भारत में किसानों का मुद्दा हमेशा से ही सवेदनशील और ज्वलंत रहा है. आजादी के बाद से मौजूदा वक्त तक, यह मसला बेहद प्रचलित और गंभीर बना हुआ है. किसानों की दशा पर हमेशा से ही बात होती रही है. साथ ही किसानों की बनती-बिगड़ती दशा पर राजनीतिक पार्टियां भी चुनावी रोटियां सेंकती रही हैं. हालाँकि, कृषि सुधार को लेकर किसी राजनीतिक दल ने संजीदगी नहीं दिखाई. आज खेती घाटे का सौदा बनकर रह गई है. जिसके चलते इस क्षेत्र में कई नई समस्याएं उभरकर सामने आ रही हैं. बटाईदार खेती भी इन्हीं समस्याओं में से एक है जो लगातार बढ़ती जा रही है. इसके समाधान के लिए राजनीतिक स्तर पर भी कोई कोशिश नहीं की गई.
नब्बे के दशक में भारत ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू की. जिससे दुनिया की तमाम कंपनियों को देश के बाजार में प्रवेश को मंजूरी मिल गई. जिसके चलते देश के औद्योगिक क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. बाजार, परिवहन और सुलभता के चलते अधिकतर कारखाने शहरों में स्थापित किए गए. नतीजतन शहरों में रोजगार की उपलब्धता बढ़ गई. वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण आबादी हमेशा की तरह, कृषि संकट से जूझ रही थी. खेती पूरी तरह से घाटा दे रही थी और किसान की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही थी. सरकारों की उदासीनता ने 'कोढ़ में खाज' का काम किया. देश में जारी कृषि संकट के स्थाई समाधान के लिए गंभीरता से कोई भी कोशिश नहीं की गई. मजबूरन, किसान गांव से शहरों की तरफ पलायन करने लगे. जिससे बटाई खेती की प्रथा जोर पकड़ने लगी. गांव के ही भूमिहीन या छोटे किसान किराए पर जमीन लेकर खेती करने लगे. आज इन बटाईदार किसानों की कुल संख्या वास्तविक किसानों की संख्या से भी ज्यादा हो चुकी है.
इस प्रक्रिया में जमीन के मालिक और बटाईदार के बीच कोई दस्तावेज पर हस्ताक्षर नहीं होते हैं बल्कि मौखिक आधार पर ही खेत का मोल भाव कर लिया जाता है. खास बात यह है कि इस प्रक्रिया में महज एक या दो फसल अवधि के लिए ही जमीन बटाई पर दी जाती है. नए बुवाई सीजन में पुराना करार खत्म कर दिया जाता है. आजीविका चलाने की मजबूरी के चलते बटाईदार किसान इस जाल में उलझा रहता है. खराब आर्थिक हालत और सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलने से बटाईदार किसानों की हालत अच्छी नहीं है. किसानों को मिलने वाली सब्सिडी, मुआवजा और अन्य कई तरह के लाभ इन किसानों को नहीं मिल पा रहे हैं.
इस दिशा में देर से ही सही लेकिन केंद्र सरकार ने वर्ष 2016 में एक मॉडल कानून को मंजूरी दी. चूँकि, कृषि व राजस्व दोनों राज्य के विषय होने के नाते मॉडल एग्रिकल्चरल लैंड लीजिंग एक्ट के क्रियान्वयन का दायित्व राज्यों का ही है. इसलिए केंद्र ने यह कानून उसी वर्ष सभी राज्यों को भेज दिया था. हैरत की बात यह है कि अब तक केवल चार राज्यों ने ही इस दिशा में पहल की है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और तेलांगना में इसे लागू कर दिया गया है. जबकि राजस्थान में केंद्र के इस मॉडल कानून पर अमल की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है लेकिन बाकी राज्यों में बटाईदार कानून को लागू करने में आनाकानी की जा रही है. इसकी वजह कोई भी हो सकती है, लेकिन इसका खामियाजा कृषि क्षत्र और बटाईदार किसान भुगत रहे हैं.
मौखिक अनुबंध के आधार पर खेती करने वाले इन किसानों की हाला पस्त है. उन्हें सरकार की ओर से दिया जाने वाला कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है. इस कारण देश में 14 करोड़ की जगह केवल चार करोड़ किसानों के पास ही किसान क्रेडिट कार्ड(केसीसी) है. बाजिब कानून न बनने से भूमि स्वामी अपनी जमीन किसी को पक्के तौर पर अनुबंध नहीं करता है. उसे अपनी भूमि स्वामित्व खो जाने का डर सताता रहता है. जबकि बटाईदार को न तो बैंक से कर्ज मिलता है और न ही फसल का नुकसान होने पर उसे किसी तरह का मुआवजा मिल पाता है.
अभी हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में किसानों का मुद्दा काफी अहम साबित हुआ था. तकरीबन हर छोटे-बड़े राजनीतिक दल ने किसानों को अपने पाले में करने की कोशिश की थी. इसके लिए कर्जमाफी जैसे वादों का भी सहारा लिया गया. अजीब बात यह है कि किसी भी पार्टी ने बटाईदार किसानों की बात करना भी जरुरी नहीं समझा. इससे जाहिर होता है कि कृषि संकट का मुद्दा सिर्फ चुनावों तक ही सिमट कर रह गया है.
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