भारत में एक विमर्श व्यापक स्तर पर है कि कृषि को कैसे पुनर्जीवित किया जाए। आए दिन कर्ज में डूबे किसानों की मौत की खबरें भारतीय कृषि में काला अध्याय जोड़ रही हैं। वजह यह है कि कृषि घाटे का सौदा बन गया है। ऐसे में विश्व खाद्य भारत, 2017 में अनुबंध या संविदा कृषि को प्रोत्साहित करना कृषि के लिए संजीवनी साबित हो सकता है। आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि किसान की बदहाली की दो मुख्य वजह है। पहला, भारत में लगभग 80 फीसद किसान छोटे या सीमांत किसान हैं अर्थात उनके पास एक एकड़ से भी कम कृषि योग्य भूमि है। लिहाजा जोत का आकार छोटा होने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाता है,लेकिन उसका मूल्य कम ही मिल पाता है। और उन्हें घाटा सहना पड़ता है।
दूसरा कारण है कि भारतीय कृषि मानसून आधारित कृषि है जिससे पानी की कमी या ज्यादती की वजह से फसल पर बूरा प्रभाव पड़ता है। लेकिन, अनुबंध कृषि में इन दोनों ही समस्याओं का समाधान हो सकता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें किसानों और फर्मों के बीच एक प्रकार का अनुबंध होता है। इसमें कई छोटे-छोटे किसान मिल कर एक बड़े किसान के रूप में काम करते हैं। जाहिर है इसमें कई किसानों के खेत मिल जाने पर जोत का आकार बढ़ जाता है। फिर इन किसानों और निजी खरीददार कंपनियों के बीच उत्पादन की प्राप्ति, खरीद और विपणन की शर्तों को पहले से तय किया जाता है। लिहाजा संबंधित कंपनियाँ कृषकों को कृषि आगत, तकनीकी सलाह, परिवहन की सुविधा आदि उपलब्ध कराती हैं। इससे आधारभूत संरचना का विकास हो पाता है और किसान पूर्व निर्धारित गुणवत्ता वाले उत्पाद एक निश्चित समय अवधि में उत्पादित कर पाता है।
अगर इससे होने वाले फायदों की बात करें तो वे बहुतेरे हैं। पहला, सबसे बड़ा फायदा यह है कि चाहे कितना भी छोटा किसान हो, वह भूमिहीन नहीं हो पाएगा। अक्सर ही किसान फसल उत्पादन के बाद कर्ज के बोझ से दब जाता है और भूमि बेचकर भूमिहीन हो जाता है। लेकिन, इसमें कंपनियों के साथ निर्धारित समय के लिए अनुबंध होने के कारण ऐसा नहीं हो पाएगा। दूसरा, संविदा कृषि निजीकरण को बढ़ावा देगा और कृषि में व्यवसायिकता लाएगा। फलत: कृषि को अधिक प्रतिस्पर्धी बना देगा। सबसे अच्छी बात तो यह होगी कि यह प्रतिस्पर्धा छोटे पैमाने पर भी संभव हो सकेगा, जिसकी हमेशा कमी दिखाई पड़ती है। इससे निश्चित ही खेतीबाड़ी में सुधार देखने को मिल सकेगा। तीसरा, इससे कृषि क्षेत्र की बेरोजगारी से भी निजात मिल सकेगी।
दरअसल देश में परंपरागत कृषि प्रणाली होने से काम कुछ महीने ही रह पाता है। बाकी महीने कृषक बेरोजगार ही होते हैं। लेकिन, अनुबंध कृषि में वैज्ञानिक तरीके से कृषि होगी जिसमें किसानों को विभिन्न प्रकार के फसल को उगाने का मौक़ा मिल सकेगा। इससे उन्हें सालों भर काम मिलेगा और उनकी हालत में बेहतरी देखने को मिल सकेगा। चौथा, अनुबंध कृषि उत्पादन को बढ़ाने में भी सहायक होगा। संबंधित कंपनियाँ किसानों को नई तकनीकें मुहैया कराएंगी जिससे अच्छी बीज से लेकर सिंचाई की उत्तम व्यवस्था होगी। नतीजतन, बंजर खेत भी उपजाऊ बन सकेंगे। इसके अलावा कंपनियाँ खाद्यान्नों की स्टोरेज क्षमता को बढ़ाने के लिए भी खर्च कर सकेगी, जिससे अधिकतम उत्पाद को सुरक्षित किया जा सकेगा।
लेकिन, अनुबंध कृषि में किसानों के समक्ष कुछ चुनौतियां भी हैं। मसलन, समय पर भुगतान की समस्या, कंपनियों और किसानों के बीच उत्पन्न विवाद, किसानों का शोषण आदि समस्याएँ आ सकती है। इसके लिए एक आदर्श कानून की जरूरत है। सरकार को इसके लिए पहल करने की आवश्यकता है। अगर सरकार अनुबंध कृषि को बढ़ावा देने के बारे में सोच रही है तो यह किसान के लिए वरदान साबित हो सकता है।
