नेकी कर कुएँ में डाल, इस कहावत का महत्व खत्म सा होता नजर आ रहा है. हमारा देश पानी को जल और पवित्रता की कसौटी पर हमेशा पहले पायदान पर रखता आया है. नदी के पुल से गुजरते हुए उसमें तांबे के सिक्के अर्पण करना जल और नदी के प्रति आस्था का प्रतीक रहा है. हर एक अच्छे काम की शुरुआत में जल का आचमन लेना और उसकी पूजा करना पानी से एक जुड़ाव को ही दर्शाता है.
कितना दुःख होता है जब हम देखते हैं कि ‘पवित्रता की नदी’, ‘पाप धोने की मान्यता’ वाली "गंगा" भी प्रदूषण के पाप से बच नहीं पायी है. यमुना और नर्मदा भी इससे अछूती नहीं रहीं हैं. जब हम पानी की कदर नहीं करेंगे तो पानी भी हमारी इज़्ज़त कैसे करेगा. बाढ़, उफनती नदियों का रौद्र रूप हमें सोचने पर मजबूर करता है कि प्रकृति की यह पवित्र धरोहर हम से क्यों रूठती रहती है.
जमीन में भी पानी का स्तर हो रहा है नीचे
भूमिगत जल के अतिदोहन से भारत के कई राज्यों में भूमिगत जल के स्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई है जो भविष्य के लिये हानिकारक है. भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से सदावाहिनी नदियां भी सूख रही हैं. जल संरक्षण के लिए सरकार कई प्रयास कर रही है लेकिन इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है. सरकार ने तालाबों को मनरेगा के तहत गहरा करने का कार्य जरूर किया लेकिन कुएं की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. जल संरक्षण जैसे कार्य में लगी कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने कुओं को बचाने का बीड़ा उठाया है.
सन 1954 में केन्द्रीय कृषि विभाग के अन्तर्गत एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल्स ऑर्गेनाइजेशन (ईटीओ) की स्थापना की गई थी. वर्ष 1954 में पहली बार टयूबवेल लगाए गए. 1960 तक आते-आते टयूबवेल मुख्य धारा में आ गया. सरकार ने भी टयूबवेल लगवाने के लिए खूब पैसा खर्च किया. नतीजतन क्षमता से ज्यादा टयूबवेल लगा दिए गए. वर्ष 1966 में देश की पहली हरित क्रांति का आगाज हुआ. इसके लिए हमें पानी की बहुत ज्यादा जरुरत होने लगी. टयूबवेल और बोरवेल से लोगों ने बड़े पैमाने पर जल का दोहन करना शुरू कर दिया. जब कुएं से सिंचाई होती थी तो लोग बाल्टी या चरस से पानी निकालते थे. इस प्रक्रिया में ताकत बहुत लगती थी इसलिए लोग कम पानी निकालते थे. लेकिन जब टयूबवेल आ गया तो एक बटन दबाने के साथ ही भारी मात्रा में जल निकलने लगा. तरक्की के नाम पर हमने जल का दुरुपयोग किया. इसका परिणाम यह हुआ कि कुओं का जल स्तर गिर गया. पानी खत्म होते ही लोगों ने इन कुओं से दुरी बनाना शुरू कर दिया. इस तरह कुएं उपेक्षित होने लगे. कुछ लोगों ने इन बेकार कुओं को जिंदा करने की जगह उन्हें पाटकर उन पर कब्जा कर लिया.
भूगर्भ जलस्तर का हर साल नीचे जाना भविष्य के लिए खतरे के संकेत के रूप में माना जा रहा है. तरक्की के नाम पर जमकर किये गए जल दोहन के एवज में कुएं की उपेक्षा 60 के दशक के बाद होने लगी.
