भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश है. हमारे देश में हरित क्रांति सन 1966-69 में शुरू हुआ जिसके फलस्वरूप रसायनिक उर्वरकों एवं अन्य विभिन्न रसायनों तथा उन्नत किस्म के बीजों का अंधाधुंध प्रयोग कृषि में उत्पादन बढ़ाने के लिए हुआ है, जिसके फलस्वरूप आज के समय में मिट्टी के स्वस्थ्य, उसके जैविक, भौतिक एवं रसायनिक गुणों का ह्राष हुआ है. रसायनों के अधिक प्रयोग से अन्न की गुणवत्ता में गिरावट, खाद्य पदार्थों में जहरीलापन एवं हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है.
उपरोक्त समस्याओं से निदान पाने के लिए रसायनिक उत्पादों का प्रयोग कम करके उनके स्थान पर जैविक उत्पादों जैसे खाद, कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट, वर्मीवाश इत्यादि का उपयोग कर मिट्टी एवं मनुष्यों के स्वास्थ्य को बनाये रख सकते हैं. वर्मीवाश शहद के रंग के जैसा एक तरल जैव खाद है, जिसका उत्पादन केंचुआ खाद उत्पादन के दौरान या अलग से भी किया जाता है. केंचुआ मिट्टी में सुरंग बनाते हुए अपना खाना खाता है. इन सुरंगों में सूक्ष्म जीव होते हैं. इस सुरंग से गुजरने वाला पानी इसमें से पोषक तत्वों को घुलनशील रूप में लेकर निचे आता है और पौधे इसे आसानी से अवशोषित कर लेते हैं. वर्मिवाश के उत्पादन में यही प्रक्रिया काम करती है.
केंचुए का शरीर तरल पदार्थों से भरा होता है, एवं इनके शरीर से लगातार इनका उत्सर्जन होता रहता है. इस तरल पदार्थों का संग्रहण ही वर्मीवाश है. इसमें बहुत सारे पोषक तत्व, हार्मोन्स जैसे साइटोकिनीन, आक्सीटोसिन, विटामिन्स, एमिनो एसिड, एन्ज़ाइम्स, उपयोगी सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, एक्टीनोमाइसिटिस (नाइट्रोजन का स्थरीकरण करने वाले एवं फास्फेट को घुलनशील बनाने वाले) इत्यादि पाए जाते हैं. इसमें सभी पोषक तत्व घुलनशील रूप में उपस्थित होते हैं जो पौधों को आसानी से उपलब्ध होते हैं.
वर्मीवाश की संरचना:
वर्मीवाश एक प्रकार का क्षारीय पदार्थ है.
1. पी० एच०: ७.४८०±०.०३
2. ई० सी० (डेसी साइमन /मीटर): ०.२५±०.०३
3. जैविक कार्बन(%): ०.००८±०.००१
4. कुल नेत्रजन (%): ०.०१±०.००५
5. उपस्थित फास्फेट (%): १.६९±०.०५
6. पोटाशियम (पी० पी० ऐम्०): २५±२
7. कैल्शियम (पी० पी० ऐम्०): ३±१
8. मैग्नीशियम (पी० पी० ऐम्०): १५८.४४±०.०३
9. ताम्बा (पी० पी० ऐम्०): ०.०१±०.००१
10. लोहा (पी० पी० ऐम्०) : ०.०६±०.००१
11. ज़िंक (पी० पी० ऐम्०): ०.०२±००.००१
12. मैंगनीज (पी० पी० ऐम्०): ०.५८±०.०४
13. कुल हेट्रोट्रोप्स (सी० एफ० यू०/मिली०): १.७९×१०3
14. कुल फफूंद : १.४६×१०3
15. नाइट्रोसोमोनास बैक्टीरिया : १.०१× १०3
16. नाइट्रोबैक्टर बैक्टीरिया: १.१२×१०3
वर्मीवाश इकाई :
वर्मीवाश इकाई को मिट्टी, लोहे या प्लास्टिक के लगभग 200 ली० क्षमता वाले ड्रम,
टंकी या बाल्टी में तैयार किया जाता है. वर्मीवाश बनाने के लिए ड्रम का ऊपरी
हिस्सा खुला होना चाहिए. टंकी के निचले हिस्से में एक छेद करके उसमें ऊध्वार्धर
टी आकर की नली जिसका आधा इंच टंकी के अंदर डूबा रहना चाहिए, लगाते हैं.
