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आलू के बीमारियों व पीडक कीटों का रोकथाम

कृषि में बढ़ती निवेश लागत और अल्प काम की वास्तविकता के संदर्भ में अधिकांश किसान जीवन के लिए विकल्प होने पर खेती छोड़ने को तैयार है इसके कारणों में जमीन की घटती उपजाऊ शक्ति बढ़ते जैविक व अजैविक तनाव, रोग किट का प्रकोप बाजार की गुणवत्ता मांग को पूरा करने हेतु खाद, बीज रोग किट का प्रकोप में दवाओं पर अधिक खर्च घटती जोत बदलता वातावरणीय परिवेश और कृषि का वैश्वीकरण प्रमुख है।

KJ Staff
Potato Disease
Potato Disease

कृषि में बढ़ती निवेश लागत और अल्प काम की वास्तविकता के संदर्भ में अधिकांश किसान जीवन के लिए विकल्प होने पर खेती छोड़ने को तैयार है इसके कारणों में जमीन की घटती उपजाऊ शक्ति बढ़ते जैविक व अजैविक तनाव, रोग किट का प्रकोप बाजार की गुणवत्ता मांग को पूरा करने हेतु खाद, बीज रोग किट का प्रकोप में दवाओं पर अधिक खर्च घटती जोत बदलता वातावरणीय परिवेश और कृषि का वैश्वीकरण प्रमुख है. कृषि उत्पादन बढ़ाने में जो अनेक बाधाएँ है उनमें से एक प्रमुख बाधा विभिन्न कारणों से फसलों की पैदावार का कम हो जाना है और इनके भी एक कारण विभिन्न फसलों में कीटों का प्रकोप है.

किट जो फसलों के उत्पादन में क्षति के अलावा मनुष्यों एवं जनवरों में विभिन्न बीमारियाँ फैलाते है और साथ बीमारी फैलावे वाले नाशको का बढ़ावा देते है. किट एवं किड़े के प्रकोप से फसलों के उत्पादन में बहुत बड़ी क्षति होती है. इस स्थिति से निपटने के्र लिए हमें दीर्घकालीन उपाय करने होंगे जिन के अन्तर्गत किट की पहचान निरोधी उपाय यांत्रिक विधियाँ सरल क्रियाओं द्वारा कीटों का प्रबंधन सिचाई का उचित प्रबंध भिन्न-भिन्न फसलों पर किट का प्रकोप का ज्ञान जैसे उपाय किया जाय. जिन्हें अपनाकर फसलों को कीटों से मुक्त रखते हुए हम उनसे अधिकतम उत्पादन ले सकते है. कीटों एवं कीड़ों के नियंत्रण हेतु अनेक उपाय एवं अनुसंधान किये गये है. बस जरूरत है किसान भाईयों तक पहुंचाने कि आलू में निम्न प्रकार कीट एवं कीड़े लगते है जो इस प्रकार है.

कटुकीः- कटुकी के कारण आलू की फसल को 20 से 100 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है. महाराष्ट्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश कर्नाटक व हिमांचल प्रदेश कुछ विशिष्ट इलाकों में शुष्क काल में इसके कारण उपज में 60 प्रतिशत तक कमी देखी गई है गंगावर्ती मैदानी इलाकों की अगेती रबी फसल की आलू की फसल पर हमला काफी नुकसान करता है.

लक्षण:- अगस्त-सितम्बर व अक्टूबर मध्य से दिसम्बर मध्य के दौरान कटुकी का प्रकोप चरम सीमा पर होता है वयस्क व अर्भक (निम्फ) कटुकी दोनों ही फसल की पत्तियों को काटकर भारी नुकसान पहुंचाते है. इसके प्रकोप के प्रारम्भिक लक्षण आलू की पत्तियों पर देखे जा सकते है. जिसके कारण पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़ जाती है. प्रकोप के शुरू में पत्तियों का निचला भाग तौलिय दिखाई पड़ता है. धीरे-धीरे यह लक्षण सम्पूर्ण पौधे पर फैल जाते है. इससे ग्रसित पत्तियाँ छोटी रह जाती है जिनका निचला हिस्सा तांबे के रंग जैसे तथा चमडे़नुमा सुखा हो जाता है. कटुकी का भयंकर प्रकोप होने की दशा में ग्रसित पत्तियाँ बिलकुल सुख जाती है और पौधा अन्ततः मर जाता है. खेत में प्रभावित पौधे का रंग कांसे जैसा हो जाने के कारण यह दूर से भी आसानी से पहचाने जाते है.

