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जैविक खेती का समुचित उपयोग व विकास:-

सामान्यतः जैविक खेती की विभिन्न क्रियाकलापों, परिभाषाओं व स्पष्टीकरण से ज्ञात होता हैं कि यह खेती की ऐसी पद्धति है जिसमें अधिक समयांतराल तक पर्यावरण बनाये रखनें, मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते रहने और विभिन्न कीट-पतंगों व बीमारियों की रोकथाम के लिए किसी भी कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता हैं। अर्थात जैविक खेती का समुचित उपयोग व विकास एक महत्वपूर्ण चुनौती है इस लेख के द्वारा जैविक खेती का समुचित उपयोग का संक्षेप में विवरण दिया गया है।

जिम्मी

सामान्यतः जैविक खेती की विभिन्न क्रियाकलापों, परिभाषाओं व स्पष्टीकरण से ज्ञात होता हैं कि यह खेती की ऐसी पद्धति है जिसमें अधिक समयांतराल तक पर्यावरण बनाये रखनें, मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते रहने और विभिन्न कीट-पतंगों व बीमारियों की रोकथाम के लिए किसी भी कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता हैं। अर्थात जैविक खेती का समुचित उपयोग व विकास एक महत्वपूर्ण चुनौती है इस लेख के द्वारा जैविक खेती का समुचित उपयोग का संक्षेप में विवरण दिया गया है।

जैविक खेती को आसानी से समझने एवं फसलों की उत्पादन क्षमता को बनाए रखने के लिए इसे मुख्यतः दो प्रकार के भिन्न घटकों में अध्ययन कर सकते हैं। प्रायः पहला घटक फसलों के आवश्यक पोषक तत्वों का उपयोग तथा दूसरा घटक विभिन्न कीट-पतंगों व बीमारियों से बचाव अर्थात समेकित नाशीजीव प्रबंधन करना। अन्ततः सफल जैविक खेती के लिए इन दोनों घटकों का विस्तृत से अध्ययन करना चाहिए।

जैविक विधि से आवश्यक पोषक तत्वों का उपयोग:-

विभिन्न फसलों के पौधों का अपना जीवन चक्र को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण 17 प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती हैं इनमें पौधों को प्राथमिक पोषक तत्व के रुप में कार्बन, हाइड्रोजन व ऑक्सीजन प्रायः पानी व वायुमण्डलीय हवा से मुफ्त प्राप्त हो जाते हैं। परन्तु जस्ता, ताँबा, बोरान मैंगनीज़ मोलिब्डेनम, कोबाल्ट एवं निकल की गौड़ (कम) मात्रा में आवश्यकता पड़ती हैं। तथा मृदा में कैल्शियम एवं मैग्नीशियम की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है। इन पोषक का बहुत क्षणिक भाग दानों में भी पाया जाता है। अतः यदि फसल के अवशेष, गोबर की सड़ी खाद व कम्पोस्ट का निरन्तर उपयोग किया जाएं तो फसलों के लिए इन तत्वों के साथ ही साथ पोटाश तत्व की भी आपूर्ति हो जाती है।

पौधों के लिए अतिरिक्त तीन महत्वपूर्ण तत्वों में गंधक की पूर्ति जिप्सम के प्रयोग से की जा सकती है। इसी क्रम में प्रकृति में उपलब्ध रॉक फास्फेट खनिज एवं पी. एस. एम. व पी. एस. बी. जीवाणु खादों द्वारा फास्फोरस की आपूर्ति की जा सकती है। अर्थात इसके लिए रॉक फास्फेट को मृदा में मिलाना चाहिए। प्रायः फसलों के बीजों को बुवाई से पहले पी. एस. एम. व पी.एस. बी. जीवाणु खाद से बीजशोधन करें।

सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व नत्रजन की पर्याप्त मात्रा को फसलों के लिए उपलब्धता निश्चित करना जैविक खेती का सबसे कठिन कार्य हैं। चूकिं इस पोषक तत्व की मात्रा को मृदा में संचय नहीं किया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार नत्रजन की मात्रा मृदा में उपस्थित कार्बन तत्व पर निर्भर है।तथा कार्बन की मात्रा मृदा के तापमान पर निर्भर है।

