बागवानी के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों के लिए गत पांच दशक से कार्यरत डॉ कृष्ण लाल चड्ढा को 2012 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. हरियाणा सरकार के किसान आयोग के तत्कालीन अधय्क्ष डॉ आर एस परोधा ने भी उन्हें हरियाणा में बागवानी द्वारा विकास की कार्यकरिणी के अध्यक्ष के रूप में लेते हुए जो भरोसा उन पर जताया उसी का यह परिणाम है की आज हरियाणा बागवानी में एक उत्कृष्ट स्थान प्राप्त कर चुका का है.
डॉ चड्ढा की पहचान भारतीय बागवानी के जनक के रूप बागवानी को सवर्ण क्रांति की ओर ले जाने वाले डॉ कृष्ण लाल चड्डा पहले भारतीय हैं जिनको इस सम्मान से जाना जाता है.
डॉ चड्ढा ने कृषि जागरण टीम के साथ एक भेंट में बताया की नवम्बर 2018 में छतीसगढ के रायपुर में आठवें हॉर्टिकल्चर कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा है.
आठवें भारतीय बागवानी कांग्रेस 2018 का विषय है "भारतीय बागवानी का भविष्य सवारना ". डॉ चड्ढा का कहना है की पिछले सातवें हार्टिकल्चर कांग्रेस का विषय था किसानों की आय को बागवानी के दवारा दोगुना करना.
बागवानी है क्या और किसान इस से कैसे लाभवन्ति हो सकते हैं. किसान खेती बड़ी तो करता ही है और परम्परागत फसलों का उगाना ही किसान का मुख्य काम रहा है. लेकिन अब बागवानी दवारा वह क्या और कैसे आगे बढ़ सकता है, आये जानते हैं डॉ कृष्ण लाल चड्ढा से:
बागवानी के क्षेत्र में उभरती चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए और जनता के लिए पोषण सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक दृष्टि "घरेलू और निर्यात बाजार में नेतृत्व करने के लिए एक दृष्टि से हरियाणा आधुनिक फलों और वनस्पति खेती राज्य बनाने" को निम्नलिखित उद्देश्यों को निर्धारित किया गया है :
1. कृषि से बागवानी तक विविधता
2. बागवानी उत्पादन की दोहरीकरण
बागवानी विभाग फलों, सब्जियों और फूलों के उत्पादन और रखरखाव के साथ-साथ मसालों, औषधीय और सुगंधित पौधों का प्रबंधन करता है। किसानों द्वारा उत्पादित पारंपरिक फसलों की तुलना में बागवानी फसलों की खेती अत्यधिक विशिष्ट, तकनीकी और लाभकारी उद्यम है। इसके अलावा, बागवानी फसलों के बहुमत, प्रकृति में खराब होने के कारण, उनके विकास के लिए व्यवस्थित योजना की आवश्यकता होती है। बागवानी विकास ने हाल के वर्षों में अधिक महत्व ग्रहण किया है क्योंकि इस क्षेत्र की भूमि उपयोग के विविधीकरण के लिए लाभकारी के रूप में पहचान की गई है जो रोज़गार के अवसरों में वृद्धि प्रदान करता है, प्रति यूनिट क्षेत्र में बेहतर प्रतिफल और पोषण के अंतराल को भरने के अलावा।
हरियाणा के किसानों ने भी बागवानी फसलों को एक अलग व्यवहार्य आर्थिक गतिविधि के रूप में शुरू करना शुरू कर दिया है।
1. बुनियादी प्राकृतिक संसाधनों का इष्टतम उपयोग
2. हितधारकों के बीच अभिसरण और तालमेल की स्थापना
3. उत्पादकता, उपज और बागवानी उत्पादन की गुणवत्ता में सुधार
4. आर्थिक स्थिति में वृद्धि और इस प्रकार प्रति इकाई आय में वृद्धि।
5. किसानों के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक का प्रसार।