नियंत्रण:-

1. कटुकी के प्रभावशाली नियंत्रण के लिए फसल दर या तो डीकोफाल 18.5 ई.सी. या क्विनालफास 25 ई0सी0 की 2.0 ली0 वास्तविक मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए इसके अलावा मैन्कोजेब 80 (डब्लू. पी.) की 2.0 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर दर से उपचार अथवा अति महीन घुलनशील गंधक (80 प्रतिशत) का 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार भी प्रभावशाली है. कटुकी के फसल पर आते ही पहला उपचार कर लेना चाहिए और उसके बाद इसके प्रकोप की तीव्रता को देखते हुए इसे 7 से 10 दिनों के अन्तराल पर दोहराते रहना चाहिए.
2. यदि कटुकी और कन्द शलभ की संयुक्त समस्या आन पड़े तो उसे स्थिति में क्विन फास का उपचार अधिक प्रभावशाली रहता है परन्तु कटुकी और फफूंद पूर्ण धब्बों के साथ-साथ होने पर मैंकोजेब 0.2 प्रतिशत का छिड़काव अच्छा रहता है.
3. गंगा के मैदानी इलाकों में आलू की बीजाई को अक्टूबर के मध्य तक टालकर आलू की फसल को कटुकी के प्रकोप से बचाया जा सकता है. श्वेत सुण्डी:-श्वेत सुण्डी बहुभक्षी होते है व सर्वत्र पाए जाते है पीडक सुण्डियाँ विभिन्न जड़ या कन्दों तथा बहुत प्रकार के पौधों के साथ-साथ आलू को अपना भोजन बनाते है. अतः इसके कारण खेतों में लगी बहुत फसले धारा के लान बाग में पौधों आदि को भारी नुकसान पहुचाता है.
यह सुण्डिया आलू की फसल को दो तरीके से नुकसान पहुँचाती है पहली अवस्था में सुण्डियां मिट्टी में पाए गये कार्बनिक पदार्थ को खाती है किन्तु जड़ों को खाना इन्हें अच्छा लगता है. आरम्भ में तो यह पौधों की जड़ों को खाती है परन्तु बाद में यह कन्दों को नुकसान पहुँचाती है. आलू कन्दों को इन सुण्डियों की मुख्यतः द्वितीय व तृतीय निर्मोचन सुण्डिया ग्रसित करती है जिससे कन्दों में बड़े गहरे गोल बीलनुमा छेद हो जाते है और कन्द बिकने के काबिन नहीं रहते.

रासायनिक नियंत्रण:-

1. वयस्क सुण्डियों को मारने के लिए परपोषी पौधों पर क्लोरीपाइरीफास या इन्डोसलफान 35 ई0सी0 या क्विनेलफास 25 ई0सी0 या कार्वेरिल 50 डब्लू.पी. 0.1 से 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए.

2 सुण्डियां अकेले ही आलू की फसल को भारी नुकसान पहुचाती है अतः समय पर इसका नियंत्रण करने के लिए निम्न उपाय करें.

क. मानसून आने से पहले अप्रैल, मई के महीने में खेत को कई बार जुताई करें और मिट्टी को खुला छोड़ दें ताकि बाहर निकली सुण्डी और प्यूपा को इनके स्वाभाविक दुश्मन जैसे कौवा, मैना आदि खाले अथवा इन्हें इकट्ठा करने के बाद कुटकर नष्ट कर दे या कीटनाशी द्वारा मार दें.
ख. जहाँ संभव हो खेत को 7 से 10 दिनों के लिए पानी से भर दें.
ग. उपयुक्त फसल चक्र अपनाए.
घ. खेत में सदैव गोबर की अच्छी तरह से सड़ी गली खाद ही डाले.
 बोआई के समय नालियों में या मिट्टी चढ़ाते समय पौधों के नजदीक दैहिक कीटनाशी जैसे फोरेट 10जी या कार्बोफ्यूरान 3जी
फिफोरोलीन 4जी 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दर से उपचार करें.

