अन्नदाता की आहुति और सत्ता का मौन!
देश की माटी से जुड़ी ये गाथा आज किसी कटु व्यंग्य से कम नहीं. खनोरी बॉर्डर की धरती, जहां अन्नदाता जगजीत सिंह डल्लेवाल का शरीर क्षीण होता जा रहा है, वहीं सत्ता गलियारों में व्यस्तता का आलम है—ऐसा जैसे कोई सूखा पत्ता हिल भी जाए तो उनकी कुर्सियों के पायों पर संकट मंडराने लगे. डल्लेवाल जी के अनशन को पचास दिन पूरे होने को हैं. किसान अपने ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के साथ धरने पर डटे हैं, और सत्ता के पहरेदार इतने व्यस्त हैं कि अन्नदाता की आवाज़ सुनने का वक्त नहीं मिल पा रहा. गजब ड्रामा चल रहा है कुर्सियां व्यस्त हैं, और किसान त्रस्त हैं.
"उधर कुआं इधर खाई" की त्रासदी
किसानों की यह लड़ाई किसी मोलभाव की नहीं, अपने हक की है. सरकार की ही गठित एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें धूल फांक रही हैं. 'एमएसपी' यानी कि 'न्यूनतम समर्थन मूल्य के गारंटी कानून' की मांग को लेकर किसान वर्षों से संघर्षरत हैं. गौर करने वाली बात है कि किसान अपने उत्पादन का कोई 'अधिकतम विक्रय मूल्य' (Maximum Sale Price : MSP) वाला 'एमएसपी' नहीं मांग रहा है. वह तो अपने उत्पादन का समुचित उत्पादन लागत और उसे पर जीवन यापन योग्य न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकार से गारंटी हेतु एक सक्षम कानून चाहता है, जिससे बिचौलिए व्यापारी उसके उत्पादन को औने-पौने कौड़ियों के मोल लूट ना खरीद पाएं, जैसा कि हर साल सारे किसानों के साथ होता रहा है.
किसान न यह तो कह ही नहीं रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उनका 1 ग्राम उत्पाद सरकार खरीदें. इसलिए सरकार के खजाने पर इस कानून को लाने से ₹1 एक रूपए भी अतिरिक्त खर्च नहीं होने वाला, सरकारी खजाने पर ₹1 एक रूपए का भी अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ने वाला . सरकार को तो बस एक लाइन का एक स्पष्ट कानून बना देना है की 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' से कम मूल्य पर कोई भी व्यापारी अथवा कंपनी किसान का किसी प्रकार का उत्पाद नहीं खरीद सकती पर इसे निश्चित रूप से मोटा चंदा देने वाले व्यापारी नाराज हो जाएंगे. यहीं पेंच फंसा हुआ है. सरकार किसी भी हालत में कॉर्पोरेट को नाराज करना नहीं चाहती. किसान कर्ज की जाल में फंसकर आत्महत्या कर रहे हैं, सरकार समस्या दूर करने की बात छोड़िए उनसे संवाद भी नहीं करती, दूसरी ओर
वही सरकार बड़े कॉर्पोरेट घरानों के 16 लाख करोड़ माफ करने में तनिक भी देर नहीं करती, यानि कि अमीरों के लिए तिजोरी और किसानों के लिए ताले ? सवाल उठता है, देश के करोड़ों किसानों के कर्ज माफ करने से सत्ता की धमनियों में इतनी झनझनाहट क्यों होती है?
आखिर कैसे देश के भाग्य विधाता यह समझने से चूक जाते हैं कि किसानों को उनके 95 प्रतिशत उत्पादों के लिए लाभकारी मूल्य तक नहीं मिल पा रहा. 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' भी सरकार के अन्य वायदों की तरह दूर क्षितिज में धुंधला होता दिखता है.
त्योहारों की धूम और किसान का संघर्ष
आज जब पूरा देश लोहड़ी, मकर संक्रांति और पोंगल की खुशियों में डूबा है, हर घर में तिल-गुड़ की मिठास बांटी जा रही है, वहीं दिल्ली की सरहद पर एक किसान तिल-तिल कर अपनी जान दे रहा है. ये कैसी विडंबना है कि देश के त्योहारों से अन्नदाता ही दूर होता जा रहा है, जिसकी मेहनत से ये पर्व सजे हैं? क्या किसानों के संघर्ष का कोई त्योहार नहीं होता जो सत्ता और समाज उसकी पीड़ा को समझ सके?
कैसा संगठन : सोया शेर या मूक बधिर?
यह विडंबना ही है कि किसान नेता अपनी प्राणों की आहुति देने को तैयार हैं, पर कई किसान संगठन नींद में बेसुध पड़े हैं. उनकी चुप्पी सवाल खड़े करती है—क्या वे अपने उद्देश्यों से भटक चुके हैं या सत्ता के इशारे पर मौन साधे हुए हैं? जब किसानों का अस्तित्व संकट में है, तब ये संगठन अपनी प्रासंगिकता खोने के कगार पर हैं.
"जब रोम जल रहा था, नीरो बंसी बजा रहा था"
सत्ता के गलियारों में शायद यह पुरानी कहावत गूंजती होगी. देश के किसान संकट में हैं, और सरकार जनहित की बात करने के बजाय अपनी राजनीति साधने में व्यस्त है. यह बात समझ से परे है कि आखिर सरकार अपने ही देश के किसानों के साथ संवाद करने से क्यों डरती है? सुप्रीम कोर्ट ने भले ही एक कदम उठाया हो, पर किसान आंदोलन का समाधान अदालतों के पास नहीं, बल्कि सत्ता के गलियारों में है.
संवेदनशीलता की नई परिभाषा चाहिए
सरकार को यह समझना होगा कि डल्लेवाल जी के अनशन से उनकी शहादत का कलंक माथे से मिटाना असंभव होगा. किसान संगठनों को भी अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए और डल्लेवाल जी के जीवन की रक्षा के लिए एकजुट होकर सार्थक पहल करनी चाहिए.
गांधीवादी रास्ता और मौन सत्ता
किसान संगठनों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे शांतिपूर्ण तरीके से संघर्ष को आगे बढ़ाएं. 45 किसान संगठनों के अराजनैतिक साझा मंच 'अखिल भारतीय किसान महासंघ' के संयोजक डॉ. राजाराम त्रिपाठी की यह पहल स्वागत योग्य है कि वे सरकार से सकारात्मक वार्ता की मध्यस्थता हेतु तैयार हैं. उनका कहना है कि जल्द से जल्द चाहे कोई भी रास्ता निकाला जाए, पर हर हाल में इस किसान नेता की जान बचाई जानी चाहिए.
'कटुता बढ़ाने की जगह संवाद का पुल बनाएं'
आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और किसान संगठनों के बीच संवाद की खाई को पाटने का प्रयास किया जाए. यदि डल्लेवाल जी को कुछ हुआ तो सरकार और किसानों के संबंध कभी सुधर नहीं पाएंगे. सत्ता के लिए यह चेतावनी है कि अन्नदाता को नज़रअंदाज़ करना न केवल उनके लिए, बल्कि देश के भविष्य के लिए आत्मघाती साबित होगा.
अब समय आ गया है कि सरकार और सोए पड़े किसान संगठन दोनों जागें. अन्यथा इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा. अन्नदाता का कर्ज और उनकी मेहनत दोनों का सम्मान होना चाहिए—यही लोकतंत्र का धर्म है.
लेखक: डॉ राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)
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