पपीता एक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट फल है। पपीते के फल में विभिन्न पौष्टिक तत्व जैसे - प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, कैल्सियम, सोडियम व विटामिन ए, बी, सी पाये जाते है। पपीते में औषधीय गुण होता है एवं आम के बाद फलों में विटामिन ’ए’ का सर्वोत्तम स्त्रोत है, जो कि आँखों की रोशनी के लिए महत्वपूर्व होता है। इसके फलों का निरंतर सेवन करने से पेट संबन्धित बीमारियाँ दूर होती है। पपीते में पपेन नामक पाचक एंजाइम पाया जाता है जिसका उपयोग कई प्रकार की दवाएं बनाने में काम आता है। भारत में पपीते की खेती लगभग 132 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे कि लगभग 5667 मैट्रिकटन प्रति वर्ष उत्पादन प्राप्त होता है। पपीता के फल से जैम, जैली, फ्रूटी, आदि बनाए जाते है। पपीता 9-10 महीने में तैयार हो जाने वाला फल है, और उत्पादन भी अधिक होता है इसलिए इसकी खेती किसानों में काफी प्रचलित हो रही है। भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से बिहार, असम, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश में की जाती है। पपीते की खेती करते समय कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए जिससे की फसल को किसी तरह का कोई नुकसान न पहुँचे उत्पादन अधिक हो जिससे कि आर्थिक लाभ हो।
जलवायु :
पपीते के सफल उत्पादन के लिये गर्म एवं नमी युक्त जलवायु अच्छी मानी जाती है। कम तापमान पौधे की बढ़वार और फल विकास को प्रभावित करता है जिसके कारण फल की मिठास और स्वाद प्रभावित होता है। फल परिपक्वता के समय शुष्क मौसम फलों के मिठास को बढ़ाता है। पपीता के फलोत्पादन के लिये 21-26 डिग्री सेल्सियस तापमान अच्छा माना जाता है। पपीते के लिये पाला हानिकारक होता है।
भूमि :
पपीते की खेती के लिये दोमट भूमि सबसे अच्छी मानी जाती है जिसमें की कार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में होना चाहिए। भूमि का पी.एच. मान 6.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। खेत समतल होना चाहिए एवं खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि जलभराव की स्थिति में रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है।
प्रजातियाँ :
पूसा नन्हा, पूसा ड्वार्फ, कूर्ग हनीड्यू, पूसा डेलिसियस, पूसा मेजस्टी, सोलों, वांशिगटन, कोयम्बटूर-2, कोयम्बटूर-3, कोयम्बटूर-5, रेड लेडी, सूर्या, ताईवान आदि।
खेत की तैयारी :
खेत का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि खेत में जलनिकास की समुचित व्यवस्था हो। जलभराव वाली जगह पर पपीता का रोपण नहीं करना चाहिए। पौधरोपण करने से पहले खेत को मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 बार जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिए।
नर्सरी की तैयारी :
एक हैक्टेयऱ क्षेत्र की पौध तैयार करने के लिए लगभग 100 वर्ग मी. का स्थान का चुनाव करें। उसके बाद 5 मीटर लम्बी और 1 मीटर चैड़ी क्यारियों को बना लेना चाहिए और क्यारियों की ऊँचाई जमीन से लगभग 15-20 सेमी. रखनी चाहिए। इन क्यारियों में बीज बोने से पहले क्यारियों से कंकड़, पत्थर, खरपतवार आदि अशुद्धियों को हटा देना चाहिए तथा क्यारियों को 25 प्रतिशत फार्मल्डिहाइड से उपचारित करना चाहिए। इसके बाद अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, रेत तथा मिट्टी को बराबर मात्रा में मिलाकर मिश्रण तैयार कर अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने के बाद क्यारियों को बनाना चाहिए। तैयार क्यारियों में बीज को 10-15 सेमी. की दूरी पर तथा 1-2 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए। पाॅलीथीन में पौध तैयार करने के लिये 200 गेज की 20ग25 से.मी. आकार की थैलियों का उपयोग करना चाहिए। थैलियों में नीचे की ओर छेद कर देते हैं तथा उसके बाद गोबर की खाद, रेत, पत्ती की खाद, एवं मिट्टी को बराबर अनुपात में मिलाकर मिश्रण तैयार करके थैलियों में भर दिया जाता है। तैयार थैलियों में 1-2 बीजों को बोया जाता है। रोपाई के 15-20 दिनों में बीजों में अुकरण हो जाता है। जब पौधे 4-5 पत्ती के अथवा 15-20 सेमी. के हो जाये तब उन्हें मुख्य खेत में रोपा जाता है।
बीज की मात्रा :
250-300 ग्राम बीज एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है।
बीजोपचार :
पपीते के बीजो को कैप्टान नामक दवा से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
बुवाई का समय :
पपीते की नर्सरी तैयार करने के लिये बीज को जुलाई-अगस्त माह में बोना चाहिए।
पौध रोपण :