नली के एक हिस्से को टेप से जोड़कर दूसरी तरफ डमी नट से कस दिया जाता है.
इस पुरे सेट को एक उचित चौकी के ऊपर छायादार स्थान में रख दिया जाता है.
वर्मीवाश तैयार करने हेतु उपयोगी सामान :
गोबर, मिट्टी, मोटी बालू, केंचुआ, पुआल या सूखा पत्ता, मिट्टी का घड़ा, पानी, बाल्टी, ड्रम, ईंट के छोटे टुकड़े या गिट्टी इत्यादि.
वर्मीवाश तैयार करने की विधि:
पहली विधि:
1. आवश्यक्तानुसार वर्मीवाश की इकाई ड्रम, बाल्टी, या टंकी लें.
2. अब ड्रम की सबसे निचली सतह पर 5-7 से०मी०
ईंट या पत्थर की गिट्टी बिछा दें.
1. इसके ऊपर 8-10 से०मी० मोरंग या बालू बिछा दें।
2. अब इसके ऊपर 12-14 से०मी० दोमट मिट्टी बिछाएं|
3. अब इसमें एपीजाइक केंचुए डाल दें|
4. इनके ऊपर 15-20 दिन पुराना गोबर का ढेर
30-40 से०मी० बिछा दें.
1. गोबर के ऊपर 5-10 से०मी० मोटी पुआल तथा
सुखी पत्तियों की तह बना दें.
1. प्रत्येक तह को बनाने के बाद पानी डालें और नल
की टोंटी खुला रखें.
1. मोटी पुआल व सुखी पत्तियों वाली सतह को
15-20 दिन तक शाम को पानी से गीला करें|
इस प्रक्रिया में नल की टोंटी अवश्य खुली रखें.
1. 16-20 दिन के बाद इकाई में वर्मीवाश बनना
शुरू हो जायेगा.
1. अब इस ड्रम के ऊपर मिट्टी का घड़ा लटका दें.
2. घड़े के निचे छेद करके उसमें कपड़े की बत्ती
डाल दें, जिससे पानी बून्द-बून्द टपकता रहे.
1. शाम को घड़े में 4 ली० पानी भर दें.
2. प्रत्येक दिन प्रातः हमें 3ली० वर्मीवाश तैयार मिल सकेगा.
दूसरी विधि:
केंचुआ खाद उत्पादन के दौरान वर्मीवाश का उत्पादन होता है|इसके लिए हमें
वर्मीपिट के निचले सतह को बाहर की ओर थोड़ा सा (8-10 से०मी०) ढलान दिया
जाता है. बाहर की दिवार में निचे की ओर एक छेद (5-10से० मी०व्यास का)
करके उसमें एक पाइप लगा दिया जाता है. बाहर की ओर निकले हुए पाइप के
मुहँ को एक मिट्टी के घड़े या किसी बर्तन में डाल देते हैं. केंचुआ खाद तैयार
होने के दौरान एक तरल पदार्थ नीचे जमा होने लगता है जो पाइप के सहारे
बर्तन में गिरना शुरू हो जाता है. यही वर्मीवाश है.
तीसरी व तत्काल विधि:
1. एक किलो केंचुए को आधा लीटर गुनगुने पानी में डालकर दो मिनट तक हिलाते हैं.
2. केंचुए को निकाल कर दूसरे आधा लीटर साधारण पानी में धो कर इसे वापस टैंक में छोड़ देंगे.
