बेमौसम वर्षात और प्राकृतिक आपदाओं के वजह से आजकल देश के अन्नदाता का हाल पूरी तरह से बेहाल है. इसके साथ ही फसल बर्बादी के चलते किसान खुदकुशी करने को मजबूर हो गए है. इस समस्या से निपटने के लिए ‘चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय’, कानपुर (सीएसए) ने कमर कस ली है और यहां के वैज्ञानिक किसानों को आधुनिक खेती के गुर सिखाने की कोशिशों में लग गए है तो वही नई तरह के बीजों के लिए भी शोध करने में लग गए है.
इसी कड़ी के तहत सीएसए ने हुक्का तंबाकू की एक नई प्रजाति को विकसित किया है. एआरआर 27 रवि नाम की इस तंबाकू में निकोटीन की मात्रा ज्यादा होने से इसका इस्तेमाल एंटीफंगल व एंटीबैक्टीरियल दवाओं को बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. यह तंबाकू एक हेक्टेयर में 34 क्विंटल की उपज देती है जबकि पुरानी प्रजातियों की पैदावार की औसतन 25 क्विंटल की पैदावर देती है.
औषधीय गुण भी मौजूद
यह तंबाकू अन्य फसलों के मुकाबले एक एकड़ में 34 कुंतल से ज्यादा उपज भी देती है. इसके अलावा औषधीय गुणों के साथ ये फसलों में लगने वाले कीड़ों से निजात दिलाने में काफी ज्यादा मददगार है. निदेशकों के मुताबिक तंबाकू की रवि प्रजाति को सामने लाने के लिए एक साल से अधिक तक शोध कार्य चला. अब इस तंबाकू का बीज तैयार हो चुका है जो कि किसानों के लिए बेहद ही जल्द उपलब्ध होगा. इस तंबाकू की फसल से किसान काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते है.
115 दिनों में तैयार होगी फसल
संस्थान के प्रोफेसर एचजी प्रकाश के मुताबिक चौड़ी पत्ती वाली तंबाकू एक हेक्टेयर में 34 क्विंटल में उपज देती है जबकि पुरानी प्रजातियां औसतन 25 क्विंटल तक की उपज देती है. ये फसल 115 से 120 दिनों में पूरी तरह से पक जाती है. इसमें निकोटीन की मात्रा ज्यादा होने की वजह से इसके तत्वों से दवाएं तैयार की जा सकती है. इसमें खास बात यह है कि खेतों में पक रही दूसरी फसलों के साथ इसका छिड़काव करके कीट-पतंगों से बचाव किया जा सकता है.
इस वैज्ञानिक ने खोजा
प्रोफेसर एचजी प्रकाश ने बताया कि केंद्रीय तंबाकू शोध संस्थान राजमुंदरी आंध्र प्रदेश के साथ मिलकर तंबाकू शोध जनक डॉक्टर अरविंद श्रीवास्तव के साथ हमारी टीम ने पूरे एक साल तक हुक्का तंबाकू पर कार्य किया है. नए साल में रवि नाम की इस तंबाकू की प्रजाति का बीज किसानों को आसानी से उपलब्ध होने लगेगा. प्रोफेसर के मुताबिक किसान इस तंबाकू के अलावा उसी खेत पर दो अन्य फसलें भी उगा सकते है.
किशन अग्रवाल, कृषि जागरण
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