खून सस्ता है मगर यूं न पिया जाये मुझे
खून सस्ता है मगर यूं न पिया जाये मुझे
जहर जब फैले तो फ़ासिद न कहा जाये मुझे
पेश है चाय जो चाहे पिये गर-ए-दिल-ए-सब्ज़
जो नहीं चाहता वह ज़हर पिला जाये मुझे
कार में इतनी जगह थी मैं समा सकता था
क्यों यह साहब को लगा छोड़ दिया जाये मुझे
फ़ील-ए-बदमस्त की मानिन्द गुज़रने वाले!
कहीं चियूंटी तेरी मय्यत न दिखा जाये मुझे
तख्त के गिर्द मैं करता रहा जिस तरह तवाफ़
उन मनासिक पे ही हाजी न कहा जाये मुझे
सब चराग़ों की हिफ़ाज़त के लिए जलता हूँ
नहीं मन्ज़र अँधेरों में रखा जाये मुझे
यूँ ही हिजयान में बकता हूं मैं इन्साफ! इन्साफ!
कुछ कहा जाये न मुझ से न सुना जाये मुझे.
अनीस अंसारी
स्त्रोत : कविता कोष
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