मुंहपका-खुरपका रोग एक अत्यन्त सुक्ष्ण विषाणु जिसके अनेक प्रकार तथा उप-प्रकार है, से होता है. इनकी प्रमुख किस्मों में ओ,ए,सी,एशिया-1, एशिया-2, एशिया-3, सैट-1, सैट-3 तथा इनकी 14 उप-किस्में शामिल है. हमारे देश मे यह रोग मुख्यत: ओ,ए,सी तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है. नम-वातावरण, पशु की आन्तरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं. यह बहुत तेज़ी से फैलने वाला छुतदार रोग है जोकि गाय, भैंस, भेड़, ऊंट, सुअर आदि पशुओं में होता है. विदेशी व संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी अधिक गम्भीर रूप से पायी जाती है. यह बीमारी हमारे देश में हर स्थान में होती है हालांकि व्यस्क पशु में यह रोग साधारणतय जानलेवा नहीं होता लेकिन पशु पालक को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है. इस रोग से ग्रस्त पशु ठीक होकर अत्यन्त कमज़ोर हो जाते हैं. दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है तथा बैल काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते. शरीर पर बालों का आवरण खुरदरा होने से पशुओं में धुप को सहन करने की क्षमता कम हो जाती है.
रोग के लक्षण
रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डिग्री तक बुखार हो जाता है. वह खाना-पीना व जुगाली करना बन्द कर देता है. दूध का उत्पादन गिर जाता है. बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच तथा कभी-कभी थनों में छाले पड़ जाते हैं. ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं, जिससे पशु को बहुत दर्द होने लगता है. मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु कहां-पीना बन्द कर देते हैं जिससे वह बहुत कमज़ोर हो जाता है. खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा चलने लगता है. गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है. नवजात बच्छे/बच्छियां बिना किसी लक्षण दिखाए मर जाते है. लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं तथा कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं. इस रोग से पीड़ित पशु अन्य जीवाणु संक्रमित रोगो के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते है जिनमे से सबसे प्रमुख गल घोटु रोग है एवं प्राय व्यसक पशुओं की मृत्यु का कारण बनता है.
उपचार
इस रोग की अभी तक कोई दवा नहीं खोजी गई है. लेकिन बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है. प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करना चाहिए. मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी अर्थात 1 ग्राम फिटकरी 100 मिलीलीटर पानी में घोलकर दिन में तीन बार धोना चाहिए. इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए. रोगी पशु में अन्य जीवाणु संक्रमित रोगो के संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं.
रोग से बचाव
इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए. छोटे पशुओं में में पहला टीका 4 माह या अधिक की आयु में, दूसरा टीका पहले टीके के 1 महीने उपरांत और उसके बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीके लगाए जाने चाहिए. पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए. प्रत्येक पशु को 6 महीने की अवधि पे कृमिनाशक दवाई जैसे की फेनबेन्डाज़ोल, इवेरमेक्टिन आदि पशु चिकित्सक के परामर्श से देनी चाहिए. पशुओं को खनिज मिश्रण युक्त सम्पूर्ण चारा एवं साफ स्वच्छ पीने का पानी उपलब्ध करवाना चाहिए.
गल घोंटू
भारत में गाय तथा भैंस के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख जीवाणु रोग गलघोटू है जिससे ग्रसित पशु की मृत्यु होने की सम्भावना अधिक होती है. यह रोग "पास्चुरेला मल्टोसीडा" नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है. सामान्य रूप से यह जीवाणु श्वास तंत्र के उपरी भाग में मौजूद होता है एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के दबाव में जैसे की मौसम परिवर्तन, वर्षा ऋतु, सर्द ऋतु, कुपोषण, लम्बी यात्रा, मुंह खुर रोग की महामारी एवं कार्य की अधिकता से पशु को संक्रमण में जकड लेता है. यह रोग अति तीव्र एवं तीव्र दोनों का प्रकार संक्रमण पैदा कर सकता है.
संक्रमण
संक्रमित पशु से यह रोग स्वस्थ पशु में दूषित चारे, लार या श्वास द्वारा में फैलता है. यह रोग भैंस को गाय की तुलना में तीन गुना अधिक प्रभावित करता है एवं अलग-अलग स्थिति में प्रभावित पशुओं में मृत्यु दर 50 से 100% तक पहुँच जाती है.