प्रायः फसलों को नत्रजन की पूर्ति निम्नवत तरीको से की जा सकती है-

(). प्रतिवर्ष एक ही प्रकार की फसलों को न उगाएं। अर्थात वर्ष में एक दलहनी फसल अवश्य उगाना चाहिए। खरीफ ऋतु में ज्वार,बाजरा,मक्का व तिल के पश्चात रबी की फसल में चना,मटर व मसूर निश्चित उगायें। तथा गेहूं, सरसों व आलू के बाद जायद में मूंग, उड़द अवश्य उगायें। चूँकि हमारी दलहनी फसलों की जड़ो में राइजोबियम पाया जाता हैं। प्रायः ये राइजोबियम वायुमण्डलीय नत्रजन को अवशोषित करता है।

(). दलहनी फसलों की बुवाई से पूर्व उनकें बीजों को राइजोबियम कल्चर से बीजशोधन के लेना चाहिए। चूँकि फसलों की जड़ो में रहकर ये जीवाणु सीधे वातावरण से नत्रजन की उपलब्धता कराते हैं, जिसके साथ ही अगली फसल उगाने पर नत्रजन की कुछ मात्रा मृदा से प्राप्त हो जाती है।

(). विभिन्न फसलों के अवशेषों से 1/2 भाग प्रतिशत तक नत्रजन उपलब्ध हो जाता है, इसलिए इन अवशेषों को सड़ा-गलाकर कम्पोस्ट के रूप में प्रयोग कर लेना चाहिए। इसके माध्यम से पोषक तत्वों के साथ ही साथ मृदा में कार्बन तत्व की मात्रा की मात्रा में वृद्धि होती है, जो कि मृदा में नत्रजन को रोकने में अति आवश्यक हैं।

(४). प्रायः पशुओं के गोबर व कचरे से वर्मी कम्पोस्ट तैयार करना चाहिए। चूँकि वर्मी कम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा, सामान्य कम्पोस्ट से अधिक पायी जाती हैं।

(५). पशुओं के पेशाब में तो गोबर से भी अधिक मात्रा में नत्रजन होती हैं। इसका सम्पूर्ण उपयोग करने के लिए पशुओं के बैठने वाले स्थान पर थोड़ी मात्रा में रॉक फास्फेट डालनी चाहिए। इसके पश्चात पशु के पेशाब में मिले हुए रॉक फास्फेट को सुपर फास्फेट बनाने में प्रयोग कर लेना चाहिए। इससे कम्पोस्ट खाद में नत्रजन की मात्रा में काफी वृद्धि हो जाती हैं।

(६). प्रायः ज्वार, बाजरा,गेंहू, जौ व मक्का इत्यादि की बुवाई से पूर्व बीजों को एजोटोबैक्टर जीवाणु खाद से बीज शोधन कर लेना चाहिए। चूँकि यह मृदा में स्वतंत्र रूप में रहकर वायुमण्डलीय नत्रजन को ग्रहण करते हैं। और अपबी मात्रा में वृद्धि करता है, कुछ समय पश्चात यह स्वयं नष्ट हो जाते हैं। जिससे इनके शरीर की भी नत्रजन की मात्रा पौधों को मिल जाती है। इसी क्रम में धान की फसल में एजोला का प्रयोग करके वायुमण्डलीय नत्रजन का उपयोग सम्भव है।

(७). प्रायः हरी खाद जैसे- ग्वार, सनई व ढैंचा इत्यादि के प्रयोग से भी मृदा में नत्रजन के साथ कार्बन तत्व की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।

(८). प्रायः भेड़-बकरियों के मलमूत्र तथा हड्डियों का चूर्ण व खून की खाद आदि के प्रयोग से भी मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती हैं। अर्थात यह तरीका भी लाभकारी होता है।

(९). प्रायः नीम, अरण्डी व मूँगफली की खलियों का प्रयोग भी नत्रजन की मात्रा में वृद्धि हेतु किया जा सकता है। फसलों की बुवाई से एक माह पूर्व ४-५ टन खली को एक एकड़ खेत मे मिला देना चाहिए।

उपरोक्त विभिन्न तरीकों को अपनाकर नत्रजन की आवश्यक मात्रा बनाए रखी जा सकती है।

विभिन्न जैविक क्रियाओं से फसलों की सुरक्षा :-

फसलों के विभिन्न खरपतवार, हानिकारक कीट-पतंगो व बीमारिया लगभग नाशीजीव की श्रेणी में आ जाते है। इनका भयानक प्रकोप हमारी फसलों को नष्ट कर सकता है। उक्त नाशीजीवों की प्रारंभिक अवस्था पर प्रभावशाली प्राकृतिक क्रियाओं का उपयोग कर इनके हानिकारक दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है।

