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फसलों में परागण हेतु भंवरे की उपयोगिता

भंवरा एक वन्य कीट है जो कृत्रिम परपरागण क्रिया में सहायक है। विदेशों जैसे कि यूरोप, उत्तर अमरीका, हालैंड, चीन, जापान, तुर्की, कोरिया आदि में भंवरा पालन बड़े पैमाने में व्यावसायिक तौर पर किया जाता है। मुख्यः इसका प्रयोग सयंत्रित प्रक्षेत्रों (हरितगृह) में फसलों के परपरागण हेतु उनकी उत्पादन एवं गुणवत्ता के स्तर को बढ़ाने के लिए किया जाता है। फसलें जैसे कि टमाटर, तरबूज, सेब, नाशपाती, स्ट्राबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी,कीवी इत्यादि में अच्छे उत्पादन के लिए परपरागण क्रिया पर निर्भर करती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि इन फसलों की पूर्ण एवं पर्याप्त स्तर पर परागण क्रिया हो।

भंवरा एक वन्य कीट है जो कृत्रिम परपरागण क्रिया में सहायक है। विदेशों जैसे कि यूरोप, उत्तर अमरीका, हालैंड, चीन, जापान, तुर्की, कोरिया आदि में भंवरा पालन बड़े पैमाने में व्यावसायिक तौर पर किया जाता है। मुख्यः इसका प्रयोग सयंत्रित प्रक्षेत्रों (हरितगृह) में फसलों के परपरागण हेतु उनकी उत्पादन एवं गुणवत्ता के स्तर को बढ़ाने के लिए किया जाता है। फसलें जैसे कि टमाटर, तरबूज, सेब, नाशपाती, स्ट्राबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी,कीवी इत्यादि में अच्छे उत्पादन के लिए परपरागण क्रिया पर निर्भर करती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि इन फसलों की पूर्ण एवं पर्याप्त स्तर पर परागण क्रिया हो।

मधुमक्खी से है बेहतर- भंवरे सुबह 4.30 बजे से सायं करीब 7.30 बजे तक काम करते हैं। भंवरे दिन में 12 से 14 घंटे काम करते हैं। भंवरा एक वन्य कीट है जो कृत्रिम परपरागण क्रिया में सहायक है। कृत्रिम परागण पॉलीहाउस फसलों टमाटर, खीरा, बैंगन, तरबूज, सेब, नाशपाती, स्ट्राबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी, किवी, कद्दू, चेरी में कारगर साबित हो रहा है। यह आवश्यक हो जाता है कि इन फसलों की पूर्ण एवं पर्याप्त स्तर पर परागण क्रिया हो। भंवरा अपने विशेष गुणों से मधुमक्खियों की अपेक्षा अधिक निपुणता से परागण क्रिया करता है।

उपयोगिता : भंवरा अपने विशेष गुणों जैसे कि ठंडे तापमान पर परपरागण क्रिया, लंबी जिव्हा, कम जनसंख्या, अधिक बालों वाले शरीर आदि के कारण मधुमक्खियों की अपेक्षा अधिक निपुणता से परागण क्रिया करता है। इसलिए हरितगृह में भंवरे अधिक निपुण परागकीट माने गए हैं। 

भारत में भंवरा पालन की शुरुआत सन् 2000 में डा. वाईएस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग में की गई। कड़ी मेहनत के पश्चात भंवरा पालन तकनीक इजात की गई, जिसमें वसंत के आगमन पर भंवरा रानियों को जाली की मदद से एकत्रित करके प्रयोगशाला में लाया जाता है जहां इन रानियों को लकड़ी के डिब्बों  में रखा जाता है। रानियों को खाने के लिए 50 प्रतिशत सुकरोस/चीनी का घोल एवं मधुमक्खियों द्वारा एकत्रित परागण एक छोटे ढक्कर (लोहे अथवा प्लास्टिक के) में डालकर दिया जाता है। इन डिब्बों को 65-70 प्रतिशत आर्द्रता एवं 25-280 सेल्सियस तापमान में अंधेरे कक्ष अथवा इनक्यूबेटर में रखा जाता है। कुछ दिन पश्चात  रानी भंवरा मक्खी अपने शरीर की मोम ग्रंथियों से मोम निकालकर कोष्ठक बनाती है, जिनमें लगभग 2-4 अंडे देती है और उन्हें सेकती है।