कुएँ जलापूर्ति के महत्त्वपूर्ण साधन रहे हैं. मत्स्य पुराण में भी कुआँ खोदे जाने का उल्लेख मिलता है. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चला है कि 3000 ई.पू. में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने ईंटों से कुओं का निर्माण किया था. मौर्यकाल में भी ऐसे कुओं का उल्लेख मिलता है. चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (300 ई.पू.) के दौरान कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रहट के जरिए कुओं से सिंचाई का विवरण प्राप्त होता है. 10 लाख से ज्यादा कुएं बुंदेलखंड में हुआ करते थे.
60 के दशक के बाद होने लगी कुएं की उपेक्षा
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा की गई पांचवीं छोटी सिंचाई जनगणना के अनुसार देश के 661 जिलों में गहरे कुंओं की संख्या 2.6 मिलियन है. रिपोर्ट के अनुसार, कुल गहरे कुएं, जो 12.68 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई करते हैं, मुख्यत: पंजाब, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में स्थित हैं.
मौजूदा प्राकृतिक जल स्त्रोत बदहाली का शिकार हो रहे हैं. इनमें से जोहड़ व कुएं तो समाप्त ही हो गए है. बदहाली का शिकार कुओं को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास तो बहुत बार किए गए लेकिन सही तरह से क्रियान्वयन नहीं होने के कारण उनके सकारात्मक परिणाम नहीं निकले. अगर कुओं को जिंदा करना है तो सबसे पहले हमें नदियों को जिंदा रखना होगा. अगर नदियों में पानी का स्तर बना रहे तो कुएं फिर से जिंदा हो जाएंगे.
पूर्व में पीने के लिए अलग और सिंचाई के अलग कुएं हुआ करते थे. जिनमें से पीने वाले करीब 96 प्रतिशत कुएं अब खत्म हो चुके हैं. लोगों ने अपने घरों में हैंडपंप लगवा लिए हैं. जो कुएं बचे हैं वे भी उपेक्षा के शिकार होते जा रहे हैं. उनमें से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं. या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या सूख गए हैं. लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है.
भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव
बढ़ते औद्योगिकीकरण तथा गाँवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन तथा फैलते शहरीकरण ने भी अन्य जलस्रोतों के साथ-साथ भूमिगत जलस्रोतों पर भी दबाव बढ़ाने का काम किया है. भूमिगत जल-स्तर के तेजी से गिरने के पीछे ये सभी कारक भी जिम्मेदार रहे हैं. बढ़ती आबादी के कारण जहाँ जल की आवश्यकता बढ़ी है वहीं प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है. कुल आकलनों के अनुसार वर्ष 2000 में जल की आवश्यकता 750 अरब घन मीटर (घन किलोमीटर) यानी 750 जीसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) थी. वर्ष 2025 तक जल की यह आवश्यकता 1050 जीसीएस तथा साल 2050 तक 1180 बीसीएम तक बढ़ जाएगी. स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में प्रति व्यक्ति जल की औसत उपलब्धता 5000 घन मीटर प्रति वर्ष थी. वर्ष 2000 में घटकर यह दो हजार घन मीटर प्रतिवर्ष रह गई. साल 2050 तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर प्रतिवर्ष से भी कम हो जाने की संभावना है.
बढ़ती आबादी के कारण पानी की आवश्यकता बढ़ी है. वहीं जबसे टयूबवेल का युग प्रारंभ हुआ तबसे लोगों ने जमकर भूमिगत जल का दोहन किया है. जितनी जरुरत थी उससे कहीं ज्यादा पानी निकाल लिया गया. प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है. इसी का परिणाम रहा कि कुएं खत्म हो गए. जो बचे हैं वे अंतिम सांस गिन रहे हैं. सरकार ने जो कुएं खुदवाए थे उन्हें समाज को दे दिया था लेकिन लोगों ने उन कुएं को पाटकर कब्जा कर लिया. जल के बिना जीवन नहीं है इसलिए लोगों को जल संरक्षण के महत्व को समझना होगा अभी और जागरूकता लाने की आवश्यकता है तभी साकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे.
चंद्र मोहन, कृषि जागरण
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