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सूखा प्रभावित क्षेत्रों में रोशाघास से हरियाली

भारत वर्ष के सगंध तेल के उत्पादन उद्योग में रोशाघास तेल का एक महत्वपूर्ण स्थान है। रोशाघास पौधे को इससे प्राप्त तेल की आर्थिक उत्पादन के लिए उगाया जाता है। पारम्परिक फसलों की तुलना में रोशाघास की खेती आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी है क्योकि इसकी खेती में लागत कम और शुद्ध लाभ अधिक प्राप्त होता है।

भारत वर्ष के सगंध तेल के उत्पादन उद्योग में रोशाघास तेल का एक महत्वपूर्ण स्थान है। रोशाघास पौधे को इससे प्राप्त तेल की आर्थिक उत्पादन के लिए उगाया जाता है। पारम्परिक फसलों की तुलना में रोशाघास की खेती आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी है क्योकि इसकी खेती में लागत कम और शुद्ध लाभ अधिक प्राप्त होता है। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में उगाए जा सकने वाले इस पौधे के लिए ज्यादा पानी एवं खाद की आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार भारत के शुष्क क्षेत्रों वाले भागों में रोशाघास की खेती करके पर्याप्त लाभ कमाया जा सकता है।

रोशाघास या पामारोजा एक बहुवर्षीय सुगंधित घास है, जिसका वानस्पतिक नाम सिम्बोपोगान मार्टिनाई प्रजाति मोतियाहै। जो पोएसी कुल के अन्तर्गत आता है। रोशाघास एक सुगन्धित पौधा है जो एक बार लगा देने के उपरान्त 3 से 6 वर्ष तक उपज देता है। रोशाघास4 वर्ष तक अधिक उपज देता है, इसके पश्चात तेल का उत्पादन काम होने लगता है। इसका पौधा 10 डिग्री से 45 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सहन करने की क्षमता रखता है। रोशाघास सूखा सहिष्णु में 150-200 सेमीव तक लंबा होता है तथा सूखा की निश्चित अवधि का सामना और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में एक वर्षा आधारित फसल के रूप में इसकी खेती की जा सकती है। रोशाघास तेल के मुख्य सक्रिय घटक जिरेनियाल एवं जिरेनाइल एसीटेट है। रोशाघास की उत्तर प्रदेश, जोधपुर, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात और मध्य प्रदेश में विशेष रूप से व्यवसायिक खेती की जाती है।

उपयोग : रोशाघास का तेल बड़े पैमाने पर इत्र, सौंदर्य प्रसाधन, और स्वादिष्ट बनाने का मसाला में प्रयोग किया जाता है। एंटीसेप्टिक, मच्छर से बचाने वाली क्रीम और दर्द तेल के गुणों से राहत में यह बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दवा में यह लूम्बेगो, सख्त जोड़ और त्वचा रोगों के लिए एक उपाय के रूप में प्रयोग किया जाता है।

जलवायु एवं मृदा : पौधे की बढ़वार के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु आदर्श होती है। लेकिन तेल की मात्रा एवं गुणवत्ता गर्म एवं शुष्क जलवायु में अच्छी मिलती है। उचित जल निकास वाली मृदायें जिसका पीएच मान 7.5-9तक हो मिट्टी पर अच्छी पैदावार की जा सकती है।

खेत की तैयारी : रोशा घासकी खेती के लिए भूमि की कोई विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं पड़ती है किन्तु रोपण से पहले खेत को भली भांति तैयार करना अतिआवश्यक है। इसके लिए खेत की मिट्टी को भुरभुरी बनाने हेतु हल से कम से कम दो बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए तथा खेत को सभी प्रकार की खूंटी एवं घास की जड़ों से रहित कर देना चाहिए। आखिरी जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद 10 -15 टन/है.की दर से भलीभांति खेत में मिला देना चाहिए।

प्रवर्धन एवं पौध रोपणरूरोशा घास बीज के माध्यम से प्रचारित किया जा सकता है। बीज को रेत के साथ मिला कर 15-20 सेंमीव की दूरी पर नर्सरी की जाती है तथा नर्सरी को लगातार पानी छिड़काव के द्वारा नम रखा जाता हैद्य बीज द्वारा, रोपण विधि से एक हैक्टेयर के लिए 2.5 किलो बीज की आवश्यकता होता है, नर्सरी का सर्वोत्तम समय अप्रैल-मई होता है। पौध 4 सप्ताह के बाद रोपाई के लिए तैयार हो जातीहैं।

रोपण दूरी एवं रोपण समयरू सामान्य दशाओं में 60ग60 सेंमीवकीदुरीपरलगतेहै।असिंचितअवस्थामें 30ग30 सेंमी. की दुरी पर लगते है। रोशाघास की रोपाई मानसून के आगमन (जून से अंत अगस्त) तक कर देनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक : रोशाघास में 100:50:50 किलोग्राम नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की अवश्यकता प्रति हे./वर्ष पड़ती हैं। लगभग 40 किग्रा./हे. नाइट्रोजन की मात्रा प्रत्येक फसल काटने के बाद तीन भाग में देना चाहिए। जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हे. डालने पर उपज में वृद्धि होती है।

