खेती में बढ़ती लागत और कम उत्पादन को देखते हुए किसान अब उन फसलों की ओर रुख कर रहा है जो ज्यादा मुनाफा दे सके. औषधीय फसलों की मांग खास कर इस दौर में अधिक बढ़ गई है, वैसे भी औषधीय फसलों की मांग सालों साल बनी ही रहती है. ऐसी ही फसलों में एक है ईसबगोल. ईसबगोल एक ऐसी महत्वपूर्ण औषधीय फसल है जिसका उपयोग पाचन तंत्र मजबूत करने, मोटापा (obesity) कम करने, कब्ज दूर करने तथा पेचीस रोग जैसे उपचार में किया जाता है. ईसबगोल में बीज के ऊपर सफ़ेद रंग का पदार्थ चिपका रहता है जिसे भूसी कहते है. भूसी में म्यूसीलेज होता है जिसमें जाईलेज, एरेबिनोज एवं ग्लेकटूरोनिक ऐसिड पाया जाता है. इसके बीजों में 17 से 19 प्रतिशत प्रोटीन होता है. इसी भूसी में औषधीय गुण (Medicinal properties) पाये जाते हैं लेकिन भूसी रहित बीज का उपयोग पशु व मुर्गी आहार (Poultry feed) में भी किया जाता है. विश्व के कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत केवल भारत में ही पैदा होता है.
ईसबगोल की उन्नत क़िस्मों का चुनाव (Selection of improved varieties of Isobgol)
क्षेत्र और भोगोलिक स्थिति के आधार पर किस्मों का चुनाव करना चाहिए. यहाँ कुछ ईसबगोल की अधिक उपज देने वाली किस्मों के बारे में जानकारी दे रहे हैं.
गुजरात ईसबगोल 2: यह किस्म 118 से 125 दिन में पक जाती है तथा 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ तक उपज (yield) दे सकती है. इसमें भूसी की मात्रा 28% से 30% तक पाई जाती है. यह गुजरात क्षेत्र के लिए बढ़िया मानी जाती है.
आर॰ आई॰ 89: राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित यह किस्म 110 से 115 दिन में पक जाती है तथा उपज क्षमता 4.5 से 6.5 क्विंटल प्रति एकड़ है. यह किस्म रोगो तथा कीटों के आक्रमण से कम प्रभावित होती है साथ ही भूसी उच्च गुणवत्ता की होती है.
आर॰ आई॰-1: राजस्थान के शुष्क एवं अर्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29 से 47 सेंटीमीटर होती है. यह किस्म 112 से 123 दिन में पक जाती है तथा उपज क्षमता 4.5 से 8.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है.
जवाहर ईसबगोल 4: यह प्रजाति मध्य प्रदेश के लिए अनुमोदित एवं जारी की गई है. इसका उत्पादन 5.5 से 6 क्विंटल प्रति एकड़ लिया जा सकता है.
हरियाणा ईसबगोल 5: इसका उत्पादन 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ हेक्टेयर लिया जा सकता हैं.
इसके अलावा निहारिका, इंदौर ईसबगोल-1, मंदसौर ईसबगोल भी बेहतरीन किस्में है.
ईसबगोल का उत्पादन बढ़ाने की तकनीकें (Techniques to increase Isabgol crop yield)
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खेत की तैयारी के समय ही उचित ध्यान देना जरूरी है, इसके लिए मिट्टी उपचार करना बहुत जरूरी है ताकि रोग न लगे और उपज भी अधिक हो.
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जमीन की दो से तीन जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाएं, इसके बाद दीमक, सफेद लट्ट और भूमिगत कीड़ों की रोकथाम हेतु अंतिम जुताई (last ploughing) के समय क्यूनोलफॉस 1.5% चूर्ण 10 किलो प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिला दें.
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यदि जैविक उपचार अपनाना चाहते हैं तो बुवेरिया बेसियाना एक किलो या मेटारिजियम एनिसोपली एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद (FYM) में मिलाकर खेत में बिखेर दें.
