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“जीएसटी बचत महोत्सव में भी किसान की जेब खाली”

सरकार कह रही है कि उसने 56वीं जीएसटी परिषद बैठक के बाद “जीएसटी 2.0” लाकर जनता को राहत दी है. पर छोटे किसानों के लिए जरूरी कृषि यंत्रों पर अब भी 18% टैक्स लागू है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और ख़राब हो रही है.

KJ Staff
Dr. Rajaram Tripathi
डॉ. राजाराम त्रिपाठी, सफल किसान, ग्रामीण अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ तथा अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIFA) के राष्ट्रीय संयोजक

“जब चाकू सरकार का और खरबूजा किसान का तो, किसान की जेब कटना तय है”

पांच मुख्य बिंदु:

  • सरकार ने ट्रैक्टर टायरों का जीएसटी घटाया, पर छोटे किसानों के उपकरणों पर बोझ जस का तस.

  • 18% जीएसटी वाले छोटे कृषि यंत्रों को घटाने की मांग अब भी अनसुनी.

  • पुराने रेट पर खरीदे माल की इनपुट टैक्स क्रेडिट की वापसी पर कोई नीति स्पष्ट नहीं.

  • बढ़ती मजदूरी, जलवायु परिवर्तन और काम के घटते घंटे ने लागत दोगुनी कर दी.

  • “बचत महोत्सव” के बीच भी किसान की बचत सिर्फ सरकारी पोस्टरों तक सीमित.


पूरा भारत आज “जीएसटी बचत महोत्सव” मना रहा है! पोस्टर, बैनर, होर्डिंग्स और टीवी विज्ञापनों से देश का कोना-कोना पटा पड़ा है. छोटे गाँवों की चौपालों से लेकर महानगरों की मेट्रो तक, हर ओर सरकार के उत्सव का डंका बज रहा है. लेकिन सवाल यह है, किसकी बचत? किसान की या सरकार की?

सरकार कह रही है कि उसने 56वीं जीएसटी परिषद बैठक के बाद “जीएसटी 2.0” लाकर जनता को राहत दी है. पर जब इस राहत की परतें खोलते हैं तो कृषि क्षेत्र के लिए यह राहत महज कागज़ी साबित होती है.

कृषि उपकरणों पर जीएसटी की दोहरी मार:-

ट्रैक्टर के टायर पर जीएसटी 28% से घटाकर 18% कर दिया गया, परंतु वही टायर यदि छोटे किसान के मिनी-टिलर, पंपसेट या ब्रश कटर में लगे हों, तो अब भी वही पुराना 18% टैक्स बरकरार है. यही नहीं ,, वॉटर पंप (HSN 8413), राइस मिल (8437), ब्रश कटर, हेज ट्रिमर, चेन सॉ, पोल प्रूनर जैसे छोटे किसानों के उपकरण आज भी 18% जीएसटी के घेरे में हैं. ये वही यंत्र हैं जिनसे छोटा किसान खेती में आत्मनिर्भर बन सकता था, पर सरकार ने इन्हीं पर सबसे ऊँचा टैक्स रख दिया. बड़ा किसान ट्रैक्टर खरीदे तो राहत, छोटा किसान सिंचाई हेतु मोटर खरीदे तो सज़ा!

क्या यही “सबका साथ, सबका विकास” का नया संस्करण है?

भारत में लगभग 84% किसान छोटे या सीमांत किसान हैं, जिनकी औसत जोत 2–3 एकड़ है. इनकी उत्पादन लागत हर साल 12–15% बढ़ रही है, जबकि आय वृद्धि की दर मुश्किल से 2–3% है. ऐसे में 18% जीएसटी उनकी कमर तोड़ रहा है.

खेती की लागत में लगी आग और काम के घटते घंटे :-

आज खेती की लागत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. खाद, बीज, कीटनाशक और डीज़ल, और सबके दाम आसमान छू रहे हैं. सिर्फ पिछले पाँच वर्षों में डीज़ल के दाम में लगभग 45% वृद्धि हुई है, और उर्वरक की कीमतें अंतरराष्ट्रीय कारणों से दोगुनी हुई हैं. मज़दूरी भी दोगुनी हो चुकी है, लेकिन काम के घंटे घट गए हैं. ग्लोबल वार्मिंग के कारण दोपहर का तापमान 45–47°C तक पहुँच रहा है, जिससे खेतों में काम करने का औसत समय 8–9 घंटे से घटकर 5 घंटे रह गया है.

अब किसान को वही काम कराने के लिए दो मजदूर रखने पड़ रहे हैं, जिससे प्रति एकड़ लागत में लगभग 30–40% की वृद्धि हो चुकी है. देश में छुट्टियों का भी अजीब रोग फैल गया है, “कभी कोई दिवस, कभी किसी की जयंती दिवस, आए दिन विभिन्न धर्मों के तिथि एवं त्यौहार”, और अब तो हर तिथि पर कोई न कोई समारोह. इन छुट्टियों आयोजनों एवं समारोहों के चलते साल के 365 दिन कम पड़ रहे हैं.