जब पौधे 4-6 सप्ताह के हो जाये तो पौधों की रोपाई कर देना चाहिए। पौधे से पौधे की दूरी प्रजाति के अनुसार रखनी चाहिए। बौनी प्रजाति के पौधों की दूरी 1.25×1.25 वर्गमीटर रखनी चाहिए तथा लम्बी प्रजाति के पौधों की दूरी 2×2 वर्गमीटर रखनी चाहिए। पौधों की रोपाई से 15-20 दिन पहले 50×50×50 सेमी. का गढ्ड़ा बना लेना चाहिए और प्रति गड्डे़ में लगभग 20 किलोग्राम गोबर की खाद डाल देनी चाहिए। नीम की खली 1 किलोग्राम प्रति गड्डे की दर से डालना चाहिए जिससे सूत्रक कृमि रोग से बचा जा सकता है। पौध रोपण के समय गड्डों में क्लोरोपाइरीफास नामक दवा का छिड़काव करना चाहिए। जिससे कि दीमक से होने वाले हानिकारक प्रभाव से बचाव किया जा सके।
खाद एवं उर्वरक :
पपीता जल्दी फल देने वाली फसल है तथा इसे अधिक पोषक तत्वों की आवश्यक होती है। क्योंकि पपीता एक बार फलने के बाद लगातार फल उत्पादन करता रहता है। इसीलिए यह भूमि से अधिक मात्रा में पोषक तत्वों को ग्रहण करता है। पौधों को वर्ष भर में 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फास्फोरस एवं 500 ग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है। साथ ही पौधों को 50 ग्राम सल्फर, 50 ग्राम बोरान तथा 2.5 किग्रा वर्मीकम्पोस्ट प्रति पौधे की दर से देना चाहिए। नाइट्रोजन का प्रयोग 2-3 बार में करना चाहिए तथा फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग शुरू में एक ही बार करना चाहिए।
सिंचाई :
सिंचाई भूमि में नमी की कमी को देखते हुये करनी चाहिए। सामान्यतः गर्मियों के दिनों में 4 से 6 दिन के अंतराल पर तथा सर्दियों में 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई के लिए थाला को बनाना चाहिए। सर्दियों के समय में अधिक पाला पड़ने पर सिंचाई तुरंत करनी चाहिए जिससे कि पपीते की फसल को पाले से नुकसान न पहुँचे।
खरपतवार नियंत्रण :
पपीते की फसल में हैड हो और खुरपी की सहायता से समय-समय पर निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिये ग्लाईफोसेट 1-2 किलोग्राम दवा / हैक्टेयर की दर से उपयोग करना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण के समय पौधों के तनों पर मिट्टी को चढ़ा देना चाहिए जिससे कि तनों में लगने वाले रोग से बचा जा सकता है।
फलों की तुड़ाई :
9 से 10 महीने के बाद फल तैयार होने लगते है। फलों पर नाखुन लगाने पर दूध की जगह पानी निकले तो समझ लेना चाहिए कि फल तोड़ने के लिए तैयार है।
उत्पादन :
पपीते का उत्पादन 30-40 टन प्रति हैक्टेयर होता है जोकि कि प्रजाति के ऊपर भी निर्भर करता है।
प्रमुख रोग एवंकीट नियंत्रण :
प्रमुख रोग :
आर्द्र गलन :
यह पौधशाला में लगने वाला गम्भीर रोग है। जिसका प्रभाव नये अंकुरित पौधों पर होता है पौधे का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और पौधे मुरझाकर गिर जाते है।
प्रबन्धन :
1. पौधशाला की मिट्टी का उपचार बीज बोने के पहले फार्मालिन के 5 प्रतिशत घोल से करना चाहिए तथा 48 घंटे के लिए बोरे से ढ़क देना चाहिए।
2. बीज कोकैप्टान या थीरम नामक दवा से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
3. लक्षण दिखाई देने पर मेटालैक्सिल और मेन्कोजेब के मिश्रण को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
तना एवं जड़ गलन :
इस रोग मे तने पर जलीय धब्बे दिखाई पड़ते है। पौधे की पत्तिया मुरक्षाकर पीली पड़ जाती है तथा पौधे सूखकर गिर जाते है।
प्रबन्धन :
1. खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
2. पौधों की जड़ों के पास डायथेन एम-45 का 0.2 प्रतिशत अथवा बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत के घोल से जड़, तना, तथा आसपास की मिट्टी अच्छी तरह भिगो देना चाहिए।
3. पौधों के तने पर मिट्टी चढ़ाना चाहिए जिससे जड़ों के पास पानी नहीं जमता है।
पर्ण कुंचन रोग :
यह पपीते का गम्भीर विषाणु रोग है। सफेद मक्खी के कारण यह रोग पूरे खेत में फैल जाता है। इस रोग के कारण पत्तियाँ मुड़ जाती है, आकार छोटा हो जाता है और पत्तियाँ गुच्छानुमा हो जाती है।
प्रबन्धन :
1. रोगी पौधे को उखाड़कर मिट्टी में दबा दें।
2. सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए डाइमेथोएट 1 मिली/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
प्रमुख कीट :
पपीते की फसल में मुख्य रूप से सफेद मक्खी, माहू तथा माइट आदि का प्रकोप काफी होता है।
नियंत्रण :
इन कीटों के नियंत्रण के लिये मेटासिस्टाक्स नामक दवा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
डा. अमित कनौजिया 1, दूरभाष - 7000041406, ईमेल - [email protected]
अंकित कुमार गोयल 2, डा. राजीव कुमार सिंह 1, नुपुर जायसवाल 3,
1. कृषि विज्ञान केंद्र, जालौन, उत्तर प्रदेश
2. उद्यान विभाग, बाबा साहेब भीव राव आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
3. स्कूल आफ एग्रीकल्चर, आई.टी.एम. विश्वविद्यालय, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
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