फसल की कटाई के बाद, पत्तियों, डंठल और जड़ों सहित पौधे के बचे हुए वानस्पतिक भाग को फसल अवशेष के रूप में जाना जाता है. भारत सरकार के द्वारा वर्ष 2016 में किए गए अध्ययन के अनुसार देश में लगभग 500 मिट्रिक टन फसल अवशेष प्रति वर्ष उत्पन्न होता है. देश में सबसे ज्यादा फसल अवशेष उत्पादित राज्य उत्तर प्रदेश है. जहाँ लगभग 60 मिट्रिक टन फसल अवशेष पैदा होता है. इसके बाद पंजाब में 51 मिट्रिक टन और महाराष्ट्र में 46 मिट्रिक टन फसल अवशेष प्रति वर्ष उत्पन्न होते है. इन फसल अवशेषों में लगभग 352 मिट्रिक टन अनाज वाली फसलों से, 66 मिट्रिक टन रेशे वाली फसलों से, 29 मिट्रिक टन तिलहन वाली फसलों से, 13 मिट्रिक टन दलहन की फसलों से और 12 मिट्रिक टन गन्ने की फसल से उत्पन्न होता है. अनाज वाली फसलों में चावल, गेहूं, मक्का और बाजरा ने मिलकर लगभग 70% फसल अवशेष उत्पन्न होता है.
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि खेतों में फसल अवशेष जलाने से ज़हरीली गैस निकलती हैं. जिससे न सिर्फ हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता हैं बल्कि इससे मिट्टी की भौतिक दशा भी खराब होती है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशानुसार कृषि यंत्रिकरण पर प्रस्तुत एस.एम.ए.एम. योजना के लिए एक बजट लाया गया है. जिसका 60 % वहन केंद्र सरकार व 40 % वहन राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा. साल 2018 के बजट में वायु प्रदूषण को रोकने और फसल अवशेष के प्रबंधन के लिए काम में आने वाली मशीनरी पर सब्सिडी देने पर अधिकजोर दिया . जिसके लिए पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली-एनसीआर जैसे क्षेत्रों में एक परियोजना लागू की गई है. जिसका नाम 'प्रोमोशन ऑफ एग्रीकल्चरल मैकेनाईजेशन फॉर इन- सीटू मैनेजमैंट ऑफ क्रोप रैजीड्यू योजना रखा गया है. यह योजना वर्ष 2018-19 से 2019-20 के लिए पारित की गई है. इस योजना के लिए सरकार द्वारा कुल 1151.8 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है.
वें फसलें जिनसे ज्यादा फसल अवशेषों का उत्पादन होता है :-
अनाज, दलहन और तिलहन में (चावल, गेहूँ, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूंग, चना, लोबिया, मूंगफली, अलसी, सरसों अन्य फसलें)
कपास, जूट, साबुतदाना की पत्तियाँ, गन्ने के अवशेष जिन में ऊपर का अगोला और पत्तियाँ शामिल हैं.
अन्य अपशिष्ट - चावल की भूसी, धूल, चाय के बचे अवशेष.
आज हमारे देश में फसल अवशेषों का एक बड़ा हिस्सा खेत में ही जलाया जाता है. ताकि आगामी फसल की बुवाई के लिए खेत खाली हो सके.यह समस्या सिंचित क्षेत्रो में अधिक गंभीर है. खासकर उत्तर-पश्चिम भारत में, जहां धान और गेहूं की फसल चक्र प्रणाली से खेती होती है. इससे किसान ना केवल अपने खेत को खराब कर रहा है. बल्कि अपनी मिट्टी की संभावित उर्वरता को जलाकर 'अपनी जेब की सफाई' भी कर रहा है. विश्व के बहुत से शोधकर्ताओं द्वारा फसल के अवशेषों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में जैसे- कपड़ा उद्योग, नॉन-वेट मेकिंग प्रॉसेस, पॉवर जनरेशन, बायोगैस संयन्त्र, पशुआहार, कम्पोस्ट और गोबर की खाद आदि क्षेत्रों में किया जा रहा है. जैव-ऊर्जा, ऊष्मीय शक्ति संयंत्रो के प्रचलन के अलावा बढ़ती पशुआहार की मांग और जैविक कृषि के लिए बढ़ता रूझान कृषि में फसल अवशेषों के इस्तेमाल के लिए एक सही विकल्प नज़र आ रहा है.
फसल अवशेष जलाने का प्रतिकूल प्रभाव : -
पोषक तत्वों की हानि: एक शोध के अनुसार 5.5 टन नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फास्फोरस, 25 किलोग्राम पोटेशियम और 1.2 किलोग्राम सल्फर के अलावा कार्बनिक पदार्थों की हानि एक टन चावल के भूसे को जलाने से होती है. आमतौर पर विभिन्न फसलों के फसल अवशेषों में 80% नाइट्रोजन (N), 25% फॉस्फोरस (P), 50% सल्फर (S) और 20% पोटैशियम (K) होता है. फसल के अवशेषों का सही तरीके से प्रबंधनना करने की स्थिति में हमें इसका नुकसान भी हो रहा है.