3. ये दोनों धुले हुए गुनगुने व साधारण पानी का इस्तेमाल वर्मीवाश के रूप में कर सकते हैं.
4. गुनगुने पानी में केंचुओं को हिल।ने से केंचुए अच्छी मात्रा में म्यूकस छोड़ता हैं, एवं इसके शरीर से कुछ तरल मात्रा भी बाहर निकलती है. साधारण पानी में डालने से शरीर से सटी म्यूकस की मात्रा भी पानी में घुल जाती है, और केंचुए अपने साधारण स्थिति में वापस आ जाते हैं.
वर्मीवाश तैयार करते समय सावधानियां:
1. वर्मीवाश तैयार करने के लिए कभी भी ताजा गोबर इस्तेमाल न करें, इससे केंचुए मर जाते हैं.
2. वर्मीवाश इकाई हमेशा छायादार स्थान पर होना चाहिए, जिससे केंचुए धुप की सीधी किरणों से बच सकें.
3. हमेशा स्वच्छ पानी का इस्तेमाल करें.
4. केंचुए की उचित प्रजाति का प्रयोग करें.
5. वर्मीवाश इकाई को उचित ऊंचाई या स्टैंड पर रखें, ताकि वर्मीवाश एकत्र करने में आसानी हो.
6. केंचुए को मेंढक, सांप ,चिड़ियाँ, चीटियां व छिपकली से बचाएं.
वर्मीवाश का उपयोग :
1. एक लीटर वर्मीवाश को 7-10 ली० पानी में मिलाकर पत्तियों पर शाम के समय छिड़काव करना चाहिए.
2. एक ली० वर्मीवाश को एक ली० गोमूत्र में मिलाकर उसमें 10 ली० पानी मिलाएं एवं रत भर के लिए रख कर ऐसे 50-60 ली० वर्मीवाश का छिड़काव एक हेक्टेयर क्षेत्र में फसलों में विभिन्न बिमारियों के रोक थाम हेतु करते हैं.
3. ग्रीष्मकालीन सब्जियों में शीघ्र पुष्पन एवं फलन के लिए पर्णीय छिड़काव किया जाता हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती हैं.
वर्मीवाश छिड़काव के समय सावधानियां:
1. वर्मीवाश का छिड़काव शाम के समय करना चाहिए.
2. वर्मीवाश एवं पानी का उचित अनुपात में घोल तैयार करना चाहिए.
3. गोमूत्र के साथ वर्मीवाश का उपयोग रोगनाशी/ कीटनाशी के रूप में उचित अनुपात में करना चाहिए.
4. छिड़काव हमेशा हवा के दिशा में करें.
5. वर्षा के मौसम में यह ध्यान रखें की बारिश होने की संभावना न हो.
वर्मीवाश के लाभ:
1. वर्मीवाश के प्रयोग से पौधे की अच्छी वृद्धि होती है.
2. इसके प्रयोग से जल की लागत में कमी तथा अच्छी खेती सम्भव है.
3. पर्यावरण को यह स्वस्थ्य बनाती है.
4. कम लागत पर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है.
5. मृदा के भौतिक, रासायनिक, एवं जैविक गुणों को बढ़ाती है.
6. इसके उपयोग से पौध रक्षक दवाइयां कम लगती हैं. जिससे उत्पादन लागत में कमी की जा सकती है.
7. मृदा की जलग्रहण शक्ति बढ़ाती है.
8. इससे पैदा किया गया उत्पाद स्वादिष्ट होता है.
9. इसके उपयोग से ऊर्जा की बचत होती है.
लेखक:
डा० सुमित रॉय एवं प्रियंका रानी *
जी० बी० पंत हिमालीय पर्यावरण एवं सतत विकास राष्ट्रीय संस्थान, कोशी, कटरमल, अल्मोड़ा
वीर कुंवर सिंह कृषि महाविद्यालय, डुमराव (बिहार कृषि विश्वविद्यालय,सबौर)*
Mail id: rani.6[email protected]
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