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मिट्टी जनित रोग से फसल को बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा विरिड (Trichoderma viride) की एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत अंतिम जुताई के साथ मिट्टी में मिला दें. जैविक माध्यम अपनाने पर खेत में पर्याप्त नमी अवश्य रखें.
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बीज उपचार के लिए तुलासिता रोग के प्रकोप से फसल को बचाने हेतु मेटालेक्सिल 35% SD 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें. अच्छी उपज के लिए ईसबगोल की बुवाई नवंबर के प्रथम पखवाड़े में करना उत्तम रहता है.
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फसल को 30 सेमी की दूरी पर कतारों में बुवाई करने से निराई गुड़ाई में सुविधा रहती है व साथ ही साथ तुलासिता रोग (Downey mildew) की तीव्रता भी कम होती है.
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अगर हो सके तो कतारें पूर्व से पश्चिम तथा या पश्चिम से पूर्व दिशा में निकालें. अन्य दिशाओं में कतारें निकालने से रोग का प्रकोप अधिक देखा गया है.
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साफ, शुष्क, और धूप वाला मौसम इस फसल के पकाव अवस्था के लिए बहुत जरूरी है. पकाव के समय वर्षा होने पर बीज झड़ जाता है तथा छिलका फूल जाता है और खराब हो जाता है.
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उर्वरक की बात करें तो फसल को प्रति एकड़ 12 किलो नत्रजन और 10 किलो फास्फोरस की जरूरत होती है ताकि फसल जल्दी बढ़वार कर अधिक उत्पादन दे सके. इसमें नत्रजन की आधी एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बीज की बुवाई के समय 3 इंच गहरा ऊर कर देवें तथा शेष आधी मात्रा बुवाई के एक माह बाद सिंचाई के साथ देनी चाहिए.
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फसल में 60 दिन बाद बालियाँ निकलना शुरू होती है और करीब 115 से 130 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है. कटाई के समय मौसम एकदम सूखा होना चाहिए पौधों पर बिल्कुल नमी होनी चाहिए. इसकी गहाई के लिए बड़े-बड़े कपड़ों में बांधकर खलिहान में फैला दिया जाता है और दो-तीन दिन बाद डंडे से पीटकर या ट्रैक्टर से बीज और फूसी अलग कर ली जाती है.
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तुलासिता रोग (Downey mildew) बुवाई के 50 से 60 दिन बाद लगता है जिसमें सबसे पहले पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद या कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं और पत्ती के ठीक नीचे वाले सतह पर सफेद चूर्ण जैसा कवक जाल दिखाई देता है. आगे की अवस्था में ये पत्तियाँ धीरे-धीरे मुड़कर काली होने लगती है. रोग से प्रभावित पौधों से फूलों और बीज की संख्या घट जाती है.
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रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 75% WP की 500 ग्राम या मेटालेक्सिल 8% + मैंकोजेब 64% WP दवा की 400 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% WP की 600 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर देना चाहिए.
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ईसबगोल की फसल का दूसरा गंभीर रोग उकठा या विल्ट है. इस रोग से प्रभावित पौधे मुरझाकर सुख जाते है. रोग से बचाव के लिए 2 ग्राम कार्बेंडाजिम 50% WP प्रति किलो बीज की दर से बीजों को उपचारित करना चाहिए.
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बुवाई से पहले 1 किलो ट्राइकोडर्मा कल्चर को 2 टन गोबर की खाद में अच्छी तरह मिलाकर अन्तिम जुताई के समय जमीन में मिला देना चाहिए.
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कीट की बात करें तो एफीड का प्रकोप सामान्यता बुवाई के 60-70 दिन पर फूल आने व बीज बनते वक्त होता है. यह कीट पौधे के कोमल भागों पर झुण्डो में चिपक कर रस चूसने लगता है. जिससे प्रभावित पौधे कमजोर हो जाते हैं तथा उत्पादन में कमी आ जाती है.
