एक बार फिर सत्ता के गलियारों में किसानों की भलाई का जिक्र बड़े जोर-शोर से किया जा रहा है. जी हां केंद्र सरकार ने हाल ही में 13,966 करोड़ रुपये की सात योजनाओं का ऐलान किया, जिसका मकसद कथित तौर पर किसानों की आय बढ़ाना और उनके जीवन में सुधार लाना है. बजट घोषणाओं में डिजिटल कृषि मिशन से लेकर सतत बागवानी विकास तक की योजनाओं का भव्य उल्लेख है. लेकिन जब यह बजट असलियत की खुरदरी जमीन पर उतरता है, तो इन भारी-भरकम शब्दों के पीछे एक मासूम सा सवाल सिर उठाता है: क्या ये घोषणाएं सचमुच में किसानों के जीवन में कोई ठोस बदलाव ला सकेंगी, या ये मात्र चुनावी रणनीति के दांव-पेंच मात्र हैं?
जब हम इस बजट व योजनाओं का बारीकी से विश्लेषण करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इनमें उस दूरगामी, गेम-चेंजर रणनीति का पूर्णतः अभाव है, जो वास्तव में भारतीय कृषि को टिकाऊ और समृद्ध बना सके. योजनाएं और नीतियां महज आंकड़ों और व्याख्यानों, जुमलों, विज्ञापनों में ही सीमित रह जाती हैं, जबकि जमीनी हकीकत में किसानों की समस्याएं जस की तस मुंह बाए खड़ी हैं.
सरकारों के आठ दशकों के तमाम बड़े-बड़े वादों के बावजूद किसान अपनी खेती और खेतों को बचाने के लिए लगभग हारी हुई अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं. लगातार बढ़ती लागत, फसलों के उचित मूल्य का अभाव, और प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे किसानों को यह बजट कितनी राहत पहुंचा पाएगा, यह अभी भी एक बड़ा सवाल है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी द्वारा जुलाई में पेश किया गया बजट-24 किसानों की उम्मीदों पर खरा उतरने में पूरी तरह से विफल रहा है और कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की नीतियों पर गंभीर सवाल खड़े करता है.
बजट-2024 के लगभग 48-लाख करोड़ के सकल बजट में देश की 70% जनसंख्या की आजीविका से जुड़े तथा देश की शत प्रतिशत जनसंख्या की भोजन की थाली से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र कृषि तथा कृषि संबद्ध क्षेत्रों के लिए मात्र 1.52 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया. देश में कृषि क्षेत्र की विशाल जरूरतों के मुकाबले यह राशि ऊंट के मुंह में जीरा है. किसानों की दीर्घकालिक कृषि सुधारों की उम्मीदें एक बार फिर से अधूरी रह गई हैं.
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि और किसान पेंशन योजनाओं का सरकार दिन-रात ढोल पीट रही है जबकि इन योजनाओं का दायरा और राशि समय के साथ घटती जा रही है. निजी-बीमा कंपनियां कृषि-बीमा का मोटा प्रीमियम वसूल कर चांदी काट रही हैं. जबकि किसानों की बढ़ती हुई आत्महत्या की घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि कृषि क्षेत्र के लिए जरूरी कायाकल्प के प्रति सरकार बिल्कुल गंभीर नहीं है.
एक नजर इस हफ्ते सरकार द्वारा घोषित 13,966 करोड़ रु. की योजनाओं पर :-
डिजिटल कृषि मिशन: कागज पर क्रांति, धरातल पर दिखावा
डिजिटल कृषि मिशन का ऐलान सुनने में भले ही प्रौद्योगिकी के नये युग की दस्तक लगे, लेकिन यह दस्तक खेतों तक पहुंचने में नाकाम साबित हो सकती है. सरकार ने 2,817 करोड़ रुपये की राशि इस मिशन के लिए आवंटित की है, जिसका मकसद एआई, बिग डेटा और सेटेलाइट जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करके किसानों को सशक्त बनाना है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस तकनीक का लाभ असल में उन किसानों तक पहुंचेगा, जो अब भी सिंचाई के लिए बारिश का इंतजार करते हैं और जिनके पास न तो स्मार्टफोन है और न ही इंटरनेट की पर्याप्त सुविधा?