सरकारी कर्मचारी छुट्टी मनाते हैं, और किसान खेत में पसीना बहाता है. पर सरकार की नीतियों में उस पसीने का कोई मूल्य नहीं. विडंबना यह है कि छुट्टी मनाने की यह बीमारी अब गाँव के कृषि मजदूरों में भी तेजी से फैल रही है. ऐसे में कृषि को टिकाऊ बनाए रखने के लिए मानव श्रम की जगह छोटी कृषि मशीनों का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है  पर सरकार उन्हें टैक्स से मुक्त करने की जगह बोझिल बना रही है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट का पेच : या तो सरकार जीते, या फिर व्यापारी, किसान को तो हारना ही है :-

एक और बड़ा अन्याय “Accumulated Input Credit” से जुड़ा है. जो व्यापारी पहले 18% जीएसटी पर माल खरीद चुका था, अब वही माल 5% रेट पर बेचना पड़ रहा है. पर सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अतिरिक्त 13% का रिफंड नहीं देगी (Circular No. 135/05/2020–GST). अब व्यापारी घाटा तो झेलेगा नहीं, वह मूल्य बढ़ाकर किसान से वसूलेगा. अर्थात “बचत महोत्सव” का बोझ भी किसान की पीठ पर ही लादा जाएगा.

(चाकू गिरे या खरबूजा, कटेगा तो खरबूजा ही.)

भारत के किसान की किस्मत भी कुछ ऐसी ही है, नीति बदले या सरकार बदले, कटता तो हमेशा किसान ही है.

Ease of Doing Business” बनाम “Ease of Farming”

सरकार कहती है कि जीएसटी 2.0 से “Ease of Doing Business” बढ़ेगा. पर वास्तविकता यह है कि आज़ाद भारत में “Ease of Farming” नाम की कोई चीज़ कभी बनी ही नहीं.

नीति निर्माताओं से सीधा प्रश्न है -

“जब उद्योग के लिए टैक्स 5% किया जा सकता है, तो फिर किसान के लिए क्यों नहीं?”

जब विदेशी निवेशकों को टैक्स हॉलिडे मिल सकता है, तो अन्नदाता को जीएसटी हॉलिडे क्यों नहीं?

फ्रांस में कृषि यंत्रों पर टैक्स 5.5% है, जापान में कई उपकरण पूरी तरह टैक्स-फ्री हैं, और यूरोपियन यूनियन में कृषि मशीनरी को “Essential Equipment” अतिआवश्यक उपकरणों की श्रेणी में रखकर उस पर टैक्स राहत दी जाती है. पर भारत में वही यंत्र “Luxury” समझे जाते हैं जिनसे किसान का श्रम और जीवन आसान हो सकता है.

कृषि नीति का असंतुलन और “कागज़ी राहत”

जीएसटी परिषद की 56वीं बैठक में ट्रैक्टर से जुड़ी पार्ट्स के टैक्स को 5% कर दिया गया, पर ग़ैर-ट्रैक्टर कृषि यंत्रों जैसे पंप, गियरबॉक्स, एक्सल, क्लच, और डीज़ल इंजन पर 18% टैक्स बरकरार रखा गया. इससे सबसे ज़्यादा नुकसान उन 84% छोटे किसानों को हुआ जो अपनी 2–5 एकड़ की जोत पर आधुनिक खेती और mechanized farming का सपना देखते हैं.

सरकार “कृषि सब्सिडी” के नाम पर जो ढोल बजा रही है, वह जीएसटी के माध्यम से बड़ी खामोशी से वापस वसूल भी कर रही है.

यह नीति नहीं, बल्कि एक “चक्रव्यूह” है - जहाँ किसान हर बार बाहर निकलने की कोशिश में और उलझ जाता है.

जीएसटी का वास्तविक चेहरा : किसानों के आँकड़ों में छिपा सच:-

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के ताज़ा सर्वे के अनुसार, भारतीय किसान परिवार की औसत मासिक आय केवल ₹10,218 है, जबकि औसत मासिक खर्च ₹9,940. अर्थात, परिवार के पास बचता है मात्र ₹278 — वह भी तब जब वर्षभर मौसम, मंडी और नीति सब साथ दें. अब ऐसे किसान को अगर हर उपकरण पर 18% टैक्स देना पड़े, तो उसकी बचत “महोत्सव” नहीं, मजाक लगती है.

अंत में : किसान का प्रश्न, देश का प्रश्न:-

अखिल भारतीय किसान महासंघ का यह स्पष्ट मत कि कृषि यंत्रों, उनके स्पेयर पार्ट्स और इनपुट्स को जीएसटी के मकड़जाल से पूरी तरह मुक्त किया जाए. यदि अभी ऐसा संभव नहीं हो, तो सभी कृषि मशीनरी, स्पेयर पार्ट्स और इनपुट्स पर एक समान 5% जीएसटी दर रखी जाए. इनपुट टैक्स क्रेडिट के नियमों में संशोधन कर, पूर्व भुगतान की गई राशि पर भी रिफंड की व्यवस्था की जाए.क्योंकि किसान मात्र “टैक्स पेयर” नहीं, बल्कि देश के जीवनदायी टैक्स जनरेटर हैं. अगर किसान की जेब खाली होगी, तो शहरों के मॉल भी खाली हो जाएंगे. हमारी नीति निर्माता शायद यह भूल गए हैं कि, “अन्नदाता सुखी भव”,  यह सिर्फ़ एक आशीर्वाद नहीं, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था की नींव मजबूत करने का मूलमंत्र है.

लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ तथा अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIFA) के राष्ट्रीय संयोजक हैं.

English Summary: GST 2.0 impact on small farmers in india dr Rajaram Tripathi Published on: 07 October 2025, 06:37 PM IST

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