रोग के लक्षण
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एकदम तेज बुखार (107⁰ F तक) होना
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पशु की एक घंटे से लेकर 24 घंटे के अन्दर मृत्यु होना
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पशु किसान को बिना लक्ष्ण दिखाए मृत मिलना
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कभी कभी अति तीव्र प्रकार के संक्रमण में पशु मुँह में चारे के साथ ही मृत मिलता है
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पशु के मुँह से प्रचुर मात्रा में लार बहती है
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नाक से स्राव एवं साँस लेने में तकलीफ होना
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आँखें लाल होना
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चारा चरना बंद करना एवं उदास होना
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गले, गर्दन एवं छाती पर दर्द के साथ सोजिश आना
उपचार
यदि पशु चिकित्सक समय पर उपचार शुरू कर देता है तब भी इस जानलेवा रोग से बचाव की दर कम है. सल्फाडीमीडीन, ओक्सीटेट्रासाईक्लीन एवं क्लोरम फेनीकोल जैसे एंटी बायोटिक इस रोग के खिलाफ कारगर हैं. इनके साथ अन्य जीवन रक्षक दवाइयाँ भी पशु को ठीक करने में मददगार हो सकती हैं.
रोग से बचाव
इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को मानसून के प्रारम्भ होने से पहले गलघोटू रोग का टीकाकरण अवश्य करवाएं. छोटे पशुओं में पहला टीकाकरण 6 महीने या अधिक की आयु में और उसके बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीके लगाए जाने चाहिए. प्रत्येक पशु को बाड़े में उपयुक्त जगह प्रदान करें तथा सुनिश्चित करें की पशु बाड़े में अधिक भीड़ ना हो. पशुओं की रहने का स्थान हवादार होने चाहिए.
मुंह-खुर की बीमारी और गलघोटू का संयुक्त टीका: पशु एवं पशुपालको के लिए एक वरदान
मुँह-खुर और गलघोटू की बीमारी अधिकतर एक साथ ही पशुओं को अपना निशाना बनाती है. यह देखा गया है की गलघोटू प्राय मुँह-खुर की बीमारी होने के बाद ही पशुओं में संक्रमण करती है तथा अकेली मुँह-खुर की बीमारी के कारण पशुओं में मृत्यु दर बहुत कम है. इसलिए पशुओं को सेहतमंद रखने और पशु पालको को आर्थिक नुकसान से बचाने के लिए दोनों बीमारियों से बचाव जरुरी है तथा टीकाकरण ही इन दोनों बीमारियों का सबसे उत्तम बचाव का तरीका है. इस सन्दर्भ में मुंह-खुर और गलघोटू की बीमारी का संयुक्त टीका पशु एवं पशुपालको के लिए एक वरदान से कम नहीं है. संयुक्त टीकाकरण के फायदे-
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एकाधिक इंजेक्शनों के बजाय केवल एक इंजेक्शन
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एकल इंजेक्शन के कारण पशु को कम तनाव
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टीकाकरण तनाव से जुड़े उत्पादन हानि में कमी
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लंबे समय तक रोग प्रतिरोधक शक्ति
संयुक्त टीकाकरण (Raksha biovac®) के लिए अनुसूची
पहला टीका 4 महीने की आयु पर
दूसरा टीका 9 महीने की आयु में
इसके बाद हर 1 साल की अवधि पर.
किसी क्षेत्र या गांव में मुंह-खुर और गलघोटू रोग प्रकोप के दौरान क्या करें क्या ना करें
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निकटतम पशु चिकित्सा अधिकारी को सूचित करें.
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प्रभावित पशुओं को अलग करें.
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बीमारी को फैलने से बचाने के लिए प्रभावित क्षेत्र को 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट (10 लीटर पानी में 400 ग्राम सोडियम कार्बोनेट ) का घोल बना कर दिन में 2 बार धोना चाहिए और इस प्रक्रिया को 10 दिन तक चालू रखना चाहिए.
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बीमार पशु को छूने के बाद या दूध निकलने के उपरांत व्यक्ति को साबुन से नहाना चाहिए और अपने जूते एवं कपड़ों को 4 प्रतिशित सोडियम कार्बोनेट के घोल से धोना चाहिए.
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दूध के बर्तनो को भी सुबह शाम सोडियम कार्बोनेट के घोल से धोना चाहिए और धोने के उपरांत ही गांव के अंदर या बाहर ले के जाना चाहिए.
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संक्रमित गांव के बाहर 10 फीट चौड़ा ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव करना चाहिए और संक्रमित क्षेत्र के आसपास के गांव में रोग के आगे प्रसार को रोकने के लिए पशु चिकित्सक को चाहिए की टीकाकरण की शुरुआत स्वस्थ पशुओं में बाहर से अंदर की तरफ होनी चाहिए. इस विधि को 'रिंग वक्सीनेशन' भी कहते हैं.
कुछ अन्य महत्वपूर्ण सावधानियाँ
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सामूहिक चराई के लिए पशुओं को नहीं भेजना चाहिए.
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सामूहिक पानी के स्त्रोत जैसे नहर,तालाब आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए.
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ऐसे स्थान जहाँ बीमार पशुओं को रखा गया हो वह इंसानों को भी जाने से बचना चाहिए.
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