Tips For Plum Cultivation in India: बेर के वृक्ष का वानस्पतिक नाम Ziziphus mauritiana ( जिजिफस मौरिशियाना) है. बेर के फल में कई प्रकार के पोषक तत्वों पाए जाते हैं और बेर का टेस्ट खट्टा और मीठा होता है. बेर का फल हर किसी को पसंद है, लेकिन क्या आप जानते हैं की इसके फायदे भी अनेकों है. जी हां, बेर का टेस्ट जितना स्वादिष्ट होता है उतना ही ये हमारे हेल्थ के लिए भी लाभकारी माना जाता है. जब बेर के फल कच्चे होते हैं, तो हरे रंग के होते हैं और जब ये पक जाते हैं तो इसका रंग थोड़ा थोड़ा लाल होने लगता है. बेर का फल विटामिन और खनिजों से भरा पड़ा है. इस फल में मैग्नीशियम, विटामिन और कैल्शियम जैसे गुण भरपूर मात्रा में पाया जाता है. बेर में टार्टरिक और सक्सीनिक जैसे कुछ जैविक अम्ल भी पाया जाता है. मुख्य रूप से बेर के वृक्ष अमूमन शुष्क और अर्द्धशुष्क जैसे क्षेत्रों में ज्यादातर उगाए जाते हैं.
बेर के फलों का सड़ना एक बड़ी समस्या
ऐसा माना जाता है कि इस प्रजाति की उत्पत्ति दक्षिण-पूर्व एशिया के इंडो-मलेशियाई क्षेत्र में हुई थी. वर्तमान मे यह दक्षिणी अफ्रीका से मध्य पूर्व से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप, चीन, इंडोमालय, आस्ट्रेलिया और प्रशांत द्वीप समूह में पुरानी दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाया जाता है. यह मध्यम उम्र के साथ तेजी से बढ़ने वाला पेड़ है, जो जल्दी से 10 से 40 फीट (3 से 12 मीटर) तक लंबा हो सकता है. भारतीय उपमहाद्वीप मे यह कम तापमान के समय फल देता है, इसकी कुछ प्रजातियां अक्टूबर मे फल दे देते हैं, जबकि कुछ फरवरी से अप्रैल तक फल देते हैं. भारत बेर उत्पादन देशों मे सबसे अग्रणी है इसके अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश व कुछ अफ्रीकी देशों मे भी बेर का अच्छा उत्पादन होता है.
हमारे देश में भी आजकल बेर के फलों की खेती बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. बेर की कुछ प्रजातियां जैसे एप्पल बेर के फल बड़े एवम बहुत ही आकर्षक लगते हैं. बेर के फलों के सड़ने की समस्या दिनों दिन बढ़ते जा रही है, इस समस्या को पहचान करके समय से प्रबंधित करना बहुत जरूरी है. बेर के फलों के सड़ने की समस्या का कारण एक से अधिक रोग कारक है जैसे....
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फोमा फ्रूट रोट (Phoma Fruit rot)
यह रोग पकने वाले फल पर दिखाई देता है. संक्रमित फल छोटे रहते हैं और तने के सिरों के पास हल्के दबे हुए, गहरे भूरे रंग के धब्बे विकसित हो जाते हैं. घाव आकार में अनियमित हो जाते हैं और व्यास में 15 से 25 मिली मीटर तक हो सकते हैं. कवक पौधे के अवशेषों में जीवित रहता है, जो संक्रमण का प्राथमिक स्रोत है.
अल्टरनेरिया फ्रूट रोट (Alternaria Fruit rot)
फल पर हल्के दबे हुए, भूरे से गहरे भूरे रंग के गोलाकार घाव दिखाई देते हैं. कभी-कभी इन धब्बों पर संकेंद्रित वलय भी उपस्थित होते हैं. छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बे बनाते हैं.
कवक मलबे और मिट्टी में जीवित रहता है मिट्टी को छूने वाले फल संक्रमित हो जाते हैं और रोग बाद में हवा के माध्यम से बीजाणुओं के प्रसार से फैलता है.
कोलेटोट्राईकम फ्रूट रॉट (Colletotrichum Fruit rot)
यह रोग फल के पकने की शुरुआत में छोटे, थोड़े उदास, हल्के भूरे, पानी से भरे घावों के रूप में प्रकट होता है. ये धब्बे आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं. आर्द्र परिस्थितियों में, इन स्थानों पर एकरवुली बड़े पैमाने पर बनते हैं. मृतपरजीवी (सैप्रोफाइटिक) होने के कारण रोगज़नक़ मिट्टी में, मलबे के साथ, लंबे समय तक जीवित रहता है. यह संक्रमण का प्राथमिक स्रोत बन जाता है. बीजाणु हवा में मौजूद होते हैं और संक्रमण के द्वितीयक स्रोत के रूप में कार्य करते हैं और बारिश की बूंदों से फैलते हैं.
ट्राइकोथेशियम फ्रूट रॉट (Trichothecium Fruit rot)
बीमारी वसंत के दौरान फलों पर गुलाबी धब्बों के रूप में देखी जाती है. कवक लंबे समय तक मिट्टी में जीवित रह सकता है. मिट्टी को छूने वाले फल संक्रमित हो सकते हैं और उनमें लक्षण विकसित हो सकते हैं.
क्लैडोस्पोरियम फ्रूट रोट (Cladosporium Fruit rot)
यह रोग फलों के पकने के समय के करीब प्रकट होता है. क्षतिग्रस्त फल संक्रमित हो जाते हैं. रोग के लक्षण फल के सिरे से शुरू होकर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. बाद में इन धब्बों पर हरे रंग की कवकीय वृद्धि भी देखी जाती है. यह हवा में मौजूद बीजाणुओं से भी फैलता है. कवक के बीजाणु पौधे के मलबे और मिट्टी में जीवित रहते हैं, जो संक्रमण के प्राथमिक स्रोत हैं.
बेर में लगने वाले फल सड़न रोगों को कैसे करें प्रबंधित?
बेर के फलों की उपरोक्त समस्या को कम करने के लिए आवश्यक है की साफ सुथरी खेती की जाय. फल की तुड़ाई के बाद सूखी एवम रोगग्रस्त टहनियों की कटाई छटाई भी करना आवश्यक है. हर कटाई छटाई के बाद ब्लाइटॉक्स 50 तीन ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए. जिन बागों में फलों की समस्या अधिक हो वहा पर फल के पूरी तरह से लग जाने के बाद साफ़ नामक फफूंद नाशक की 2 ग्राम मात्रा की प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए. रोग की समस्या के ज्यादा होने पर इसी दवा का पुनः छिड़काव करना चाहिए लेकिन फल तुड़ाई के 15 दिन पहले किसी भी प्रकार का कोई भी कृषि रसायन का छिड़काव नही करना चाहिए.
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