मिट्टी के गुणों पर प्रभाव: अवशेषों को जलाने से मिट्टी का तापमान बढ़ जाता है जिससे मिट्टी में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं मर जाते है. बार-बार अवशेषों को जलाने से सुक्ष्म जीवाशंम का पूर्णत: नुकसान होता है और भूमि के उपरी हिस्से में नाइट्रोजन और कार्बन का स्तर कम हो जाता है. जिसके कारण फसल की जड़ों का विकास अच्छा नहीं होता है.
ग्रीन हाउस और अन्य गैसों का उत्सर्जन: अनुमानत: चावल के भूसे को जलाने पर उसमे मौजूद कार्बन का 70% हिस्सा कार्बन डाई ऑक्साइड के रूप में, 7 % हिस्सा कार्बन मोनोऑक्साइड और 0.66 % हिस्सा मिथेन के रूप में उत्सर्जित होता है. जब कि पुआल में उपलब्ध नाइट्रोजन का 2.09% हिस्सा नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में उत्सर्जित होता है.
खेत की मृदा में फसल अवशेषों के लाभ
फसल के अवशेषों को मिट्टी में मिला ने से वह मिट्टी की भौतिक दशा में सुधार करता है और बारिश और हवा के द्वारा होने वाले मृदा के कटाव को रोकता है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों को बढ़ाने के साथ ही मिट्टी की जल धारण क्षमता में भी सुधार करता है.
पौधों के अवशेषों को मल्चिंग के रूप में इस्तेमाल कर ने से सर्दियों में मिट्टी का तापमान बढ़ता है. जिससे मिट्टी से ऊपर की ओर ऊष्मा का प्रवाह कम हो जाता है और गर्मी के दौरान मिट्टी का तापमान कम होता है. मिट्टी की सतह पर अवशेषों की उपलब्धता होने से वास्पोत्सर्जन कम होता है और मिट्टी में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है.
फसल के अवशेष मृदा पीएच को बनाए रखने में विशेष योगदान देते है. उच्च ताप क्रम व नाइट्रोजन के साथ अपघटन के दौरान हाइड्रॉक्सिल के बनने से मिट्टी की अम्लता का सुधार होता है इसी तरह तिलहन व दलहन फसलों के अवशेषों से मृदा क्षार में सुधार होता है.
मृदा में उपस्थित फसल अवशेष विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों की बढ़वार मे मदद करते है साथ ही साथ मृदा में उपस्थित विभिन्न प्रकार के एंजाइमों जैसे यूरेज, डीहाईड्रोजिनेज आदि की प्रक्रिया को बढ़ा देते हैं जिससे मृदा की भौतिक दशा मे सुधार होता है.
निष्कर्ष:
फसल के अवशेष पशुआहार, ईंधन और औद्योगिक कच्चे माल के रूप में बहुत महत्व रखते हैं. लेकिन हम इसे कूड़ा और कचरा समझ कर इनका आर्थिक रूप से प्रयोग ही न हीं कर रहे है. खेती में मजदूरों की समस्या और आर्थिक कठिनाइयों के कारण फसल अवशेषों के प्रबंधन पर किसानों द्वारा भी व्यापक ध्यान नही दिया जाता है. जब तक हम समाज को, फसल अवशेषों को जलाने पर मानव, पशुधन, मृदा स्वास्थ, जीवाणु और पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव के बारे में जागरूक नहीं करेंगे तक तक इनके जलाने पर प्रतिबंध लगाना सार्थक नहीं हो सकता. इसके लिए हमें निम्न कदम उठाने होंगे.
किसानों को कई प्रसार गतिविधियों जैसे किसान बैठक, विज्ञापन, चार्ट, लीफलेट और लघु नाटिका, आदि के माध्यम से फसल अवशेषों की उपयोगिता को बताना होगा.
किसानों को फसल अवशेषों के जलाने पर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव के बारे में बताना होगा.
किसानों को कृषि अवशेषों के उचित प्रयोगों जैसे सीटू कम्पोस्ट, पुआल मल्चिंग और औधोगिक क्षेत्र मे प्रयोग के बारे में बताना होगा.
बॉयलर के लिए ईंधन के रूप में उपयोग करने के लिए फसल के अवशेषों को एकत्र कर लघु उधोगों में प्रयोग के बारे मे बताना होगा.
डिस्कप्लाव, डिस्कहैरो, रोटावेटर, जीरो टिलेज और हैप्पी सीडर द्वारा फसल अवशेषों मिट्टीमें मिलने के तरीको के बारे मे किसानों को बताना होगा.
फसल अवशेषों को खेत मे ही जुताई कर डिकम्पोजर का छिड़काव कर गलाया जा सकता है. जिससे खेत मे कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढेगी.
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