कन्द शलभ (TUBER MOTH)

कन्द शलभ के डिभंक आलू फसल पर दो तरीके से हमला करते है. पहला नई पत्तियों में सुरंग बनाकर और दूसरा कन्दों को खाकर डिभंक पत्तियों में घुस जाते है और पत्तियों की शिराओं या फिर पौधों की डण्ठलों को भीतर से खाते है और कन्दों में बहुत दूर तक सुरंग बनाते है खेतों में फसल तैयार होने पर कन्दों पर तथा भण्डार गृहो में ढेर के उपरी कन्दों पर इनके प्रकोप को देखा जा सकता है. भण्डार गृह में यह कन्दों की आंखों के समीप अण्डे देते है. देश के विभिन्न इलाकों में आलू के कन्द शलभ कीटों का खेतो व भण्डार गृह में प्रकोप क्रमशः 0-84 व 0-52 प्रतिशत तक आंका गया है. भारत सभी प्रदेशों में देखा गया है और यह उतार चढ़ाव वातावरण के तापमान पर निर्भर करता है. आमतौर पर इसके अण्डे शीत भण्डारों में जीवित नहीं रहते किन्तु कुछ डिभंक व प्यूपा छः महिनों तक भी जीवित रहते है. यदि 27 से 35 डिग्री से0 का उपयुक्त तापमान रहे तो उस स्थिति में आलू के कन्द शलभ का जीवन चक्र आमतौर पर 21 से 30 दिनों में पूरा हो जाता है और पीढ़ी में इसकी बढ़वार 2.66 से 17.55 गुणा हो जाती है. एक वर्ष में इसकी कई पीढ़ियां तैयार होती देखी गई है. एक राज्य से दूसरे राज्य तक यह बीज व भोज्य आलू के माध्यम से अपरिपक्व अवस्था में फैलते रहते हैं. यह कृषि वैज्ञानिकों का मत है.

नियंत्रण

1.  इन कीटों से होने वाले नुकसान को कीटनाशकों के उपचार तथा अन्य एकीकृत से कम किया जा सकता है. यदि खुदाई के समय वर्षा हो जाय अथवा उसके बाद कन्दों को दो माह से अधिक काल तक देशी भण्डार में रखने पर काफी नुकसान होता है.
2. 30 दिनों की आलू फसल पर 1.5 ली0 मोनोक्रोटोफास 40ई0सी0 1000 ली0 पानी में घोल कर प्रति हे0 छिड़काव करें फसल के खोदाई दो सप्ताहह पहले भी करें.
3. भण्डार में कन्द शलभ के प्रकोप को रोकने के लिए आलू ढेर के नीचे और उपर सुखी हुई लेन्टाना या नीम की सुखी पत्तियों की 2 से 2.5 सेन्टीमीटर मोटी तह बिछा दें.
4. बैसीलरा थरीजिनसिस (बी0टी0) व ग्रेनुलोसिस वारस (जी0वी0) जैसे जैव कारक के इस्तेमाल से भी भण्डारों में आलू के कन्द शलभ के प्रकोप को रोका जा सकता है.

5. भण्डार गृह में नर कन्द शलभ को बड़ी संख्या में पकड़ने के लिए यौन गन्ध - आधारित जल ट्रेप का इस्तेमाल भी प्रभावशालीरहता है. ध्यान देने योग्य बातें - भण्डारगृहों में बी0एच0सी0 व डी0डी0टी0 जैसे कीटनाशी पाउडर का इस्तेमाल कभी न करें भण्डारगृहों में कन्द शलभ की बढ़़वार रोकने के लिए परजीवी अथवा सूक्ष्मशाकण फफंूद चीटो छिपकलियों आदि स्वाभाविक शत्रुओं की बढ़वार होने दें.

माहूँ या चेपा(APHIDS)

माईजस परसिकी व एफिस गाॅसिपी नामक माहूँ आलू की फसल पर वैसे तो कीट पीड़कों की तरह नुकसान नहीं करते लेकिन यह रोग मुक्त बीज उत्पादन पर रोक लगाने में अहम भूमिका निभाते है. क्योंकि पति मोड़क व वाई वायरस के मुख्य वाहकों के रूप में कार्य करते है. तथा इन वायरस रोगों से फसल को 40 से 85 प्रतिशत तक नुकसान होता है. फसल पर माहूँ के प्रबोधन से माहूँ द्वारा बीज फसल में बढ़ने वाले वायरस आयतन को कम किया जा सकता है. फसल या खेतों में माहूँ के प्रभाव को आंकने के लिए उनकी गिनती पानी के पीले ट्रेप में या 100 यौगिक पतियों पर प्रति सप्ताह की जाती है.

