कृषिवानिकी पद्धति को अपनाकर देश में बेकार पड़ी हुई जमीन का उपयोग भली-भांति कर सकते हैं. इस प्रणाली से किसान अपने ही खेत से विभिन्न प्रकार की आवश्यकता की वस्तुएं जैसे इमारती लकड़ी, ईधन, कृषि यंत्र के लिए लकड़ी, हरा चारा, रेशम, शहद, अन्न, फल तथा कुटीर उद्योग हेतु कच्चा माल आदि प्राप्त कर सकते हैं. कृषिवानिकी पद्धति से नाइट्रोजन स्थिर करने वाले पेड़ां जैसे सुबबूल, अंजन, शीशम, सिरम, नीम, बबूल आदि को लगाकर भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है. दलहनी फसलों एवं वृक्षों की पत्तियों के द्वारा जीवांश पदार्थ को अधिक से अधिक मात्रा में भूमि में मिलाकर उर्वरा शक्ति में वृद्धि की जा सकती है. इसके साथ ही साथ रासायनिक खाद की मात्रा को कम किया जा सकता है. कृषिवानिकी पद्धति से भूमि का उपयोग बढ़ जाता है तथा फसल उत्पादन में होने वाले जोखिम घटते जाते है.
कृषिवानिकी जमीन के प्रबंधन की ऐसी पद्धति है, जिसके अंतर्गत एक ही भू-खण्ड पर कृषि फसलों और बहुउद्देशीय पेड़ों/झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता है. कृषिवानिकी पद्धति से जमीन की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जाता है. सीधे शब्दों में फसलों के साथ वृक्ष (फलदार, इमारती, ईधन वाले) उगाने की पद्धति को कृषिवानिकी कहते हैं.
कृषिवानिकी पद्धतियां
कृषिवानिकी की निम्नलिखित प्रमुख पद्धतियां प्रचलित है. किसान अपनी सुविधा के अनुसार पद्धतियां अपना सकते हैं.
1. कृषि-वन पद्धतिः इस पद्धति में कृषि फसलों के साथ-साथ चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ों को लगाते हैं.
2. कृषि-उद्यानिकी पद्धतिः इस पद्धतिः में कृषि फसलों के साथ फलदार पेड़ों को लगाते हैं.
3. कृषि-वन-उद्यानिकी पद्धतिः इसमें फसलों के साथ-साथ फलदार तथा चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी प्रदान करने वाले वृक्षों को उगाया जाता है.
4. वन-चारागाह पद्धतिः इस पद्धति में चारा प्रदान करने वाली घासों, दलहनी चारों के साथ-साथ वृक्षों को लगाते हैं. यह पद्धति ऐसी जमीन पर करते हैं जहां खेती (फसलें) नहीं की जा सकती हों.
5. उद्यानिकी-चारागाह पद्धतिः इसमें चारा प्रदान करने वाली घासों के साथ-साथ फलदार वृक्षों को लगाते हैं. इसी पद्धति को बेकार पड़ी जमीन पर अपनाते हैं.
6. कृषि-वन-चारागाह पद्धतिः इस पद्धति में खेती योग्य जमीन में वृक्षों के साथ-साथ जमीन के कुछ हिस्सों में कृषि फसलें तथा कुछ भाग में चारा वाली घासां को लगाते हैं.
7. कृषि-उद्यानिकी-चारागाह पद्धतिः इस पद्धति में खेती योग्य जमीन में फलदार वृक्षों के साथ-साथ कृषि फसलें तथा जमीन के कुछ हिस्सों में चारा प्रदान करने वाली घासां को लगाते हैं.
8. मेड़ (बाउंड्री) वृक्षारोपण : इस पद्धति में खेती योग्य जमीन पर खेत के चारों तरफ वृक्षां को लगाते हैं.
जीविकोपार्जन में कृषिवानिकी का योगदान :-
कृषिवानिकी प्रबंधन से किसानां को स्वरोजगार के साधन प्राप्त होते हैं जिससे उनमें आत्मनिर्भता आती है. कृषिवानिकी से साल भर कुछ न कुछ कार्य मिलता रहता है. जैसे पौधशाला की देख-रेख, पौधरोपण, कलम बांधना, निराई-गुड़ाई, रोग तथा कीड़े से बचाव हेतु दवा का छिड़काव, फलां की तुड़ाई, डिब्बाबंदी, बाजार में विपणन, गड्ढा खोदना, गोबर तथा कम्पोस्ट खाद गड्ढों में डालना, गोंद, छाल, पेड़ों की बीज, तथा ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करना आदि. इस तरह कृषिवानिकी से स्वरोजगार के साधन प्राप्त होते हैं. इसके साथ-साथ कुटीर उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति भी किसानों द्वारा की जाती है, जिससे उनमें आत्मनिर्भरता प्राप्त होती है. इस प्रकार कृषिवानिकी के प्रबंधन में किसानों के खाली समय को उपयोग में लाया जा सकता है.
