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गावों में खेले जाते थे कभी ये खेल, आज हैं बस यादों में...

बदलती हुई जीवनशैली का प्रभाव गांवों पर भी पड़ा है. अब पहले की तरह न खेल रह गए हैं और न खेलने वाले बच्चे. स्कूल और ट्यूशन के बाद न तो वक्त बचता है और न शरीर में इतनी ऊर्जा कि बच्चे खेल-कूद कर सकें. रही-सही कसर मोबाइल और कंप्यूटर ने पूरी कर दी है. नि:संदेह आधुनिकतावाद की परछाई बच्चों के शारीरिक विकास पर भी पड़ी है. यही कारण है कि आज कम उम्र में ही बच्चे बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. समय के साथ गांव के खेल बस यादों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. आने वाली पीढ़ी इससे बिलकुल अनजान है. चलिए आपको आपके बचपन में लेकर चलते हैं और कुछ खेलों की याद दिलाते हैं, जिन्हें खेलकर आपका बचपन गुजरा है.

सिप्पू कुमार
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बदलती हुई जीवनशैली का प्रभाव गांवों पर भी पड़ा है. अब पहले की तरह न खेल रह गए हैं और न खेलने वाले बच्चे. स्कूल और ट्यूशन के बाद न तो वक्त बचता है और न शरीर में इतनी ऊर्जा कि बच्चे खेल-कूद कर सकें. रही-सही कसर मोबाइल और कंप्यूटर ने पूरी कर दी है. नि:संदेह आधुनिकतावाद की परछाई बच्चों के शारीरिक विकास पर भी पड़ी है. यही कारण है कि आज कम उम्र में ही बच्चे बीमारियों के शिकार हो रहे हैं.

समय के साथ गांव के खेल बस यादों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. आने वाली पीढ़ी इससे बिलकुल अनजान है. चलिए आपको आपके बचपन में लेकर चलते हैं और कुछ खेलों की याद दिलाते हैं, जिन्हें खेलकर आपका बचपन गुजरा है.

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सतोलिया (गिट्टी फोड़)
इस खेल को पत्थरों के सहारे खेला जाता है. सात चपटे पत्थरों को एक के ऊपर एक जमाया जाता है. बच्चे आपस में दो टीमों में बंट जाते हैं. एक का काम इसे गिराने का होता है, जबकि दूसरी टीम इसे जमाने का काम करती है. दूसरी टीम से पत्थरों को बचाते हुए उन्हें जमाने के बाद सतोलिया बोलना पड़ता है. सतोलिया शब्द विजय की घोषणा है. इसलिए गिराने वाली टीम को विपक्षी खिलाड़ी को गेंद मारकर बाहर करना होता है. उस समय की मजेदार बात यह थी कि कई बच्चे इस खेल को खेल लेते थे.

लंगड़ी टांग
गांव की लड़कियों के लिए इस खेल का महत्व सबसे अधिक होता था. इस खेल में खड़िया या फिर ईंट के टुकड़े से कई खाने बनाकर दो लड़कियां एक चपटे पत्थर के टुकड़े से खेल सकती थीं. पत्थर को एक टांग पर खड़े रहकर बिना लाइन को छुए हुए सरकाना होता था. सबसे मुश्किल तो आखिर में आता था जब एक टांग पर खड़े रहकर पत्थर को एक हाथ से बिना लाइन को छुए उठाना पड़ता था. याद है न, इसकी गिट‍्टी बनाने में कितनी मेहनत लगती थी. वैसे इस खेल को गांव के लड़के भी खूब खेलते थे.

कंचा
कंचा खेलने के लिए तो बच्चे मार तक खाते थे. 90 के दशक का यह सबसे प्रसिद्ध खेल हुआ करता था. कंचा हालांकि आज भी देखने को कहीं-कहीं मिल जाता है, लेकिन इसे खेलने वाले बच्चे बहुत कम ही मिलते हैं.

आज के समय में जो पागलपन बच्चों में क्रिकेट को लेकर होता है कभी वो गिल्ली-डंडा को लेकर हुआ करता था. गांवों की गलियां इस खेल से गुलजार हुआ करती थीं. इस खेल को दो छड़ों से खेला जाता था. बड़ी छड़ को डंडे के रूप में उपयोग करते हुए छोटी छड़ को दूर तक उछालकर मारना होता था. गिल्ली के दोनों तरफ के छोरों को चाक़ू से नुकीला भी करना होता था.

English Summary: These games were once played in villages, today are just memories. Published on: 02 March 2020, 03:11 PM IST

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