इस आंकड़े पर गौर कीजिए। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक कृषि उत्पादन में 30 फीसदी से अधिक महिलाएं हैं और कृषि श्रम में उनकी हिस्सेदारी 42.7 फीसदी है। मत्स्य पालन में भी करीब 24 फीसदी महिलाएं लगी हुई हैं। देश के 29 में से 23 राज्यों में कृषि, वानिकी एवं मत्स्य पालन में महिलाओं की कुल हिस्सेदारी 50 फीसदी से भी अधिक है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में तो यह अनुपात 70 फीसदी से भी अधिक है। सामान्य तौर पर कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी मैदानी इलाकों की तुलना में पहाड़ी इलाकों में ज्यादा है।
जहां तक कृषि से संबंधित विविध गतिविधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी का सवाल है तो कपास एवं चाय की खेती में 47 फीसदी, सब्जी उत्पादन में 39 फीसदी, फसल उगाने के बाद कृषि उपज की सार-संभाल में 51 फीसदी और पशुपालन में यह 58 फीसदी है। महिलाएं फसलों के बीज तैयार करने से लेकर सिंचाई, उर्वरकों के छिड़काव, खरपतवार की सफाई और तैयार फसलों की कटाई जैसे सभी कृषि कार्य करती हैं। वे मवेशियों की देखभाल, चारे का इंतजाम करने, मधुमक्खी पालन, मशरूम की खेती और मुर्गीपालन जैसे तमाम काम भी करती हैं।
इसके बावजूद कृषि में लगी महिलाओं को कई मायनों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें पुरुष कामगारों की तुलना में कम मेहनताना दिया जाता है। एक पुरुष कृषि श्रमिक को मिलने वाले मेहनताने का केवल 60 फीसदी ही एक महिला कृषि श्रमिक को मिलता है। इसके अलावा उन्हें घरेलू संपत्ति में मालिकाना हक भी नहीं मिलता है। शायद ही किसी महिला के नाम पर कोई जमीन हो। फैसलों में भी उनकी भागीदारी बहुत कम होती है। वे आम तौर पर सहकारी समितियों की सदस्य नहीं होती हैं। सस्ते कर्ज और कृषि-संबंधित अन्य सुविधाओं तक भी उनकी पहुंच न के बराबर होती है। इसकी वजह यह है कि इन मसलों का खेत के स्वामित्व से सीधा संबंध है। इससे भी बुरा यह है कि इन महिलाओं को अपने घरों में भी बुरे बरताव का शिकार होना पड़ता है। हालांकि जिन महिलाओं के पास जमीन या दूसरी संपत्ति है उनके साथ ऐसा दुव्र्यवहार बहुत कम होता है। एक अध्ययन से पता चला है कि संपत्ति का स्वामित्व नहीं रखने वाली 84 फीसदी महिलाओं को मानसिक प्रताडऩा का शिकार होना पड़ता है जबकि 49 फीसदी महिलाएं तो शारीरिक हिंसा की भी चपेट में आती हैं।
कृषि कार्यों में लैंगिक असमानता का स्तर अलग-अलग राज्यों में अलग है। पर्वतीय इलाकों में तो यह काफी कम है क्योंकि वहां पर कृषि से संबंधित अधिकांश काम महिलाएं ही करती हैं। भुवनेश्वर स्थित केंद्रीय कृषि महिला संस्थान (सीआईडब्ल्यूए) की तरफ से तैयार लिंग-कार्य भागीदारी असमानता सूचकांक से यह नतीजा निकला है। नगालैंड, मणिपुर और हिमाचल प्रदेश के लिए सूचकांक मूल्य 0.15 से भी कम है जिसका मतलब है कि इन राज्यों में कार्यस्थल पर लिंग के आधार पर भेदभाव न के बराबर होता है। दूसरी तरफ पंजाब, हरियाणा, केरल, उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में लैंगिक असमानता का सूचकांक 0.34 से लेकर 0.59 तक है।
सीआईडब्ल्यूए ने कृषि कार्य में लगी महिलाओं को लैंगिक रूप से अनुकूल तकनीकों, सांख्यिकी, प्रकाशनों और सरकारी योजनाओं के बारे में सारी जानकारी एक जगह पर मुहैया कराने के लिए जनरल नॉलेज सिस्टम पोर्टल भी शुरू किया है। पूरी तरह विकसित हो जाने के बाद यह वेबसाइट खेती में लगी महिलाओं के बारे में जानकारी जुटाने का एकमुश्त जरिया बन जाएगी। इस वेबसाइट के देश भर में चल रहे 680 कृषि विज्ञान केंद्रों के लिए भी उपयोगी साबित होने की संभावना है। इन केंद्रों में महिलाओं को विभिन्न तरह से प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें।
वर्ष 2016-17 में इन केंद्रों के जरिये ऐसी 21 तकनीकों को बढ़ावा देने की कोशिश की गई जो शारीरिक श्रम को कम करने, पौष्टिकता ïएवं पारिवारिक स्वास्थ्य को सुधारने, कृषि उपज के भंडारण, मूल्यवद्र्धन एवं प्रसंस्करण और ऊर्जा संरक्षण में मददगार हो। इस कार्यक्रम के तहत मशरूम की खेती, कंपोस्ट खाद बनाने और पौष्टिक उत्पादों से भरपूर बागीचा तैयार करने का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके अलावा करीब 2.56 लाख महिलाओं को खेती से संबंधित बुनियादी कार्यों में प्रशिक्षित किया गया। उन्हें बताया गया कि एकीकृत खेती, फसल बीजों का प्रबंधन, सब्जियों की सुरक्षित पैदावार और तैयार उपज की बेहतर देखभाल कैसे की जानी चाहिए। इसके अलावा इन केंद्रों में महिलाओं को ग्रामीण हस्तशिल्प और सिलाई-कढ़ाई के गुर भी सिखाए गए। इन सभी कोशिशों का मकसद यह है कि ग्रामीण इलाकों की इन महिलाओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्थिक सशक्तीकरण किया जा सके।
संयोग से कृषि मंत्रालय भी लैंगिक रूप से संवेदनशील हो रहा है और कृषि कार्य में संलग्न महिलाओं की बेहतरी के लिए कई सकारात्मक कदम उठा रहा है। मंत्रालय ने अब पट्टïे पर दी जाने वाली जमीन एवं खेतों के रिकॉर्ड में पति के साथ पत्नी का नाम भी दर्ज करना शुरू कर दिया है। अब महिलाएं के नाम पर भी किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जा रहे हैं जिससे वे बैंकों से सस्ता कर्ज ले सकती हैं। महिलाओं को लघु बचत योजनाओं का लाभ उठाने के लिए स्वयं-सहायता समूह बनाने के लिए भी प्रेरित किया जा रहा है। सबसे अहम बात यह है कि कृषि मंत्रालय की तरफ से संचालित विभिन्न योजनाओं के फंड का 30 फीसदी महिलाओं के लिए अलग रखा जा रहा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक छोटी सी शुरुआत है। कृषि कार्यों में लगी महिलाओं को लैंगिक समानता देने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इसके लिए हमें महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण पर खास जोर देना होगा।
साभार : बिजनेस स्टैडर्ड
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