खरपतवार संबंधी जैविक क्रियाएं:-

खरपतवार फसलों के भयानक शत्रु हैं। ये प्रायः फसलो से जल, हवा व पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। तथा इन खरपतवारो पर विभिन्न कीट-पतंगे व रोगाणु भी निर्भर रहते है। इससे फसल की उपज बहुत कम रह जाती है। अतः ऐसे प्रयास किये जायें कि खरपतवार खेत मे उगने ही न पायें। इसके लिए साफ -स्वच्छ बीजों को शोधित करके ही बुवाई करें। खेत मे पूर्णतः सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट डालनी चाहिए। और उगे हुयें खतपतवारों के पौधों को प्रारंभिक अवस्था मे उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। इससे अगली बार कम हो जायेंगे.

प्रायः खड़ी फसल में खरपतवारों की प्रतिस्पर्धा शुरुआत के २०-३० दिनों तक अधिक रहती हैं। इसलिए खरपतवार के उगते ही निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।

जैविक क्रियाओं द्वारा हानिकारक कीट-पतंगों का उचित प्रबंधन:-

विभिन्न फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंग मुख्यतः तीन तरह के होते हैं। पहली तरह के कीट- पतंग पौधों का रस चूस लेते हैं। तथा विषाणु का संक्रमण फैलाकर हानि पहुचाते हैं। इनमें चेंपा, हरा तेला, थ्रिप्स, लाल मकड़ी, सुंदर झंगा, गन्ने का तना छेदक व माहूं आदि प्रमुख कीट हैं। इन हानिकारक कीट - पतंगों के प्रकृति में अनेक शत्रु कीट भी होते हैं, उदाहरण- लेडी बर्ड, बीटल, क्राइसोपा, मकड़ी व ग्रासहॉपर। अतः क्राइसोपा अब प्रयोगशालाओं में तैयार किये जाने लगे हैं।

प्रायः दूसरे तरह के कीट-पतंगो में मुख्यतः सूड़िया (लट) प्रमुख हानिकारक कीट है। ये फसलों को काटकर व कुतरकर नुकसान पहुंचाती हैं। इस प्रकृति में इन कीट-पतंगों के भी शत्रु पाये जाते हैं। प्रायः इनमें ट्राइकोग्रामा, रोबर मक्खी, मेंटिस, मद वैस्प व कई एक पंक्षी भी शामिल है। ट्राइकोग्रामा के द्वारा सूंडियों (लटो) के अण्डों से निषेचित होने से पूर्व ही नष्ट कर देना चाहिए। अतः विभिन्न फसलों के अनुसार ह8 इनका सदुपयोग किया जा सकता है।

प्रायः तीसरे प्रकार के कीट-पतंग मृदा के अन्दर ही निवास करते हैं, इस प्रकार के कीट प्रायः फसलों की जड़ों द्वारा हानि पहुँचाते है। इनमे सफेद लट, व दीमक मुख्य कीट होते हैं। अर्थात दीमक का प्रकोप प्रायः कच्ची देशी खाद एवं बिना सड़े-गले फसल अवशेष के उपयोग करने से बढ़ता है। अतः हमें सावधानीपूर्वक पूर्णतः सड़ी-गली कम्पोस्ट को ही उपयोग में लाते हैं। इस प्रकार की कम्पोस्ट प्रायः फसल बुवाई से एक माह पूर्व खेतों में मिला देना चाहिए। चूँकि दीमक नमी से दूर रहती है। इसलिए खेत मे पर्याप्त नमी बनाये रखना चाहिए। तथा दूसरे ढंग में दीमक के निवास स्थान को खोदकर मादा (रानी) को मार देना चाहिए।

खरीफ ऋतु की पहली वर्षा के समय सफेद सूंडियों के भृंग(प्रौढ़) भूमि के अंदर से निकलते हैं। और रात के समय में ये कीट प्रायः नीम व बेर को अपना भोजन बनाते है। साथ ही प्रकाश पर भी आते है। अर्थात पेड़ो को खाते भृंगो को अगले दिन एकत्रित कर नष्ट कर दें। इसके अलावा प्रकाश पाश के द्वारा भी इनको पकड़कर नष्ट कर दें। इन सूंडियों से बचने के लिए खेत की मिट्टी में ४-५ टन प्रति एकड़ के हिसाब से नीम की खली मिला दें। अतः इससे अन्य सभी प्रकार के मृदा के कीटों से फसल सुरक्षित रहती हैं।

