मेघालय और दार्जिलिंग के कुछ हिस्सों में देखी जाने वाली कीट भक्षी पौधे की यह प्रजाति 36 साल बाद भारत में देखी गई है.
आखिरी बार 1986 में पूर्वोत्तर भारत में देखी गई थी ये प्रजाति
इसे आखिरी बार 1986 में देखा गया था. यह उत्तराखंड के वन अनुसंधान संस्थान( forest research institute) की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. 1986 के बाद यह प्रजाति पूरी तरह से नदारद हो गई थी. इसकी उपस्थिति का किसी भी तरह का कोई चिन्ह नहीं मिला था. उत्तराखंड के वन अनुसंधान संस्थान की इस उपलब्धि को 106 साल पुरानी जापानी शोध पत्रिका 'जनरल ऑफ जापानी बॉटनी' में प्रकाशित किया गया है. यह प्लांट टैक्सोनॉमी और वनस्पति विज्ञान की 106 वर्ष पुरानी अत्यंत प्रतिष्ठित पत्रिका है.
2019 से ही उत्तराखंड का वन अनुसंधान संस्थान कीटभक्षी पौधों की खोज की प्रक्रिया में लगा हुआ है. अभी तक इन पौधों की 20 अलग-अलग प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं.
कीटभक्षी पौधे की खोज के बाद वनस्पति विज्ञानियों में गजब की उत्सुकता देखी गई है.
क्यों की जाती है कीटभक्षी पौधों की खोज
कीटभक्षी पौधों में औषधीय गुणों की संभावना होने के कारण इन पर लगातार शोध किया जाता है. पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से भी ये पौधे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
क्या खासियत है कीटभक्षी पौधों की
ये पौधे पानी वाली जगह पर पनपते हैं. इनके आसपास की मिट्टी उपजाऊ नहीं होती. ये पौधे अन्य पौधों की तरह प्रकाश संश्लेषण की क्रिया से भोजन हासिल नहीं करते बल्कि शिकार के जरिए अपना भोजन पाते हैं. इनके ब्लैडर का मुंह 10 से 15 मिलीसेकंड में खुलकर बंद भी हो जाता है जो बेहद आश्चर्यजनक है.
कीटभक्षी पौधों की दुर्लभ प्रजातियों पर रिसर्च को लेकर दुनिया भर के विशेषज्ञ काफी गंभीर हैं- और लगातार नई-नई प्रजातियों को खोजने के प्रयास में लगे हुए हैं.
कैसा दिखता है ये पौधा
यह पौधा देखने में बहुत ही सुंदर है और बहुत ही नाजुक भी. यह अपने शिकार के खून पर ही जीवित रहता है. 2 से 4 सेंटीमीटर के क्षेत्र में फैले इस पौधे के अध्ययन से कई रोचक जानकारियां सामने आई हैं. यूट्रीकुलेरिया फरसीलेटा कीड़े मकोडों के लार्वे को खाकर उनसे नाइट्रोजन प्राप्त करता है. 1986 में इस पौधे को पूर्वोत्तर भारत में देखा गया था. उसके बाद यह कहीं भी नजर नहीं आया था. इसीलिए इस उपलब्धि को बेहद खास माना जा रहा है.
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क्यों लुप्त हो रही है कीटभक्षी पौधों की प्रजातियां
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पर्यटन स्थलों पर भारी भीड़ उमड़ रही है. जैविक दबाव भी बढ़ रहा है.
इसके कारण दुर्लभ प्रजातियां संकटग्रस्त हो गई हैं. ये पौधे बेहद उपयोगी हैं क्योंकि ये सिर्फ ऑक्सीजन ही नहीं देते बल्कि कीट पतंगों से भी बचाते हैं.
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