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बचपन से एक कहानी सुनते आये हैं की एक राज्ये में बहुत चूहे थे. राजा ने घोषणा की कोई इन चूहों को पकड़ कर ले जाये तो उचित इनाम दिया जायेगा. एक बंसरी बजने वाले ने कहा की वह बांसुरी की धुन बजा कर आप को चूहों से छुटकारा दिला सकता है. उसने उनके राज्य में आ कर ऐसी धुन बजे जिस से सभी चूहे उस बांसुरी बजने वाले जादूगर के पीछे पीछे चलने लगे. उस बांसुरी बजाने वाले जादूगर युवक ने नदी के पास जा कर उन सब चूहों को नदी में बहा दिया. इस तरह से उस राज्य की चूहों की समस्या से छुटकारा पाया जा सका.
चूहों की समस्या केवल हमारे भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी है.
यदि अमेरिका देश की नवाचार किताबों को देखें तो पता चलता है की चूहों यानि की माउस ट्रैप पर कई इन्वेंशन दिए गए हैं.
भारत में चूहों की वजह से प्लेग की बीमारी भी फैली और उसकी वजह से बहुत जान का नुक्सान भी हुआ. चूहा पकड़ने के लिए तरह तरह की चूहेदानी व चिपकने वाली प्लेट भी बनाई गयी हैं.
चूहे किसानो के लिए भी सरदर्द बन चुके हैं. कई बार तो चूहों से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. चलिए चूहों को पकड़ने के लिए कहाँ और कैसे और कौन इसे पकड़ सकता है और किस तरह से, इसकी जानकारी यहाँ दी जा रही है.
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चूहा पकड़ना एक कला है, और इसे कला का रूप दिया है तमिलनाडु में रहने वाली आदिवासी जनजातियों इरुला और कोरावा ने। चेन्नै का सबसे व्यस्त और भीड़भाड़ वाला इलाका है पैरीज। रात में इसकी खाली गलियों में कोरावा लोग गश्त लगाते दिखाई देते हैं और उन्हें घेरे रहते हैं कुत्तों के झुंड, उन्हें शक की नजर से देखते हुए, उन पर गुर्राते हुए। जैसे ही कोई चूहा कहीं से झांकता नजर आता, तड़ाक! .. गुलेल से तीर की तरह निकला पत्थर उसके सिर पर लगता और चूहा जमीन पर गिरकर अपनी अंतिम सांसे गिनने लगता। गुलेल कोरावा लोगों का सीधा-सादा लेकिन घातक हथियार है। चूहों से परेशान व्यापारी इनसे छुटकारे का जिम्मा कोरावा लोगों को दे देते हैं। अगली सुबह, इन शिकारियों को प्रति चूहे के हिसाब से पैस मिलता है।
इरूला लोगों का तरीका थोड़ा अलग और भागदौड़ वाला है। वे धान के खेतों से चूहे पकड़ते हैं। उन्हें धान के खेत में जैसे ही कोई चूहे का बिल दिखाई देता है, वे एक छोड़कर उसके सभी रास्ते बंद कर देते हैं। उसके बाद ये शिकारी मिट्टी का मटका लेते हैं जिसकी तली में एक रुपए के सिक्के जितना छेद होता है। इस मटके में हरी पत्तियां भरकर उनमें आग लगा दी जाती है। इसके बाद घड़े का मुंह चूहे के बिल पर रखकर उसमें धुआं फूंका जाता है। जब बिल के हर हिस्से में धुआं भर जाता है तो इरूला बिल को खोदते हैं। उन्हें उसमें फंसे ढेरों बेहोश और मरे हुए चूहे मिलते हैं। अगर किस्मत अच्छी हुई तो इन बिलों में उन्हें धान के ढेर भी हाथ लग जाते हैं। शाम के समय इरूला लोग किसी परती पड़े खेत में कंटीली टहनियों में आग लगा कर इन चूहों को भून लेते हैं। भुने चूहों को साफ करने के बाद सभी बड़े चाव से उन्हें खाते हैं। आपमें बहुत से लोगों को घिन लग रही होगी लेकिन ये चूहे साफ-सुथरे होते हैं। खेतों में मिलने वाले अनाज पर पले मोटे ताजे चूहे शहरों और घरों में पाए जाने वाले चूहों से ज्यादा स्वस्थ होते हैं। इरूला जनजाति शहरों और घरों में रहने वाले चूहों को हाथ तक नहीं लगाते। उन्हें तो ये मारकर फेंक देते हैं।
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चूहे पकड़ने का काम करने वाली कंपनियां जहरीला चारा रखकर चूहों को मारती हैं। इसके बाद मरने वाले चूहों का महज अंदाजा ही लगाया जाता है क्योंकि वे तो जहर खाकर अपने बिलों में मर जाते हैं। कितने चूहे बिना जहर खाए बचकर भाग गए इसका कोई अंदाजा नहीं होता। यह तरीका इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि इससे वे तमाम निर्दोष स्तनपायी और रेंगने वाले जीव मारे जाते हैं जिन्होंने या तो चूहों के लिए रखा जहरीला चारा खा लिया होता है या जो जहर खाकर मरे चूहों को खा लेते हैं। जहर लगा कर रखे गए चारे की तुलना में इरूला लोगों का तरीका 15 गुना ज्यादा किफायती साबित होता है। एक उच्च अधिकारी से मिलकर आग्रह किया कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत चूहा पकड़ने को रोजगार के रूप में दर्ज कर लिया जाए। सरकार गरीब आदिवासियों को रोजीरोटी कमाने के लिए चूहे पकड़ने पर मजबूर करे तो सुनकर कैसा लगेगा। और इस तरह इरूला लोगों के इस हुनर का इस्तेमाल नहीं हो पाया।
चंद्र मोहन
कृषि जागरण
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