स्वतंत्रता के बाद से ही देश का विकास जिन रास्तों पर चल पड़ा है. वह असल में, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध शोषण के रास्ते थे. हमने कुदरत से इतना खिलवाड़ किया है कि पर्यावरण संबंधी तमाम समस्याओं विकराल रुप में दिखाई देती है. जैसे कि ग्रीन हाउस गैसों का भारी जमाव, ओजोन का घटाव, चढ़ता पारा और बुनियादी प्राकृतिक संसाधनों का प्रदूषण. किसी ने नहीं सोचा कि यह समस्याएं इतनी जल्दी मुंह बाए खड़ी होगी. आज तो मानो हमारे कृषि व्यवस्था का आधार ही खिसकने लगा है बदलती जलवायु, ढहते भू संसाधन और तबाह होते प्राकृतिक संसाधन इन्हीं सब पर तो हमारे कृषि टिकी रही है.
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विश्व आर्थिक क्रांति के दौर से गुजर रहा
यह वसुंधरा और इसका वातावरण मानव को धारण करने की सामर्थ्य रखता था, हमने उससे अधिक खींच लिया है. तेजी से सिकुड़ती जा रही प्राकृतिक पूंजी में अब जोड़ना शुरु नहीं किया तो शायद फिर बहुत देर हो जाएगी. पर्यावरण संकट की जड़ें बड़ी गहरी है. इसे जड़ से उखाड़े बिना भविष्य के आर्थिक और सामाजिक संकट को नहीं टाला जा सकता. इस धरती के जैव-भौतिक संसाधनों के सिर पर जो खतरा मंडरा रहा है. यह आम इंसानों की ही करतूत है. इसमें कोई संदेह नहीं है. संसाधनों के विनाश को हमने जिस सीमा तक बढ़ाया है, वह निश्चय ही चरम के निकट पहुंच गई है. कुछ क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन निश्चय ही युगतकारी हो चुके हैं. इसी के फल स्वरुप आज विश्व आर्थिक क्रांति के दौर से गुजर रहा है.
जनसंख्या बढ़ने के साथ बढ़ती खपत
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ) की रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की कुल जनसंख्या करीब 9.1 अरब के आंकड़े तक पहुंच सकती है. अभी विश्व की कुल जनसंख्या करीब सात अरब है. जनसंख्या बढ़ाने के साथ ही खाद्य पदार्थों की मांग करीब दुगनी हो जाएगी. खासकर विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से खपत भी बढ़ाने की उम्मीद है. इनमें चीन और भारत मुख्य रूप से शामिल है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक जलवायु परिवर्तन, कृषि योग्य भूमि में कमी, जल संकट आदि के चलते 2050 तक करीब 35 फ़ीसदी खाद्यान्न का उत्पादन कम होने की आशंका है. एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ कृषि योग्य भूमि का रकबा भी घट रहा है. उद्योगों के विकास और आवासीय परियोजनाओं के लिए खेती की जमीन के उपयोग के चलते पिछले दो दशक में कृषि योग्य भूमि करीब दो फ़ीसदी तक घट गई है.
कम रकबे में अधिक उत्पादन की रणनीति
प्रावधानों के जरिए कम रकबे में अधिक उत्पादन की रणनीति अपनाई जाए. बढ़ती हुई आबादी के बावजूद भारत अपनी आत्मनिर्भरता बनाए रखें और निर्यात आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता रहे. इसके लिए अगले कुछ दशकों तक खाद्यान्न दूध, मांस, मछली, अंडे, फल, सब्जी, चारा, रेशा और ईंधन के उत्पादन में लगातार वृद्धि करनी होगी. फिलहाल हमारे खाद्य उत्पादन के एक हिस्सा भूमि और जल के गैर टिकाऊ प्रयोग का प्रतिफल है और अगर इसे सुधारा नहीं गया तो एक वक्त आएगा, जब खाद्य उत्पादन बढ़ने की बजाय घटने लगेगी. टिकाऊ संसाधन प्रबंध कठिन नहीं है, बशर्ते कि हम भावी अनुसंधान नीतियों में मिट्टी और पानी की बर्बादी को घटाने, क्षेत्रीय उत्पादकता में असंतुलन दूर करने और पर्यावरण संकट जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दें. रबीन्द्रनाथ चौबे ब्यूरो चीफ कृषि जागरण बलिया उत्तरप्रदेश
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