प्रकृति ने हमारे बीच जो व्यवस्था दी है, उसमें जल चक्र का सर्वाधिक महत्व है। लेकिन अंधाधुंध जल के दोहन से इस चक्र के समन्वय पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके पीछे कारण है भू जल का ज्यादा से ज्यादा दोहन किया जाना। जल की मांग चाहे कृषि के क्षेत्र में हो या फिर जीव जंतुओं एवं पेड़ पौधों को जीवित रखने के लिए, इसका सीधा असर भू गर्भीय जलस्तर पर पड़ रहा है। कई जगह स्थिति ऐसी हो गई है कि वाटर लेवल नीचे जा रहा है। अगर हम इससे सचेत नहीं हुए तो आने वाले दिनों में पेयजल एवं सिंचाई जल के लिए तरसना पड़ेगा। इन स्थितियों के कारण आज आवश्यकता है कि इसके माध्यम से हम ज्यादा से ज्यादा जल संरक्षण पर पहल कर सकें। जिले में जल संरक्षण के क्षेत्र में गैर सरकारी संगठन की ओर से तो उल्लेखनीय पहल नहीं की जा रही है। हां, इसके लिए सरकारी स्तर पर कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। जल संरक्षण की महत्ता को देखते हुए इस वर्ष कृषि विभाग (बेतिया) सभी प्रखंडों में एक ऐसा मॉडल विकसित करेगा, जिसके द्वारा किसानों को जल संरक्षण पर शिक्षित किया जाएगा। इसके तहत 18 ऐसे मॉडल विकसित किए जाने की बात बताई जा रही है। वैसे तो यह मॉडल इंटीग्रेटेड फार्मिंग के नाम से जाना जाएगा, लेकिन प्रत्येक मॉडल में ड्रीप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई विधि के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाएगी। ये दोनों ही पद्धति सिंचाई की वैसी प्रणाली है, जिसके उपयोग से फसलों में सिंचाई करने के लिए जल की कम आवश्यकता पड़ती है। इसमें जल वहीं दिया जाता है, जहां पौधा लगा होता है। इस सिस्टम को बागवानी के लिए भी विकसित किया गया है। विभागीय सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार मॉडल में दोनों ही प्रकार के यंत्र को प्रदर्शित किया जाएगा। जिला कृषि पदाधिकारी शिलाजीत सह ने बताया कि मॉडल के माध्यम से किसानों को वाटर इकोनॉमी की बात बताई जाएगी। वहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में जिला मत्स्यपालन विभाग के द्वारा काम किया जा रहा है। यह मछली उत्पादन के लिए किया जा रहा है, लेकिन यहां पोखरों के निर्माण एवं पुराने पोखरों के जीर्णोद्धार के माध्यम से जल का संचयन किया जा रहा है। इसका उपयोग सिंचाई जल के रूप में भी किया जा सकेगा। जिला मत्स्यपालन पदाधिकारी मनीष श्रीवास्तव के अनुसार इस वर्ष 72 हेक्टेयर क्षेत्र में पोखरों के निर्माण किए जाएंगे। इसके अलावा पुराने पोखरों के जीर्णीद्धार के लिए चार दर्जन से अधिक प्रस्ताव स्वीकृति के लिए भेजे गए हैं।
90 हेक्टेयर में ड्रिप सिस्टम
बागवानी फसलों की सिंचाई के लिए जिले में इस बार 90 हेक्टेयर में सिंचाई की ड्रिप प्रणाली लगाई जाएगी। जबकि 40 हेक्टेयर में स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई की व्यवस्था की जाएगी। इस योजना में किसानों को अनुदान देने की व्यवस्था की गई है। इन विधि से ¨सचाई की व्यवस्था कराने से सिंचाई जल की मांग में कमी आएगी। साथ ही किसानों को सिंचाई की इस विधि को अपनाने में आसानी होगी।
रेन वाटर हार्वेस्टिंग पर नाबार्ड कराएगा प्रशिक्षण
रेन वाटर हार्वेस्टिंग के क्षेत्र में ग्रामीणों को प्रशिक्षण देने के लिए नाबार्ड के द्वारा पहल की जा रही है। पिछले वर्ष 6 प्रखंडों के ग्रामीणों को इसके लिए प्रशिक्षण दिया गया। इसमें जलदूत तैयार किए जाते हैं, जिनके द्वारा ग्रामीणों को रेन वाटर के क्षेत्र में प्रशिक्षित किया जाता है। नाबार्ड के जिला प्रबंधक विवेक आनंद के अनुसार इस वर्ष 300 से 500 गांवों में ग्रामीणों को इस विधि का प्रशिक्षण देने की योजना है। इसके लिए कार्ययोजना तैयार की जा रही है। इस प्रशिक्षण में इस बात पर बल दिया जाता है कि ग्रामीणों में इस बात की समझ हो कि सूखे की स्थिति में उनके द्वारा संचित जल का इस्तेमाल खेती में किया जा सकेगा।
कार्बनिक खेती से कृषि में जल की मांग में आएगी कमी
हाल के अध्ययन से इस बात को स्थापित कर लिया गया है कि यदि हम कार्बनिक खेती करते हैं तो उसमें सिंचाई जल की आवश्यकता भी कम होती है। इसका मुख्य कारण पौधों में इवैपो ट्रासपिरेशन में कमी का होना बताया गया है। जानकार बताते हैं कि यदि खेती में मल्चिंग को अपनाया जाता है तो इवैपो ट्रांसपिरेशन में कमी आती है। यानी इस विधि में पौधों के द्वारा अपने मेटाबोलिज्म को पूरा करने में पानी की आवश्यकता कम होती है। इस वर्ष विभाग 1 हजार किसानों को कार्बनिक खेती से जोड़ेगा।
साभार
दैनिक जागरण
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