कच्चा रेशम को बनाने के लिए रेशम के कीटों का पालन सेरीक्लचर या रेशम कीट पालन कहलाता है. यह कृषि पर आधारित कुटीर उद्योग है. हजारों वर्षों से यह भारतीय परंपरा का हिस्सा बना हुआ है. अगर देश की बात करें तो हम चीन के बाद इसके उत्पादन में दूसरे नंबर पर आता है. रेशम पालन के उत्पादन से रोजगार के सृजन होने की काफी अपार संभावनाएं भी है. मूंगा रेशम पालन के उत्पादन में भारत का एकाधिकार प्राप्त है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में मौसम की मार इस उद्योग पर पड़ती दिखाई दे रही है. दरअसल उचित तापमान के ठीक से नहीं मिल पाने के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में रेशम के कीट बिल्कुल भी नहीं बच पा रहे है, इसका सीधा असर रेशम पालन पर पड़ता दिखाई दे रहा है इसीलिए रेशम उत्पादन कर रहे आज सभी उद्यमी पेरशान है.
पर्वतीय क्षेत्रों में शुरू हुई मुहिम
दो दशक पूर्व पर्वतीय जिलों में रेशम उत्पादन की मुहिम शुरू हुई थी, मंशा थी कि ग्रमीणों को रेशम कीट उपलब्ध करवाकर उनको इस तरह की मुहिम से जोड़ने का काम किया जाएगा. इस तरह से जो भी रेशम का उत्पादन होगा उसे सरकार खुद खरीदेगी. इसके लिए पूरे जिलें में 35 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 6 फार्म को स्थापित किय जाने लगा है. कुल 500 से ज्याद ग्रमीण इस तरह की मुहिम से जुड़े हुए है. लेकिन बाद में यह मुहिम धीरे-धीरे ठंडी पड़ने लगी है. ग्रमीणऩों ने इसके उत्पादन हेतु रेशम कार्य में कड़ी मेहनत की, पसीना बहाया लेकिन पड़ताल के बाद तापमान में अनियमिता के चलते इस तरह की समस्या आई है और रेशम उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है. रेशम के उत्पादन के लिए 25 से 28 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. इससे कम तापमान में रेशम का कीट पूरी तरह से समाप्त हो जाता है. पिछले कुछ दिनं में रेश म पालन कम हो गया है जिससे उत्पादन प्रभावित हो रहा है.
कोलकाता और मैसूर
रेशम का सबसे बड़ा बाजार कोलकाता और मैसूर में स्थित है. यहां पर रहने वाले व्यापारी पहले माल खरीदने के लिए उतराखंड आते थेय़ पर्वतीय क्षेत्र का रेशम गरु ड़ में एकत्र किया जाता है. सरकार रेशम उत्पादकों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित करती है. उत्तराखंड देश का अकेला ऐसा राज्य है, जहां रेशम उत्पादन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है. केवल मौसम ही नहीं बल्कि विभागीय कमी के चलते भी रेशम कार्य़ का उत्पादन काफी ज्यादा प्रभावित हो जाता है.
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