देश में जो किसानी समस्या है उसे हल करने के लिए सरकार को कोई ठोस पहल करनी ही होगी। अन्यथा, कृषि का अस्तित्व खतरे में पड़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना को ही लें तो प्रतिदिन 2000 किसानों के खेती छोड़ने की बात सामने आ रही है। इतना ही नहीं, एक अध्ययन के अनुसार केवल दो फीसदी किसानों के बच्चे ही कृषि को अपना पेशा बनाना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो हमें कोई हैरानी भी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसके बहुतेरे कारण हैं। मसलन- कई राज्यों में किसानों के विरोध प्रदर्शन और मंदसौर (मध्यप्रदेश) की पुलिसिया कार्रवाई में कई किसानों की मौत के बाद भी किसानों की उपेक्षा अभी तक जारी है, एनसीआरबी द्वारा लगातार किसानों की आत्महत्या की रिपोर्टें भी सरकार को प्रभावित करने में नाकाम रही है।
ऐसे में सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं और अनुबंध कृषि एक विकल्प हो सकता है। लेकिन, सरकार इसका कितना फायदा उठा पाती है यह देखने वाली बात होगी। दरअसल सरकार की नीतियां ही दोषपूर्ण हैं। एक तरफ सरकार सरकारी कर्मचारियों को 108 प्रकार के भत्ते उपलब्ध कराती है और दूसरी ओर देश के अन्नदाताओं को केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसा लॉलीपाप थमा देती है। जबकि इसका फायदा सभी किसान उठा भी नहीं पाते। एक अध्ययन के अनुसार गेहूँ और चावल की पैदावार करने वाले 30 फीसदी किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उठा पाती है। इसका कारण है कि सरकार सभी किसानों के अनाज को नहीं खरीद पाती। लिहाजा 70 फीसदी किसानों को बाज़ारों में ही औने-पौने दामों में अपनी फसल को खपाना पड़ता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि किसानों को भी सरकारी कर्मचारियों की तरह भत्ते उपलब्ध क्यों नहीं करवाने चाहिए?
कम से कम बुनियादी जरूरतों वाले चार भत्ते तो होने ही चाहिए। मसलन- गृह भत्ता, चिकित्सीय भत्ता, शिक्षा भत्ता तथा यात्रा भत्ता। अगर किसानों को कर्ज के बोझ से बचाना है, तो उन्हें ये भत्ते उपलब्ध कराने ही होंगे। इसके अलावा कृषकों के लिए आय नीति का भी प्रावधान होना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य से समान रूप से सभी किसान फायदा उठा नहीं पाते। दरअसल इसके लिए हमारे नीति नियंताओं की लापरवाही जिम्मेदार है। वे देश की गंभीर समस्याओं के प्रति कभी चिंतित होते ही नहीं। वे कभी इस बात की समीक्षा करना जरूरी ही नहीं समझते कि उनकी योजनाओं का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। इसी प्रकार की गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण युवाओं में भी निराशा है। नतीजतन, वे किसानी को कभी भी अपना पेशा नहीं बनाना चाहते हैं। यही कारण है कि एक बड़ी आबादी गांवों से शहरों की ओर लगातार पलायन कर रही है।
अगर इस प्रक्रिया पर रोक नहीं लगी तो खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने की उपलब्धता पर हमारे इतराने का अवसर भी हम गंवा बैठेंगे और खाद्यान्न की कमी हमारी प्राथमिक समस्या बन जाएगी। दरअसल सरकारी अमला मूल समस्याओं को नजरअंदाज कर ऊपर-ऊपर दिखाऊ काम करने में मशगूल हैं। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, डीडी किसान चैनल, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना आदि के बावजूद किसान समुदाय लगातार घाटे में चल रहे हैं। सच तो यह है कि जब फसल चौपट होती है तो किसान मुसीबत में होते ही हैं, जब पैदावार अच्छी होती है तब भी वे कई दफा खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। सवाल है कि अगर किसानों को उनकी पैदावार का न्यायसंगत मूल्य नहीं मिलेगा, तो उनके नाम पर चलाए जाने वाले कार्यक्रमों की क्या सार्थकता है? बहरहाल, हमारे नीति नियंताओं को चाहिए कि वे किसानों के हक में ईमानदारी से कदम उठाए। साथ ही कृषि को व्यावहारिक बनाने के लिए अनुबंध कृषि को एक विकल्प के रूप में अपनाने पर जोर दे ताकि किसानों की सफलता की संभावना को अधिकतम किया जा सके।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में अध्येता हैं)
साभार - देश बंधू
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