6. लोगों के लिए पोषण सुरक्षा
7. निर्यात क्षमता और विदेशी मुद्रा कमाई का निर्माण
ताकत
1. गुणवत्ता वाले फल और सब्जियों के उत्पादन के अनुकूल जलवायु।
2. उच्च उत्पादन क्षमता वाले फलों और सब्जियों के लिए विशेष मिट्टी।
3. दिल्ली और त्रि-शहर चंडीगढ़ जैसे प्रमुख बाजारों के निकटता
अवसर:
1. एनसीआर के निकटता उत्कृष्ट विपणन चैनल प्रदान करता है।
2. फलों में प्रसंस्करण उद्योग की स्थापना के लिए क्षेत्र (आम, साइट्रस, आंवला, स्ट्रॉबेरी) और
3. सब्जियां (मटर, टमाटर, आलू, गाजर, लहसुन, प्याज)
4. सुदूर पूर्व के लिए आम, साइट्रस-किन्नो और सब्जियों का निर्यात।
5. एपीएमसी अधिनियम में संशोधन, ठेका खेती के अवसर।
6. अनुकूल उद्योग जलवायु
पाम आयल के व्यवसायिक उत्पादन के लिए भी श्रेय डॉ चड्ढा को ही जाता है. भारत की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हर साल लगभग 23 लाख टन वनस्पति तेल की आवश्यकता होती है। लेकिन भारत में केवल 8 लाख टन तेल का ही उत्पादन हो रहा है, जिसके चलते करीब 15 लाख टन तेल विदेशों से मंगाया जाता है। इससे न सिर्फ देश की करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा खर्च होती है, वरन देश के किसानों को उनकी उपज का पूरा मूल्य भी नहीं मिल पाता है। देश के अधिकांश लोगों के किचन, होटल और रेस्टोरेंट में जो तेल सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है, वह विदेशों से ही मंगाया जाता है।
उल्लेखनीय है कि भारत में 2017-18 में आयात कर 74,996 करोड़ रुपए का खाद्य तेल मंगवाया गया, जबकि इसी दौरान दालों का आयात केवल 18,748 करोड़ का हुआ। मजेदार बात यह है कि जिस देश की कुल आबादी का 55 प्रतिशत से अधिक मानव संसाधन कृषि कार्य में जुटा हो, उसमें विदेशों से भी कृषि उत्पाद मंगाए जाते हैं, उनमें खाने योग्य तेल पर खर्च सबसे ज्यादा है। आपको बता दें कि विदेशों से मंगवाए जाने वाले तेल में 80 फीसदी तक पॉम ऑयल होता है, भारत में खाद्य तेल का जितना उत्पादन किया जाता है, उससे मुकाबले मांग करीब तीन गुना ज्यादा है।
यह तेल सरसों, मूंगफली और सोयाबीन के बजाए काफी सस्ता होने के कारण धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। देश में तिलहन कृषि व किसान दयनीय स्थिति में हैं। आखिर क्या कारण है कि विदेशों से आयात की नौबत आती है? याद दिला दें कि अस्सी के दशक के आसपास देश में पर्याप्त मात्रा में तिहलन उत्पादन हो रहा था, किंतु उसके बाद हमारी सरकारों की उपेक्षा के चलते हमारी निर्भरता विदेशों पर बढ़ती गई।
बाहर से आने वाले किसी उत्पादन पर आयात ड्यूटी बढ़ाने से उसकी दरें बढ़ने लगती हैं, जिसका असर ग्राहकों पर पड़ता है। पॉम आयल 60 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से देश के किसी गांव तक पहुंच जाता है, लेकिन सरसों, राई, तिल या मूंगफली के तेल की कीमत इससे ज्यादा होगी। तिलहन उत्पादन के मामले में उत्तर प्रदेश की हालत सबसे दयनीय दयनीय है। इन फसलों की अधिक खेती उन इलाकों में होती है, जहां कृषि मानसून पर ज्यादा निर्भर है।
चन्दर मोहन
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