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इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 5 मिली प्रति 15 लीटर पानी या थायोमेथोक्सोम 25 डब्लू जी 5 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. कीटनाशकों का बदल बदल कर छिड़काव करना चाहिए ताकि कीट कीटनाशकों के विरुद्ध प्रतिरोध शक्ति उत्पन्न न हो सके.
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जैविक माध्यम से बवेरिया बेसियाना 500 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़ककाव करना चाहिए.
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दीमक पौधे की जड़ों को खाकर नष्ट कर देता है, जिसके नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरिफॉस 25 EC 2.47 लीटर सिंचाई के साथ जमीन में दे. या जैविक बुवेरिया बेसियाना एक किलो या मेटारिजियम एनिसोपली एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 2 टन गोबर की खाद में मिलाकर अन्तिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें.
ईसबगोल की खेती में लगने वाला खर्च और मिलने वाला मुनाफा (Isabgol cultivation Costs and Profits)
यह नकदीय फसल कम क्षेत्र में भी अधिक दाम (price) दिलाने वाली फसल है. ईसबगोल की फसल 90-115 दिनों के अंदर ही पक कर तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर खेत में अच्छे फसल प्रबंधन करने से 10-15 क्विंटल उपज आ जाती है. जिसे मंडी में बेचने पर एक क्विंटल के इस समय लगभग 12,500 रुपए का भाव मिल रहा है. यदि एक हेक्टेयर खेत में 15 क्विंटल तक उपज आती है तो बाजार में इसका मूल्य (15 X 12,500) 1,87,500 रुपए प्राप्त किया जा सकता है.
यदि ईसबगोल से आमदनी ज्यादा लेनी है तो इसकी प्रोसेसिंग करने के बाद ज्यादा फायदा होता है. प्रोसेसिंग करने के बाद ईसबगोल के बीजों में से लगभग 30 प्रतिशत भूसी ही निकलती है मगर इस भूसी (Husk) का भाव करीब 25,000 प्रति क्विंटल मिल जाता है. यही ईसबगोल की भूसी इसका सबसे महंगा हिस्सा माना जाता है. एक हेक्टेयर में केवल भूसी का वजन 5 क्विंटल आ जाता है. इस प्रकार एक हेक्टेयर खेत से 1,25,000 रुपए तक आमदनी केवल भूसी से हो जाती है. इसके अलावा ईसबगोल की खेती में से भूसी निकलने के बाद खली, गोली आदि अन्य उत्पाद बचते हैं जिससे भी अच्छा खासा मुनफा (profit) मिल जाता है.
लागत के विषय में बात करें तो इसमें खेत की तैयारी में 3000 रुपए, 10 किलो बीज खरीद में 60 रुपए की दर से 600 रुपए, बुवाई मजदूरी में 1700 रुपए, उर्वरक और पेस्टिसाइड में 1200 रुपए सिंचाई और निराई-गुड़ाई में 1500 रुपए, कटाई की मजदूरी में 1600 रुपए, अन्य खर्च 1200 रुपए को मिला दे तो कुल लागत प्रति हेक्टेयर 10,800 रुपए आंकी जा सकती है. इस प्रकार शुद्ध मुनाफा (1,87,500 – 10,800) लगभग 1,76,600 रुपए मिल जाता है.
सम्पर्क सूत्र (For contact)
फसल के बीज, उन्नत तकनीक और नफा नुकसान के बारे में अधिक जानने के लिए नजदीकी कृषि विज्ञान केन्द्र या नजदीकी कृषि विश्वविद्यालय (Agriculture university) से संपर्क किया जा सकता है. या केंद्र शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI) जोधपुर जाकर या फोन करके वैज्ञानिकों +91 2932 256098, +91 2932 256098 से जानकारी प्राप्त की जा सकती है.
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