मांहूँ की प्रजातियाँ और उनके पहचान:-

1. माइजस परसिकी- यह आमतौर पर ग्रीन पीच ऐफिड अर्थात् आडू का हारा मांहूँ नाम से जाना जाता है यह हल्के या गहरे हरे रंग अथवा पीले रंग के होते है. इनमें अंदर की ओर मुड़े हुए आगे वाले ट्यूबरकल विकसित होते है. इसके डंक लम्बे बेलनाकार तथा मध्य में कुछ फूले होते है. पंखदार अवस्था में इनके उदर पर एक गहरा धब्बा होता है.
2. एफिस गाॅसिपी - इन्हें आमतौर पर काॅटन या मेलून एफिड अर्थात् कपास या खरबूज वाला मांहूँ के नाम से जाना जाता है. इसका रंग गहरे पीले से भूरा या स्लेटी काला या हल्के से गहरा कुछ भी हो सकता है. इनके पौरो के जोड़ आँख तथा डंक  काले होते है.
3. एफिस फैबी - इसे आमतौर पर कामन बीन एफिड अर्थात् साधारण बीन का मांहूँ नाम से जाना जाता है. यह अलग-अलग काले से जैतून हरे रंग के पाए जाते है. इनके उदर पर अक्सर अनियमित अकार के गहरे धब्बे होते है. इसके डंक हल्के काले लहरदार बाहर की ओर पतले नुकीले होते है पंखदार अवस्था में इनके उदर पर कुछ काली लम्बी धारियां होती है.
4. रोपेलोसिफम रूफि एबडोमिनोलिस- यह पोटेटो या ग्रास रूट एफिड कहलाता है और यह भी जैतुन जैसे हरे-काले रंग के होते है इनकी श्रंगिका में या 5 या 6 खण्ड होते है सामने के पंख के बीच में कभी-कभी शाखादार धारियाँ होती है आमतौर पर इसकी सिफनकूली के निचले भाग पर लाल धब्बे होते है. एम परसिकी का परपोषी चक्र सबसे बड़ा माना जाता है. आमतौर पर यह बहुत सी फसलों में पाया जाता है. जिनमें टमाटर, चुकन्दर, आडू, सरसो, कपास, मिर्च, बैंगन, बीन आदि
प्रमुख है. उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में माइजस परसिकी मांहूँ की संख्या फरवरी माह में शिखर पर होती है परन्तु मार्च के बाद इनकी संख्या घटने लगती है. गर्मी में तापमान बढ़ने के साथ-साथ अप्रैल-मई के महीनों के दौरान मैदानों में लगभग समाप्त हो जाते है.

नियंत्रण

पौधों पर वायरस रोगों का सीधा नियंत्रण न तो आसान है और न ही बहुत कारगर है.
1. हमारे देश के गंगा के मैदानी इलाकों में ही लगभग 90 प्रतिशत बीज आलू की खेती की जाती है. यदि हम इन इलाकों में फसल बुवाई की तिथि से फसल काल को मांहूँ के आने से पहले पूरा होने के लिए समायोजित कर ले तो फसल को इस पर आने वाले मुख्य वायरस वाहनक मांहूँ के प्रकोप से आसानी से बचाया जा सकता है. इसके लिए पश्चिमोत्तरी मैदानों में आलू की बोआई 25 अक्टूबर तक मध्य भारत के मैदानों में 15 अक्टूबर तक पूर्वतरी मैदानों में 5 नवम्बर तक पूरी कर ली जानी
चाहिए.
2. मैदानों में यदि भूमि में पर्याप्त नमी है तो उस स्थिति में बुवाई के समय नालियों में फोरट 10जी की 15 से 20 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करके मांहूँ जैसे रोग वाहको को 45 दिनों तक फसल पर आने से रोका जा सकता है.
3. आवश्यकता पड़ने पर फसल पर किसी उपयुक्त दैहिक कीटनाशक जैसे मिथाइल डेमिटांन 25 ई0सी0 या डाइमिथोएट ई0सी0
का 0.03 प्रतिशत घोल 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर छिड़क देना चाहिए.

