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'भारत कृषि प्रधान देश है', यह एक ऐसा वाक्य है जिसे सुनकर हिंदुस्तान का हर शख्स बड़ा होता है. कितनी ही पीढ़ियां बदल गई लेकिन भारत के कृषि प्रधान होने में कोई बदलाव नहीं आया. देश की बड़ी आबादी खेती या उससे संबंधित कार्यों पर निर्भर है. सरकारी आंकड़ों से इतर बात करें तो आज भी देश की तकरीबन 80 फीसदी जनसंख्या, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से अपनी रोजी-रोटी चलाती है. देश की अर्थव्यवस्था में भी कृषि का बहुत बड़ा और अहम योगदान है. दुनिया के मुल्कों को किए जाने वाले देश के निर्यात में सबसे ज्यादा कृषि उत्पाद ही होते हैं. इसके बाबजूद भी किसानों की हालत बदतर क्यों हैं? यह सवाल उतना ही प्रासंगिक और जरुरी है जितना कि यह कहना कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. कृषि की प्रधानता होने की बाद भी किसान वर्ग देश का सबसे गरीब और लाचार वर्ग क्यों हैं? क्यों किसान, कर्ज के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाता है? सरकारें जब-तब कर्जमाफी की घोषणा कर देती हैं और कुछ समय बाद फिर से कर्ज माफी की मांगें जोर पकड़ने लगती हैं. इसका स्थायी समाधान करने पर जोर क्यों नहीं दिया जाता यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है और क्या कोई समाधान है जिससे किसानों की स्थिति भी बेहतर हो और सरकार को भी कर्जमाफी से बचने में मदद मिले.
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हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को काफी हद तक किसानों ने प्रभावित किया. इसका परिणाम यह हुआ कि सिर्फ एक राज्य को छोड़कर बाकी राज्य सरकारें धराशायी हो गईं और लोगों ने नयी सरकार चुनने को तवज्जो दी. पांच राज्यों में से मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी. इन तीनों ही राज्यों में बीजेपी को मुहं की खानी पड़ी. बीजेपी की इस हार के बाद देश में किसानों के संकट की चर्चा और कर्ज माफी की मांग जोर पकड़ रही है. केंद्र की मोदी सरकार पर 2019 आम चुनाव से पहले कर्ज माफ़ी के एलान करने का दबाव बढ़ रहा है. यह, कड़े आर्थिक अनुशासन की उसकी मूल प्रवृति के खिलाफ है.
सरकार ने पहले से ही देश के कुल वित्तीय घाटे के लक्ष्य को जीडीपी के 3.3% तक सीमित रखना तय किया है. हाल के कुछ सालों में कई राज सरकारों ने कर्ज माफी का एलान किया है. इस मुद्दे पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि केंद्र सरकार कर्ज माफी की किसी योजना में शामिल नहीं होगी इसलिए राज्यों को इसका सारा खर्च खुद उठाना होगा.
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मशहूर अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी बताते हैं कि वर्ष 2014 से अब तक सात राज्यों ने तकरीबन 1 लाख 82 हजार 802 करोड़ रूपये का कर्ज माफ किया है. इस कड़ी में कुछ और राज्य सरकारें भी कर्ज माफी का कदम उठा सकती हैं. इस तरह 2019 तक ऋण छूट, 4 लाख करोड़ के स्तर पर पहुँचने का अनुमान है.
कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में पंद्रह साल बाद सत्ता में वापसी की है. चुनाव पूर्व पार्टी ने राज्य में सरकार बनाते ही किसानों के कर्ज माफी का एलान किया था. साथ ही पड़ौसी राज्य मध्य प्रदेश में भी इसी तरह की घोषणा की गई थी. इन दोनों ही राज्यों में आबादी का एक बड़ा तबका खेती करता है.
बताते चलें कि साल 1990 में वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने देश में पहली बार कर्ज माफी लागू की थी. उस दौरान देश के सभी राज्यों के किसानों को कुल 10 हजार करोड़ रूपये की ऋण छूट दी गई थी. इसके बाद 2008-09 की अवधि में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 71 हजार करोड़ रूपये का बैंक लोन माफ किया था. इसके तहत देश के 4 करोड़ लघु और सीमान्त किसानों में रियायत दी गई थी. इसके परिणाम में यूपीए ने 2009 आम चुनाव में दमदार वापसी की थी.
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कृषि क्षेत्र का ऋण बढ़ता ही जा रहा है. ऐसे में कई विश्लेषकों का मानना है कि कृषि क्षेत्र की भयावह स्थिति से रणनीतिक रूप से निपटने की बजाय कर्ज माफी जैसे हथकंडों का सहारा लिया जा रहा है. रिजर्व बैंक ने भी इसके लिए सरकार चेताया है. उसका कहना है कि अगर माफी का कदम उठती है तो वित्तीय घाटे की स्थिति बेकाबू हो जाएगी और इससे जीडीपी में गिरावट हो सकती है. इसके अलावा अर्थशास्त्रियों का कहना है कर्जमाफी ग्रामीण आबादी को बेहद ही कम अवधि तक संकट से उबार सकता है लेकिन इससे हालात दुरुस्त नहीं हो सकते हैं. इसलिए सरकार को किसानों की आमदनी बढ़ाने पर जोर देना चाहिए. इसके लिए सरकार ऐसे विकल्पों की तलाश करे जो दीर्घावधि में किसानों की स्थिति को मजबूत कर सकें.
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) के ग्रुप चीफ अडवाइजर सौम्य कांति घोष ने कहा, 'किसान समुदाय को संकट से उबारन के लिए ठोस कदाम उठाने की जरूरत है. छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए आय बढ़ाने की योजना सार्थक कदम हो सकती है.' उन्होंने कहा, 'ऐसी योजना की लागत करीब-करीब 50 हजार करोड़ रुपये यानी जीडीपी का 0.3% तक आएगी.'
रोहिताश ट्रोट्स्की, कृषि जागरण
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