ऊतकों का रंग गहरे भूरे रंग का दिखायी देता है। पौधे की पत्तियां नष्ट हो जाती हैं। इस रोग से प्रभावित खेत में सड़ी मछली की तरह दुर्गन्ध आती है।
रोकथाम-
रोग ग्रसित पौधे को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। रोपण से पहले ही ट्राइकोडर्मा युक्त 20 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति गड्ढे में डालना चाहिए। जिस मृदा की पी.एच 7 या 7 से अधिक हो उसी मृदा में ही रोपण करें। रोपण के लिये स्वस्थ पुत्तियों का प्रयोग करना चाहिए।
सिगाटोका रोग (पर्ण चित्ती)-
सिगाटोका रोग सरकोस्पोरा म्यूजोकोला नामक कवक से होता है। यह रोग लगने पर पौधे के पत्तियों पर काले रंग के धब्बे दिखायी देते हैं जिनका आकार धीरे-धीरे बढ़ जाता है तथा ज्यादा संक्रमण होने पर प्रभावित पौधों की पत्तियां पूरी तरह झुलस जाती हैं। पत्तियों पर हल्के पीले या हरे रंग की धारियां बनती हैं। sयह रोग अत्याधिक नमी और उच्च तापमान वाले क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है।
रोकथाम-
इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पहले छिड़काव के बाद दूसरे छिड़काव के रूप में प्रोपीकोनाजोल (टिल्ट) 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मोको रोग (जीवाणु म्लानि)-
मोको रोग रालस्टोनिया सोलैनसियरम नामक जीवाणु से होता है। संक्रमित पौधे की नई पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं तथा बाद में टूट जाती हैं। इसके कारण पौधे के बीच की पत्ती सूख जाती है। इस रोग के लक्षण वैस्कुलर ऊतकों में भी देखने को मिलता है। प्रभावित तने को काटकर देखने पर गहरे भूरे रंग का दिखाई देता है। इस स्थान से हल्के पीले रंग का द्रव निकलता है।
रोकथाम-
केले के रोपण के समय जल निकासी की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए जिससे रोग का प्रकोप कम हो जाता है। रोग ग्रसित खेत में भूमि का 4 से 5 जुताई करनी चाहिए। रोग ग्रसित पौधे को नष्ट कर देना चाहिए। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए।
श्याम वर्ण रोग (फल विगलन)
यह रोग कोलेटोट्राइकम नामक कवक से होता है। इस रोग के लक्षण दो प्रकार के होते हैं पहला लक्षण कच्चे फूल पर संक्रमण होने से होता है। इस प्रकार के संक्रमण को गुप्त संक्रमण कहा जाता है इसकी पहचान फूल तथा छाल पर बने काले बिन्दुओं द्वारा होता है तथा बिन्दुनेमा संरचना बड़े-बड़े काले चकत्ते का रूप ले लेती है।
रोकथाम-
संक्रमण आने से पहले ही कवकनाशी रसायन जैसे हेक्जाकोनाजोल 1 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या मैन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
गुच्छ शीर्ष रोग (बंची टाप)-
केले का यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है यह रोग फसल की किसी भी अवस्था में लग सकता है। संक्रमित केले के पौधे की पत्तियां गुच्छेनुमा दिखाई देती हैं इसलिए इस रोग को गुच्छ शीर्ष रोग कहा जाता है। इस रोग के कारण पौधे छोटे रह जाते हैं। इस रोग का वाहक माहू कीट है जो संक्रमण को एक पौधे से दूसरे पौधे पर पहुंचाता है।
रोकथाम-
रोग संक्रमित पौधे को नष्ट कर देना चाहिए जिससे रोग का प्रसार कम हो जाता है। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए। रोग वाहक (माहू) से बचने के लिए पौधों पर कीटनाशक रसायन जैसे इमिडाक्लोप्रिड 1 मिलीलीटर प्रति 2.5 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
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लेखक-
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1विश्व विजय रघुवंशी, 2प्रभा सिद्धार्थ
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1शोध छात्र, पादप रोग विज्ञान, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या
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2शोध छात्रा, पादप रोग विज्ञान, चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर
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