महिलाओं की सहभागिता
कृषिवानिकी द्वारा मौसम की विपरीत परिस्थितियां में भी फसल न आने पर फलों एवं बहुपयोगी वृक्षों से आय के रूप में ईंधन, फल, इमारती लकड़ी, चारा तथा कुटीर उद्योग हेतु सामग्री के रूप में ग्रामीण महिलाओं को रोजगार के अवसर मिलते हैं. ग्रामीण महिलाएं ईंधन की लकड़ी की कमी के कारण गोबर का इस्तेमाल कंउे बनाकर करती है. अगर ईंधन के रूप में प्रयोग होने वाले गोबर का प्रयोग खाद के रूप में इस्तेमाल हो सके तो प्रतिवर्ष 2 करोड़ टन अन्न अधिक उपज मिल सकती है. गांवों में 80 प्रतिशत ऊर्जा जलाऊ लकड़ी से मिलती है.
महिला स्वयं सहायता समूह
गांव स्तर पर महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाने होंगे, जिसके द्वारा ग्रामीण महिलाएं कुटीर उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण योगदान देती है. महिलाएं कुषिवानिकी उपज इकट्ठा कर कुटीर उद्योगां जैसे कागज उद्योग, रबर उद्योग, मोम उद्योग, शहद, फर्नीचर, कृषि यंत्र हेतु लकड़ी, लाख, रंग एवं वार्निश, कत्था, छालें बांस की टोकरियां, जड़ी-बूटियां तथा फल संरक्षण आदि के कार्यों में पूरा योगदान देती हैं. अतः ऐसे कार्यक्रमों के प्रबंधन में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी से इन कुटीर उद्योगों का तो विकास होगा ही साथ ही साथ ग्रामीण महिलाओं को रोजगार के अवसर मिलेंगे.
कृषिवानिकी हेतु बहुउपयोगी वृक्ष एवं उनकी उपयोगिता
1. विलाइती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफलोरा) : जलाऊ लकड़ी, कोयला, फलियां से चारा, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
2. इजराइली बबूल (एकेसिया टारटीलिस)ः जलाऊ लकड़ी नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
3. हल्दू (एडिना र्कार्डफोलिया)- कृषि औजार, जलाऊ लकड़ी.
4. काला सिरस (अल्बिजिया अमारा) : जलाऊ व इमारती लकड़ी, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
5. सफेद सिरस (अल्बिजिया प्रोसेरा): कृषि औजार, बल्लियां, चारा, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
6. नीम (एजाडिरेक्टा इंडिका): जलाऊ व इमारती लकड़ी चारा, औषधि एवं तेल.
7. सेमल (सिवा पेटेन्ड्रा): फलियां, माचिस उद्योग रेशा एवं गांद.
8. केजुरिना (केजुरिना स्पीसीज): जलाऊ लकड़ी, वायु अवरोधक, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
9. बांस (बेम्बूसा स्पीसीज): पशु चारा, घरेलू कार्य, घर निर्माण, मृदा संरक्षण.
10. महुआ (मधुका लेटिफोलिया): बैलगाड़ी के पहिए, नाव निर्माण, फल-फूल, औषधि एवं बीज का उपयोग तेल व खली.
11. बकायन (मेलिया अजाडेरक): पशु चारा, जलाऊ लकड़ी.
12. खैर (एकेसिया कटेचू): जलाऊ व लघु इमारती लकड़ी नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
13. बबूल (अकेसिया निलोटिक) :लकड़ी गोंद, पशु चारा, कृषि और, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
14. शीशम (डलबरजिया स्पीसिज) : पशु चारा, फर्नीचार हेतु लकड़ी, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
15. सुबबूल (ल्यूसिना ल्यूकोसिफेला)ः जलाऊ व लघु इमारती लकड़ी, नाइट्रोजन स्थिरीकारक, चारा.
16. खेजरी (प्रोसोपिस ज्यूलीफलोरा) : लघु इमारती लकड़ी, पशु चारा.
17. देशी सिरस (अल्बिजिया लेबेक) :जलाऊ लकड़ी, कृषि औजार, चारा, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
18. अंजन (हार्डविकिया वाइनाटा)ः पशु चारा, इमारती लकड़ी, नाइट्रोजन स्थिरीकारक.
19. करधई (डाइक्रोसटेकिस साइनेरिया) : जलाऊ लकड़ी, कृषि औजार, मृदा संरक्षण, पशुचारा.
कृषिवानिकी के लाभ
1. कृषि उत्पादन को सुनिश्चित करना एवं खाद्यान्न को बढ़ाना.
2. मृदा क्षरण में नियंत्रण.
3. भूमि सुधार.
4. ईंधन एवं इमारती लकड़ी की आपूर्ति करना.
5. कुटीर उद्योगों को बढ़ाने के लिए अधिक साधन जुटाना एवं रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करना.
6. पर्यावरण की सुरक्षा.
7. पशुओं के लिए साल भर अच्छे गुणों वाले चारे प्रदान कर उनकी उत्पादन क्षमता को बढ़ाना.
8. ऊसर एवं बीहड़ भूमि का सुधार करना.
9. फलों के उत्पादन को बढ़ाना.