हमारी प्रकृति में यदि दोनों प्रकार के प्रायः मित्र कीट व शत्रु कीट बने रहते हैं, तो इन फसलों में फिर किसी भी प्रकार की कीटनाशी दवाओं की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु मित्र कीटो की उपस्थिति के बाद भी कुछ हानिकारक कीटों का भयानक प्रकोप फसलों के आर्थिक क्षति स्तर से अधिक ऊपर हो सकता है। इन परिस्थितियों में लट के नियंत्रण हेतु बी.टी., एन. पी. बी. इत्यादि का इस्तेमाल प्रभावी होता है, तथा नीम का तेल व रस एवं नीम की खली बहुत ही प्रभावशील कीटनाशक का कार्य करते हैं। ये प्रायः सभी हानिकारक कीटों के नियंत्रण में सक्षम है। इनके अतिरिक्त फेरोमेन ट्रैप, प्रकाश ताश के द्वारा भी कीटों को नष्ट किया जा सकता है।

जैविक क्रियाओं द्वारा बीमारियों का उचित प्रबंधन:-

विभिन्न जैविक क्रियाओं के माध्यम से भी बीमारियों की रोकथाम, कीट-पतंगों की अपेक्षा कठिन कार्य है। परन्तु इन रोगों से बचने के लिए प्रारम्भ में ही सावधनी रखना आवश्यक है -

(१)   प्रायः मृदा में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए गर्मी के दिनों में खेत की गहरी जुताई करके छोड़ देते हैं, जिससे मिट्टी में छिपे हुए जीवाणु नष्ट हो जाते है।

(२)    फसलों के बीजों को गर्मी में तेज सूर्य के प्रकाश में सुखा लेना चाहिए, जिससे उनमें उपस्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।

(३)     प्रतिवर्ष एक खेत मे एक ही फसल की बुवाई नही करनी चाहिए, जिससे उस फसल में लगने वाली बीमारियों के कीटाणुओं को अगले फसली मौसम में उनके परपोषी पौधें नही प्राप्त होंगे, अतः उन्हें भोजन नहीं मिलेगा, जिससे वह नष्ट हो जायेंगे।

()     प्रायः विभिन्न बीमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधी उन्नतशील किस्मों के चुनावकर फसल की बुवाई करनी चाहिए, चूँकि उनमे रोगों से प्रतिरोध की क्षमता होती है।

(५)    खड़ी फसल में रोगग्रसित पौधों को नजर पड़ते ही नष्ट कर देना चाहिए, इससे दो प्रकार के लाभ होंगे- पहला रोग का विस्तार नहीं होगा, तथा दूसरा लाभ यह है कि मृदा में जीवाणु की संख्या कम हो जायेगी, जिससे अगले वर्ष फसल पर इस रोग का आक्रमण सूक्ष्म हो जायेगा।

(६)    प्रायः ट्राइकोडर्मा एक प्रकार का मित्र फफूंद है, यह रोग विस्तार वाली फफूंद की बढ़वार रोक देती है। अतः फसल के बीज को भी इसी मित्र फफूंद से बीजशोधन करके उपयोग करें। इससे मृदा एवं बीजजनित बीमारियों से कुछ छुटकारा मिल सकता है।

इस प्रकार जैविक खेती करने से आवश्यक पोषक तत्व प्रबंधन एवं नाशीजीव प्रबंधन में प्रकृति में उपलब्ध जैविक घटकों को जरूरत के अनुसार उपयोग किया जाता है। और जैविक खेती का विकास किया जा सकता है।

लेखक :

अरविन्द प्रताप सिंह,डॉ. राहुल कुमार सिंह, डॉ. चन्दन कुमार सिंह और धर्मेन्द्र सिंह

१– शोध छात्र (प्रसार शिक्षा ), नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्दोगिक विश्वविद्दालय,कुमारगंज फैजाबाद (उ. प्र.)- २२४२२९

कृषि प्रसार वैज्ञानिक, महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केन्द्र पीपीगंज गोरखपुर(उ. प्र.)-२७३१६५

- शोध सहायक, वनस्पति संगरोध केन्द्र, अमृत्सर, पंजाब-143101

४ - शोध छात्र (पादप रोग विज्ञान), नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्दोगिक विश्वविद्दालय, कुमारगंज फैजाबाद (उ. प्र.)- २२४२२९

Mail- chandan.singh175242@gmail.com

Contact- 7839336208

English Summary: Proper Use and Development of Organic Farming: - Published on: 15 January 2019, 02:44 PM IST

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