कैक्टस के पौधे मोटे और तनें फूले हुए होते हैं. यह शुष्क जलवायु जैसी परिस्थितियों में बढ़ने और अपने कांटों से भरे हुए रूप और आकार के लिए जाना जाता है. कैक्टस की मुख्यत: सारी प्रजातीयां उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में पाई जाती है. इनके तने काफी मोटे होते हैं जिससे इनकी तनों,टहनियों में पानी इकट्ठा रहता है. इनकी पत्तियां कांटनुमा होती हैं. कैक्टस को हिंदी में नागफनी कहा जाता है.
खेती का तरीका-
मिट्टी
कैक्टस की खेती के लिए हल्की रेतीली सूखी मिट्टी सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है. आप गमले में सड़ी हुई गोबर की खाद, हल्की मात्रा में रेत, लकड़ी के कोयले के टुकड़े, पत्ती की खाद व दोमट मिट्टी को मिलाकर एक अच्छी मिट्टी तैयार कर सकते हैं. ऐसी मिट्टी मे कैक्टस की पैदावार बहुत अच्छी होती है. यह ध्यान रखें कि ज़्यादातर कैक्टस काफी नुकीले होते हैं, जो त्वचा में चुभ सकते हैं. इनको बहुत ही सावधानी के साथ उगाना होता है. छोटे बच्चे और पालतू जानवरों की पहुंच से इसे दूर रखें.
प्रकाश
कैक्टस के पौधों को पर्याप्त मात्रा में प्रकाश और तेज धूप की जरूरत होती है. पौधों का रोपण ऐसी जगह करें, जहां दिन में कम से कम 4 से 5 घंटे पौधों को धूप मिल सके. कैक्टस को सर्दियों के मौसम में पानी देने की जरुरत नहीं होती है. गर्मियों में 15 से 20 दिन में एक बार पानी दे देना चाहिए.
तापमान
कैक्टस को सामान्य रूप से 15 डिग्री से ऊपर का तापमान उपयुक्त माना जाता है. सर्दियों में बहने वाली तेज हवाएँ इसकी वृध्दि में अवरोध पैदा कर सकती हैं, इसलिए ज्यादा सर्दियों के दौरान पौधों को खुली जगह पर रखने से बचाए.
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उपयोग
कैक्टस का उपयोग पशुओं के चारे के साथ-साथ जैव ईंधन और जैव उर्वरक बनाने के रुप में किया जाता है. भारत में लगभग 20 लाख हेक्टेयर के खेतों में कैक्टस की खेती होती है. आपको बता दें कि अब कैक्टस का इस्तेमाल चमड़ा उद्योग मे भी किया जाने लगा है. एक रिसर्च के अनुसार, कैक्टस से तैयार चमड़ा पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है और यह जानवरों पर होना वाले अन्याय को भी कम कर सकता है जो फलस्वरुप हमारे पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण को कम करेगा. अंतर्राष्ट्रीय फैशन इंडस्ट्री में भी कैक्टस से बने चमड़े की मांग धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है.
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