10. जलाऊ लकड़ी की आपूर्ति करके गोबर को ईंधन के रूप में प्रयोग करने से रोकना तथा इसे खाद के रूप में उपयोग करना.
कृषिवानिकी हेतु उपयुक्त फलदार वृक्ष वृक्ष का नाम व उपयोगिता.
1. आवला (इम्बलिका ओफिसिनेलिस): मध्य आकार वाला औषधीय फल, त्रिफला का महत्वपूर्ण घटक, जलाऊ लकड़ी.
2. बेर (जिजिफस मोरिशियाना): मध्यम आकार, जलाऊ लकड़ी, पशुचारा, पौष्टिक फल.
3. सीताफल (एनोना एसक्यूमोसा): मध्यम आकार, जलाऊ लकड़ी, पौष्टिक फल.
4. शहतूत (मोरस एल्वा): मध्यम आकार, कीट पालन हेतु उपयोगी, स्वादिष्ट फल.
5. बेल (एगल मारमिलस): मध्यम आकार वाला औषधिय फल, लघु इमारती लकड़ी.
6. फालसा (ग्रीविया एसीयाटिका): मध्यम आकार वाला औषधीय फल.
7. शहजन (मोरिन्गा ओलिफेरा): मध्यम आकार, पतझड़ फल, औषधीय तथा सब्जी.
8. आम (मेन्जिफेरा इंडिका): बड़ा आकार, फल, जलाऊ व इमारती लकड़ी.
9. जामुन (सिजाइजियम क्यूमिनी): बड़ा आकार, सदाबहार, फल, जलाऊ लकड़ी, बीज व छाल.
10. इमली (टमरिन्डस इंडिया): बड़ा आकार, फल, पशुचारा, इमारती लकड़ी.
11. कटहल (आर्थोकार्पसहेट्रोफिलस): बड़ा आकार, फल एवं सब्जी.
12. चिरोंजी (वकनानिया लंजन) : मध्यम आकार, फल तथा लकड़ी.
कृषिवानिकी पद्धति वाले क्षेत्र
कृषिवानिकी पद्धतियां प्रवेश/ राज्य
पारंपरिक कृषिवानिकी पद्धतियां
उत्तिस (अलनस नेपालेनसिस) आधारित फल आधारित--- उत्तरपूर्वी राज्य- सिक्किम, नागालैण्ड, अरूणाचल प्रदेश हिमालय क्षेत्र
खेजरी (प्रोसोपिस सिनेरिया) आधारित--- राजस्थान, गुजरात के कुछ भाग में
भीमल (ग्रेविया ऑप्टिवा) आधारित --- उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश अन्यः महुआ (मधुका लेटिफोलिया) --- मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़, बिहार,
नीम (अजेडिरक्ट इंडिका), --- झारखंड शीशम (डलवर्जिया शिश) आदि
वाणिज्यिक (शीघ्र आमदनी हेतु) कृषिवानिकी पद्धतियां
पॉपुलर (पापूलस डेलट्वाइडस) आधारित--- हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश यूकेलिप्टस (यूकेलिप्टस प्रजाति) आधारित--- हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश,तमिलनाडू, कर्नाटक
सुबबूल (ल्यूसिना ल्यूकोसिफैला) आधारित--- महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश
अरडू-महारूख (आइलेन्थस एक्सेल्सा) आधारित --- राजस्थान, गुजरात,
आंवला (इम्बिलिका आफिसिनेलिस) आधारित--- उत्तर प्रदेश एवं अन्य अर्धशुष्क क्षेत्रों में
कृषिवानिकी के लिए जरूरी बिंदु
1. वृक्षों की बढ़वार तेजी से हो.
2. बार-बार कटाई-छंटाई की सहन शक्ति हो.
3. पेड़ों की जडें गहरी जाने वाली हां, जिससे फसलों एवं पेड़ों को पोषक तत्व प्राप्त करने में स्पर्द्धा न हो.
4. वृक्ष का फैलाव कम हो, जिससे फसलों के उपर छाया का असर कम पड़े.
5. पेड़ में शाखायें कम निकलती हो.
6. पेड़ों का पतझड़ ऐसे समय में हो कि फसल के ऊपर हानिकारक प्रभाव न पड़े.
7. पत्तियां जमीन में गिरने के बाद मिट्टी में जल्दी सड़ जाएं.
8. पेड़ वायुमण्डलीय नाइट्रोजन स्थिर करने वाले हो, जिससे भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि हो सके.
9. पेड़ों की पत्तियों में पौष्टिक तत्व अधिक हो, जिससे जानवर खाएं.
10. वृक्षों का चुनाव करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले हों.
हेमन्त कुमार(पुष्प एवं भूदृश्य कला विभाग), डॉ. ओकेश चन्द्राकर (सब्जी विज्ञान विभाग), ललित कुमार वर्मा, सोनू दिवाकर (एम.एस.सी. प्रथम वर्ष)
पंडित किशोरी लाल शुक्ला उद्यानिकी महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, राजनांदगांव (छ.ग.)
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