यह सच है कि कृषि में तकनीकी सुधार की आवश्यकता है, लेकिन इन सुधारों का जमीनी स्तर पर सही तरीके से लागू होना अनिवार्य है. डिजिटल एग्रीकल्चर की यह कल्पना तभी साकार हो सकती है, जब देश के हर कोने में इंटरनेट और डिजिटल साक्षरता का प्रसार हो. वरना यह योजना महज एक शहरी दिखावे से अधिक कुछ नहीं रह जाएगी, जिससे देश के करोड़ों किसानों की मुश्किलें कम होने की बजाय बढ़ेंगी.डाटा बेचने वाली तीन प्रमुख दूरसंचार कंपनियों ने गोलबंद होकर जिस तरह से हाल में ही अपनी सेवा-दरों में एकमुश्त 18 से 22% तक वृद्धि की है इससे स्पष्ट है कि इस 'डिजिटल-क्रांति' का असल फायदा किसको होने वाला है.
खाद्य और पोषण सुरक्षा: फिर से आंकड़ों की बाजीगरी या स्थाई समाधान की पहल?
3,979 करोड़ रुपये का आवंटन जलवायु-अनुकूल खेती और फसल विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए किया गया है, जिससे 2027 तक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. लेकिन क्या केवल धनराशि का आवंटन करना ही पर्याप्त है? यह योजना, जो अनुसंधान और शिक्षा को आधुनिक बनाने का दावा करती है, वास्तव में इस देश के किसानों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में कितनी सफल होगी? अनुसंधान और विकास तब तक निरर्थक हैं, जब तक कि उसका लाभ सीधा किसान को न मिले.
सतत पशुधन स्वास्थ्य और उत्पादन: मनमोहक शब्दों व जुमलों की आड़ में छिपती जिम्मेदारी
1,702 करोड़ रुपये का बजट पशुधन स्वास्थ्य और डेयरी उत्पादन के लिए आवंटित किया गया है. पशुधन और डेयरी उद्योग को बढ़ावा देना आवश्यक है, लेकिन इसमें भी वही समस्या है जो कृषि में है—जमीनी स्तर पर पहुंचने वाली योजनाओं की कमी. पशुधन का स्वास्थ्य, पशु चिकित्सा शिक्षा, डेयरी उत्पादन तकनीक, और पशु आनुवंशिक संसाधन प्रबंधन पर सरकार द्वारा ध्यान दिया जाना सराहनीय है, लेकिन इस दिशा में सरकार का प्रयास अभी अधूरा है. जब तक यह योजना पशुपालकों तक प्रभावी तरीके से नहीं पहुंचेगी, तब तक यह एक और खोखली घोषणा बनकर रह जाएगी.
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन: 'क्लाइमेट-चेंज' से निपटने हेतु जरूरी दूरगामी सोच व व्यवहारिक रणनीति का अभाव
1,115 करोड़ रुपये का बजट प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए आवंटित किया गया है, लेकिन इस बजट में एक बहुत बड़ी कमी है—जलवायु परिवर्तन के दूरगामी खतरों को नजरअंदाज करना. जलवायु परिवर्तन एक ऐसा वास्तविक संकट है, जो आने वाले समय में समूचे कृषि क्षेत्र के अस्तित्व को संकट में डाल सकता है. हीट वेव, अचानक अतिवृष्टि और मानसून के समय में परिवर्तन तथा अनिश्चितता जैसी चुनौतियों के सामने सरकार की यह योजना व तैयारी अपर्याप्त नजर आती है.
वास्तविकता यह है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें तुरंत और दूरगामी ठोस उपाय करने होंगे. केवल योजनाओं की घोषणा से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उन्हें सम्पूर्ण इमानदारी के साथ ठोस रूप से कार्यान्वित नहीं किया जाता. सरकार को संसाधनों का सही और समुचित इस्तेमाल करना होगा, ताकि देश के किसानों को जलवायु परिवर्तन के बढ़ते संकट का सामना करने में मदद मिल सके.
सतत बागवानी विकास: ना कोई रोडमैप ना कोई ठोस योजना?
बागवानी विकास के लिए 860 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. जो कि परंपरागत फसलों के साथ जड़, कंद, सब्जी, फूलों और औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने का दावा किया जा रहा है. लेकिन यह भी बाकी योजनाओं की तरह आधी-अधूरी है. यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि कोरोना काल के महा-पैकेज में औषधीय पौधों की खेती के लिए 4000 करोड़ रुपए की घोषणा की गई थी, उस योजना तथा उक्त राशि का क्या हुआ योजना के मुख्य भागीदार देश के औषधीय नों को ही पता नहीं.