अंडे 36-72 घंटों बाद फूटते हैं, जिनसे सफेद रंग के सुंडीनुमा शिशु निकलते हैं। रानी मक्खी इन शिशुओं को परागणकण एवं चीनी को मिलाकर प्रतिदिन भोजन के तौर पर देती है। शिशु मोम से बने कोष्ठ में ही बड़े होते हैं और लगभग 26-33 दिनों में व्यस्क भंवरा मक्खी बनकर कोष्ठ से बाहर निकलता है। भंवरा पालने की यह तकनीक सन् 2011 तक इसी तरह चलती रही। इस तकनीक में यह खामी थी कि जैसे ही वर्षा ऋतु शुरू होती, भंवरा वंश भी समाप्त होने लगते, जिसके कारण भंवरा पालन केवल 4-5 महीने फरवरी-मार्च से जुलाई-अगस्त तक होता था। पुरानी विधि के अनुसार ही भंवरा पालन शूरू किया गया और फिर जब भंवरा वंशों में जनसंख्या 10-25 भंवरे प्रति वंश/कालोनी हो जाती है तो उन्हें प्राकृतिक वातावरण में मिट्टी के बनाए गए डिब्बों या लकड़ी के डिब्बे जो मधुमक्खी पालन में प्रयोग किए जाते हैं, में स्थानांतरित किया जाता है। पहले कृत्रिम खुराक दी जाती है। थोड़े ही समय में (3-8 दिन) भंवरे प्राकृतिक तौर पर भोजन इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। कुछ ही दिनों में भंवरा कालोनियों में शिशु पालन बढ़ने लग जाता है और वंश प्राकृतिक तौर पर आत्मनिर्भर हो जाते हैं।

हेमंत ऋतु के आगमन पर कालोनी में नई रानियां और ड्रोन निकलते हैं। इन रानियों और ड्रोन मक्खियों को कालोनी से निकाल कर प्रयोगशाला में कृत्रिम तरीके से संभोग करवाकर, प्रजनन हेतु नियंत्रित वातावरण में (65-70 प्रतिशत आर्द्रता एवं 25-280 सेल्सियस पर) रख कर पाला जाता है। इन्हें परागण एवं चीनी का घोल भी दिया जाता है।

इसी तरह मार्च, 2004 में देश में पहली बार सालभर भंवरा पालन सफलतापूर्वक किया गया। प्रयोग के दौरान यह पाया गया कि भंवरा पालन मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से साल भर नहीं पाता है जैसे कि-

1. भवंरा कालोनियों को वर्षा ऋतु से पहले बाहर स्थानांतरित नहीं किया जाना, जिस कारण प्रतिकूल वातावरण  बन जाता है जो कि भंवरा कालोनियों में शिशु पालन क्रिया को बाधित करता है।

2. कई रोग (नोसीमा) और कीट भंवरा पालन में बाधा बनते हैं अतएव उनका समय पर निरीक्षण करके उपचार करना चाहिए।

3. मोमी पतंगा भंवरा कालोनियों का बहुत गंभीर शत्रु है, जिसकी उपस्थिति में रानी भंवरा मक्खी शिशु पालन क्रिया ठीक प्रकार से नहीं कर पाती, क्योंकि मोमी पतंगें की सुंडियां मोम कोष्ठक में नीचे से प्रवेश करके मोम खाती हैं और फिर भंवरा शिशु को भी खाने लगती हैं।

अनुसंधान से यह सामने आया कि रानी मक्खी को शरद ऋतु में यदि अनुकूल वातावरण में रखा जाए तो वह शीत निद्रा में नहीं जातीं और शिशु पालन शूरू कर देती हैं, जिस के कारण भंवरा पालन साल भर किया जा सकता है।

English Summary: The usefulness of the whirlpool for pollination in crops Published on: 02 September 2017, 07:58 IST

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