
Moringa Oleifera: सहजन, जिसे मोरिंगा के नाम से जाना जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप में पारंपरिक रूप से उगाया जाने वाला एक अद्भुत पौधा है, जो पोषण एवं औषधीय गुणों का खजाना है. दक्षिण भारत में वर्षों से भोजन में सहजन के विभिन्न भागों का उपयोग होता रहा है, जबकि उत्तर भारत में अब इसके महत्व को तेजी से स्वीकार किया जा रहा है. यह न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है, बल्कि खेती के दृष्टिकोण से भी किसानों के लिए लाभकारी एवं टिकाऊ विकल्प बन चुका है.
सहजन की विशेषताएं और महत्त्व
सहजन के पौधे में लगभग सभी भाग– पत्ती, फूल, फल, बीज, छाल एवं जड़ – औषधीय उपयोग में लाए जाते हैं. यह पौधा न केवल प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, पोटैशियम और विटामिन A, B और C से भरपूर होता है, बल्कि इसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी उच्च होती है. सहजन का सेवन शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है, पाचन को बेहतर बनाता है और शारीरिक ऊर्जा में वृद्धि करता है. एक अध्ययन के अनुसार, सहजन की पत्तियों में दूध की तुलना में चार गुना अधिक कैल्शियम तथा संतरे की तुलना में सात गुना अधिक विटामिन-C पाया जाता है.
खेती की सरलता : कम लागत, अधिक लाभ
सहजन की खेती के लिए किसी विशेष तकनीक या भारी निवेश की आवश्यकता नहीं होती. यह पौधा सूखा, कम उपजाऊ भूमि और न्यूनतम सिंचाई में भी पनप सकता है. सहजन की खेती वर्ष में दो बार फल देने वाली किस्मों जैसे PKM-1, PKM-2, कोयम्बटूर-1 एवं कोयम्बटूर-2 से की जा सकती है. एक बार लगाए गए पौधे से 4-5 वर्षों तक फलन प्राप्त होता है.
भूमि की तैयारी एवं रोपण विधि
सहजन की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त पाई गई है, जिसका पीएच मान 6.0 से 7.5 के बीच हो. पौधों के बीच 2.5 x 2.5 मीटर की दूरी रखकर 45x45x45 सें.मी. आकार के गड्ढों में रोपण किया जाता है. प्रति गड्ढा 10 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद डालकर उसमें बीज या पौध रोपी जाती है. रोपण का आदर्श समय जून से सितंबर होता है.
पोषण प्रबंधन एवं जैविक खेती
उत्तम उपज के लिए पौधों को समय-समय पर खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है. जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु गोबर की खाद के साथ एजोस्पिरिलम एवं पी.एस.बी. जैसे जैव उर्वरकों का प्रयोग अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुआ है. इससे रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता भी घट जाती है.
रोग एवं कीट प्रबंधन
सहजन पर प्रमुख रूप से "बिहार हेयरी कैटरपिलर" (पिल्लू) का आक्रमण होता है, जो पत्तियों को खाकर पौधे को नष्ट कर सकता है. प्रारंभिक अवस्था में सर्फ घोल का छिड़काव करने से नियंत्रण संभव है. व्यस्क कीटों के लिए डाइक्लोरोवास (0.5 मिली/लीटर पानी) का छिड़काव किया जाता है. इसके अतिरिक्त, फलों पर फल मक्खी का भी कभी-कभी आक्रमण होता है, जिसे भी डाइक्लोरोवास से नियंत्रित किया जा सकता है.
तुड़ाई और उत्पादन क्षमता
फल की तुड़ाई फरवरी-मार्च और सितंबर-अक्टूबर में की जाती है. एक पौधे से औसतन 40-50 किलोग्राम तक फल प्राप्त होता है. ध्यान रखें कि फल में रेशा आने से पहले ही तुड़ाई की जाए ताकि इसकी बाजार में अच्छी मांग बनी रहे और अधिक मूल्य प्राप्त हो.
सहजन का औद्योगिक एवं निर्यात महत्व
सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है, जो उच्च गुणवत्ता वाला होता है. इसके बीजों को सुखाकर पाउडर के रूप में निर्यात किया जा रहा है. सहजन से दवा बनाने वाली अनेक कंपनियां पाउडर, कैप्सूल, तेल आदि तैयार कर विदेशों में निर्यात कर रही हैं. इसकी पत्तियों, गोंद और गूदा का उपयोग कागज और कपड़ा उद्योग में भी होता है.
पशु चारा के रूप में उपयोग
आजकल सहजन की खेती दुधारू पशुओं के लिए पोषक चारे के रूप में भी की जा रही है, जिससे पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार के साथ दूध उत्पादन में भी वृद्धि देखी गई है.
सारांश
सहजन एक बहुउपयोगी, पोषण एवं औषधीय गुणों से भरपूर पौधा है जो कम लागत में अधिक आमदनी का साधन बन सकता है. विशेष रूप से दियारा क्षेत्र जैसे बाढ़ग्रस्त और सीमित संसाधनों वाले क्षेत्रों में यह किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है. सहजन की खेती न केवल पारिवारिक पोषण सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि स्थानीय और राष्ट्रीय बाजार में बिक्री के माध्यम से आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम है. बिना किसी विशेष देखभाल के सहजन की खेती से किसान लंबे समय तक स्थायी आमदनी प्राप्त कर सकते हैं. इसलिए, समय की मांग है कि सहजन की वैज्ञानिक तरीके से खेती को बढ़ावा दिया जाए और इसके औद्योगिक, औषधीय तथा पोषण मूल्य को जन-जन तक पहुंचाया जाए.
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