सरकारें 'सतत' विकास की बस बातें करती हैं? यह तो समय ही बताएगा कि यह 'सतत बागवानी विकास योजना' किसानों की आय में किस तरह कितनी सतत बढ़ोतरी कर पाएगी, या फिर इस राशि को भी सत्ता के दलाल नेता ,व्यापारी, अधिकारी मिलकर जीम जाएंगे और यह भी सरकार की योजनाओं की सतत बढ़ रही नित नूतन योजनाओं अंतहीन सूची में शामिल होकर रह जाएगी ?
कृषि विज्ञान केंद्रो (KVKs) को 1,202 करोड़ रुपये :- निश्चित रूप से कृषि विज्ञान केंद्रो को मजबूत बनाना एक जरूरी कदम है. किंतु कृषि विज्ञान केंद्रो के वर्तमान स्वरूप तथा हवाई कार्य-योजनाओं के कारण अधिकांश केवीके अनुत्पादक इकाई तथा सफेद हाथी बनकर रह गए हैं. सरकारी योजनाओं के भोंपू मात्र बनने से काम नहीं बनन वाला, कृषि नवाचारों को बढ़ावा देना तथा योजनाओं में किसानों की सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित करना भी जरूरी है.
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एमएसपी गारंटी कानून: महंगा पड़ेगा समय की मांग को अनसुनी करना?
किसानों से 2022 तक उनकी आमदनी दुगनी करने का वादा किया गया था किंतु उनके उत्पादों का वाजिब मूल्य न मिलने के कारण तथा लगातार बढ़ते कृषि घाटे ने किसानों की स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया है. गेहूं, धान, दलहन, तिलहन, और कपास जैसे प्रमुख फसलों पर किसानों को उचित मूल्य न मिलने के कारण वे अपने उत्पादन में लागत भी नहीं निकाल पा रहे हैं. ऐसे में किसानों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर गारंटी कानून लाए जाने की मांग लगातार जोर पकड़ रही है.
'एमएसपी गारंटी कानून' के बिना किसानों की आय में वृद्धि व स्थिरता लाना मुश्किल है. यह कानून किसानों को उनके उत्पादन के लिए एक न्यूनतम मूल्य की सुरक्षा देगा, जिससे वे बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होंगे. किसानों की इस मांग को सरकार द्वारा तुरंत प्राथमिकता दी जानी चाहिए, ताकि उन्हें उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके और वे घाटे से बच सकें. बिना एमएसपी गारंटी के किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार की कोई भी योजना अधूरी मानी जाएगी.
प्राकृतिक खेती: घटता बजट, खोखले दावे
सरकार द्वारा एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने का दावा किया गया है, लेकिन इस कार्य के लिए बजट में मात्र 365 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो पिछले साल के मुकाबले 94 करोड़ रुपये कम है. पिछले साल इस मद में 459 करोड़ रुपये का प्रावधान था. यह कटौती सरकार की प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के दावे पर सवाल खड़े करती है. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले साल इस मद में 459 करोड़ में से केवल 100 करोड़ रुपये ही खर्च किए गए थे. यह दर्शाता है कि सरकार की घोषणाएं और वास्तविकता के बीच कितनी बड़ी खाई है.
अंतत: किसानों की समस्याएं जस की तस
कृषि और सहयोगी क्षेत्रों के लिए बजट 2024-25 में भी कोई बड़े बदलाव या घोषणाएं नहीं की गई. कुल मिलाकर सरकार की प्राथमिकताओं में कृषि को पहले स्थान पर रखना और इसे देश के विकास का इंजन कहना एक दिखावा है, महज एक जुमला है. वास्तविकता यह है कि किसानों को बड़े कृषि सुधारों और दीर्घकालिक ठोस योजनाओं की, तथा कृषि क्षेत्र की अधोसंरचना के विकास हेतु भारी पूंजी निवेश की आवश्यकता है. देश की 70% आबादी कृषि और कृषि संबंधी उद्योगों से जुड़ी है, लेकिन बजट का केवल 3 से 4% ही कृषि के लिए आवंटित किया जाता है. इस बार के बजट में भी यही परंपरा कायम रही है. सरकार ने किसानों के लिए सकारात्मक दीर्घकालिक पहल करने का एक और मौका गंवा दिया है, जिससे किसानों में निराशा नाराजगी और कड़वाहट बढ़ती जा रही है. यह किसी भी सरकार अथवा देश के लिए एक शुभ लक्षण तो कतई नहीं है.
डॉ राजाराम त्रिपाठी
राष्ट्रीय संयोजक
अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)
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