उन्नत किस्मे : सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय तथा सुगंधित पौधा संस्थान (सी मैप), लखनऊ एवं संबंधित अनुसंधान केंद्र रोशाघास की खेती करने के लिए किसानों की मदद करता है और उन्हें बीज भी उपलब्ध कराता है। रोशा घास की कुछ उन्नतशील किस्मों को सीएसआईआर-सीमैप द्वारा विकसित किया गया है, जिनमे मुख्य प्रजातियाँ पीआरसी-1, तृष्णा, तृप्ता, वैष्णवी और हर्ष है।

सिंचाई प्रबन्ध : सिंचाई की आवश्यकता मौसमपर निर्भर करती है।पहली सिचाई रोपण के तुरंत बाद करनी चाहिए। वर्षा ऋतू में सिचाई की आवश्यकता नहीं होती है।गर्मी के मौसम में 3-4 सिचाई तथा शरद ऋतू में दो सिचाईपर्याप्तरहती है हालांकि, कटाई से पहले, सिंचाई बंद कर देना चाहिए। प्रत्येक कटाई के बाद सिचाई अवश्य करनी चाहिए

खरपतवार नियन्त्रण : प्रारंभिक अवस्था के समय खरपतवार नियंत्रण की जरुरत पड़ती है, जो कि अच्छी फसल पाने के लिए आवश्यक है। पहले वर्ष 3-4 निराई, और बाद के वर्षों में दो निराई की आवश्यकता पड़ती है। मल्च का उपयोग करने से यह न केवल मिट्टी में नमी बनाए रखता है, बल्कि यह खरपतवार की वृद्धि को भी रोकता है।

फसल पर लगने वाले हानिकारक कीट और बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण : रोशाघास के पौधो पर कोई विशेष कीट एवं बीमारी का प्रकोप नहीं होता है। कभी-कभी एफिड, थ्रिप्स, व्हाइट ग्रब का प्रकोप हो जाता है, जिसकी रोकथाम के लिए रोगर (0.1:) या मोनोक्रोटोफॉस (०.1:) कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिये एवं पत्ता तुषार नामक रोग का प्रकोप हो जाने परबेंलेट (0.1:) फफूदीनाशी रसायन का छिड़काव करना चाहिए।

फसलकटाई : तेल रोशाघास के सभी भाग में पाया जाता है, जैसे-फूल, पत्ती, तना इनमे से फूल वाला सिरा मुख्या भाग होता है, जिसमेआवश्यक तेलकी मात्रा ज्याद पायी जाती है। फसलकी कटाई जमीन से 15-20 सेमीवभाग छोड़कर 50 प्रतिशत पुष्प आने पर दराँती द्वारा की जाती है। वर्षा ऋतु मे फूल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

उपज (किलो प्रति वर्ष) : रोशाघास की फसल में तेल का प्रतिशत, शाक एवं तेल की उपज जलवायु एवं कृषि क्रियायों पर निर्भर करती है। तेल की पैदावार पहले साल में कम होती है तथा यह रोपण की उम्र के साथ वृद्धि करती है। औसतनरोशा घास के शाक में 0.5-0.7: तेल पाया जाता है। अच्छी कृषि प्रबन्ध स्थिति में तेल की औसतन उपज 200-250 किग्रा./हे./वर्ष प्राप्त की जा सकती है।

आसवन एवं तेल का भंडारण : रोशा घास से संगध तेल का उत्पादन वाष्प आसवन विधि द्वार किया जाता है। रोशाघास के तेल का पूर्ण आसवन होने में लगभग 2-3 घंटे का समय लगता है। आसवन के पश्चात् सामान्य तापक्रम पर रोशाघास के तेल को एलुमिनियम की बोतल में भंडारित किया जा सकता है। कंटेनर स्वच्छ और जंग से मुक्त होना चाहिए।

रोशा घास की खेती करने से फायदे :

परंपरागत खेती मौसम पर निर्भर करती है मगर रोशाघास में मौसम का महत्व नहीं होता है।

रोशा घास में खरपतवार एवं कीटों का प्रकोप सामान्यतः कम रहता है।

रोशाघास का पौधा भू-संरक्षण एवं जल-संरक्षण में सहायक हैं।

रोशा घासकी खेती से भूमि की उपरी परत (मृदा) सुरक्षित रहती है।

रोशा घास की फसल को किसी भी प्रकार की भूमि में पैदा किया जा सकता है।

रोशा घास की खेती ऐसे क्षेत्रों में की जा सकती है, जहाँ पर प्रचलित फसलों के उगने में जंगली या पालतू जानवरों की अधिक समस्या हो।

रोशा घास की खेती ऐसे क्षेत्रों में जहाँ पर फसल प्रबंधन एवं सिचाई के लिए जल की कम उपलब्धता हो।

 

आशीष कुमार एवं ज्ञानेश ए. सी.

सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय तथा सुगंधित पौधा

संस्थान, अनुसंधान केंद्र, बोदुप्पल, हैदराबाद,

तेलंगाना-500092,

सम्पर्क सूत्र : devashish121@gmail-com

English Summary: Rashedghas to greenery in drought prone areas Published on: 07 March 2018, 06:08 AM IST

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