कवचधारी सूत्रकृमि (CYSTNEMATODES)

आलू का कवचधारी सूत्रकृमि विश्व भर में पौधे संरक्षण के लिए एक मुख्य समस्या है, जिसके कारण विश्व स्तर पर आलू की फसल को 9 प्रतिशत तक नुकसान होता है. यह कवचधारी सूत्रकृमि बीज कन्दो के साथ लगी मिट्टी में आसानी से चिपक कर फैलते है. परपोषी पौधों के बिना भी इसके अण्डे लम्बे काल तक कवच के अन्दर जीवित रहते है इस कारण यह बहुत महत्वपूर्ण पीड़क माना जाता है. किसी क्षेत्र या खेत में ग्रहसन होने पर 5 से 6 वर्ष में ही फसल को विशेष नुकसान पहुँचानरे के स्तर तक पहुच जाता है. अतएवं यह संगरोध की बड़ी समस्या के रूप में सामने आता है. इस सूत्रकृमित के कारण फसल को भारी नुकसान हो सकता है जो मुख्य रूप से मिट्अी में सूत्रकृमि की आरम्भिक स्तर संख्या तथा खेत में फैलाव पर निर्भर करती है.

लक्षण

मिट्टी के सूत्रकृमियों की संख्या में काफी वृद्धि होने के स्थिति में खेतों में कहीं-कहीं असहाय कमजोर पौधे दिखाई देते है. जो दोपहर में अस्थाई तौर पर मुरझा जाते है. ग्रसित पौधे ठिगने समय से पूर्व पीलापन लिए तथा कमजोर जड़ संरचना वाले होते है जिन पर कम और छोटे कन्द लगते है. साल दर साल रोग प्रकोप के साथ-साथ उपज में भारी कमी हो जाती है. पौधे की जडो के साथ चिपके सरसो के बीज के आकार के पीले या सफेद मादा सूत्रकृमि आसानी से देखे जा सकते है जो बाद में भूरे कवच में परिवर्वित हो जाते है.

नियंत्रण

जब किसी इलाके की मिट्टी में आलू का कवचधारी सूत्रकृमि स्थापित हो जाए तो उन्हें खेत की मिट्टी से पूरी तरह निकलना मुश्किल है तथा इनसे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए विभिन्न पौध संरक्षण उपायों की चक्र-ब्यूह रचना करनी पड़ती है. नीलगिरि में इसके नियंत्रण के लिए निम्न्लिखित फसल चक्र कीटनाशक उपाय व कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी आलू किस्में लगाई जा रही है.
मूली, लहसून, चुकन्दर, शलगम, हरी खाद वाली फसल ल्यूपिन आदि अ-परपोषी फसलों को लगाकर कवचधारी सूत्रकृमि की संख्या में 50 प्रतिशत से अधिक कमी लाई जा सकती है.

1. जहाँ एक बार आलू की फसल लगाई गई हो वहाँ फसल चक्र के रूप में 3 से 4 अन्य फसलों को लेकर इनकी संख्या को
कम किया जा सकता है.
2.खेतों में बोआई के समय कार्बोफ्यूरान 3जी0 की 2 किलोग्राम वास्तवकि मात्रा प्रति हेक्टेयर से उपचार करके भी इनकी संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है.
3. कुफरी स्वर्ण, कुफरी धनामलाई जैसी आलू की कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी किस्मे ही उगानी चाहिए.
4. नीलगिरि में उपरोक्त किस्में न केवल आलू के कवचधारी सूत्रकृमि की प्रतिरोधी है बल्कि इनमें पिछेता झुलसा की प्रतिरोधिता भी है. आलू की कुफरी स्वर्ण किस्म में सुषुप्तावस्था काल कम होने के कारण यह नीलगिरि के लिए बहुत उपयुक्त साबित हुई है.

रवीन्द्र नाथ चौबे
प्रगतिशील एवं सम्मानित किसान सेवा केन्द्र
डाक बंगला के सामने, बाँसडीह
पोस्ट-बाँसडीह, जनपद-बलिया (उ0प्र0)
मो0-09453577732

English Summary: Prevention of Potato Diseases and Livestock Pests Published on: 10 November 2017, 03:29 AM IST

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