भूमि सुधार: समृद्धिशाली एवं समानता के सिद्धांत पर आधारित समाज की स्थापना हेतु स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में कृषि की संरचना के परिवर्तन के लिये कई प्रकार के भूमि सुधार के प्रयास किये गए हैं। जीवन स्तर सुधारने, सामंती कृषि ढाँचे को तोड़ने, कृषि उत्पादनों में वृद्धि करने तथा कृषि व्यवस्था में गतिशीलता लाने हेतु भूमि सुधार आवश्यक भी थे।
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भूमि सुधार द्वारा कृषि की संरचना मे परिवर्तन लाने की प्रक्रिया का प्रथम उद्देश्य जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन था।
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इसका लक्ष्य असली जोतदार को छोड़कर केवल मालगुजारी की वसूली में लगे होने वाले जमींदारों और अन्य बिचौलियों के हितों को समाप्त करके किसानों को राज्य के साथ सीधे संपर्क में लाना था।
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पट्टेदारों को सुरक्षा देना, भूमि कर में कमी करना और पट्टेदार कृषकों को जमीन पर अधिकार हासिल करवाना इस सुधारों का दूसरा उद्देश्य था।
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भूमि सुधारों का तीसरा उद्देश्य था-वर्तमान तथा भविष्य में परिवार के भू-स्वामित्व पर नियंत्रण लगाना। खेती योग्य अतिरिक्त भूमि को बड़े भू-स्वामियों या जमींदारों से लेकर उन्हें भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और सीमांत किसानों में बाँटने के उद्देश्य से पारिवारिक काश्तकारी पर सीमा बाध दी गई। परंतु व्यक्तिगत भूमि को अपने पास रखने के प्रावधान का प्रयोग कर ग्रामीण जमींदारों और दूसरे बिचौलियों ने किसानों की जमीन हथिया ली। इसके परिणामस्वरूप विशेषतः छोटे काश्तकारों को बेदखली हो गई लेकिन फिर भी शहरी भूस्वामियों की अनुपस्थित जमींदारी काफी कम हो गई तथा किसानों के एक वर्ग ने भूमि का स्वामित्व ले लिया।
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भूमि सुधारों के चौथे उद्देश्य के तहत भूस्वामियों की विभाजित ज़मीन को चकबंदी द्वारा इकट्ठा किया गया।
भूमि सुधारों के सामाजिक परिणाम
सकारात्मक परिणाम
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इसके द्वारा जमींदारों की समाप्ति के साथ जमींदार प्रस्थिति का पतन हुआ जिससे एक शोषणकारी व्यवस्था समाप्त हुई।
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भूमिहीन मज़दूरों व किसानों को भूमि अधिकार मिले जिससे उनकी दासता की स्थिति समाप्त हुई तथा उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ।
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भूमि सुधारों से मिले आर्थिक अधिकारों से छोटे किसानों की जीवनशैली में परिवर्तन आया।
नकारात्मक परिणाम
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भूमि सुधार कार्यक्रम अधिकांशतः कागज़ी कार्रवाई के रूप में ही रहा तथा इससे वृहद् सुधार की प्राप्ति नहीं हो पाई।
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छोटे किसानों के पास मुख्यतः बेकार, बंजर, पथरीली ज़मीनें रह गई जो कि उनके लिये अनुपयुक्त थीं।
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चकबंदी व भूमि आलेखों का लाभ भी बड़े किसानों को ही प्राप्त हुआ तथा छोटे व बड़े किसानों के बीच असमानता बनी रही। भूमि सुधारों का सबसे बड़ा दुष्परिणाम ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन’ को माना जाता है।
हरित क्रांति :
कृषि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण जैविक तथा मशीनी नवीनताओं की प्रक्रिया 1960 के दशक के मध्य से आरंभ हुई, जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना गया। शुरुआत में यह केवल पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित थी, परंतु धीरे-धीरे यह अन्य राज्यों के कुछ हिस्सों में भी लागू की गई। इसमें खेती में उच्च उत्पादकता वाले बीजों, रासायनिक खादों, बहुत अधिक पानी तथा ट्रैक्टर, थ्रेसर जैसे खेती के आधुनिक यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया गया। इसके अतिरिक्त इसमें कृषि के विकास की इस नीति के साथ-साथ सरकार की ओर से ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों को भी शामिल किया गया तथा किसानों को वित्तीय सहायता देने के लिये ग्रामीण बैंकों व सहकारी समितियों की स्थापना भी की गई।
इन सभी उपायों का परिणाम यह रहा कि फसल का घनत्व और उत्पादकता में अत्यंत बढ़ोतरी हुई, किसानों में आत्मनिर्भरता की स्थिति उत्पन्न हुई जिससे अंततः व्यक्तिगत व राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई। हरित क्रांति के उपर्युक्त सकारात्मक परिणामों के अलावा कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आए। मुख्यतः कुछ नकारात्मक प्रभाव भारतीय समाज की व्यवस्था पर देखा गया। भारत में हरित क्रांति के कारण जहाँ विभिन्न क्षेत्रों तथा राज्यों के बीच अत्य़धिक अंतर उत्पन्न हुआ, वहीं हरित क्रांति अंतर्क्षेत्रीय स्तर पर जिलों के मध्य तथा कृषि के उत्पादन एवं आमदनी में विषमताएँ उत्पन्न हो गई।
क्षेत्रों व राज्यों के बीच अंतर इसलिये उत्पन्न हुआ, क्योंकि हरित क्रांति को इसके अनुकूल पाए गए कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में ही लागू किया गया। इसके लाभ विभिन्न वर्गो में भी सामान्य रुप से वितरित नहीं हो पाए। कृषि के अधिक उत्पादन का लाभ मुख्यतः बड़े भू-स्वामियों को प्राप्त हुआ क्योंकि छोटे व सीमांत किसान जमीन कम होने के कारण अधिक उत्पादन नहीं कर पाए। इससे प्रगतिशील व रुढ़िवादी किसानों के मध्य अंतर में भी बहुत बढ़ोतरी हुई। साथ ही, हरित क्रांति से कृषक वर्ग में उत्पन्न होने वाली वर्ग विभिन्नता से कृषि में पूंजीवाद का फैलाव भी हुआ। पंजाब में पूंजीवाद का विस्तार अध्ययनों के द्वारा अधिक पुष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त हरित क्रांति ने पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान पहुँचाया। रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग से पर्यावरणीय प्रदूषण तथा भूमिगत जल के अधिक दोहन से इन क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर काफी नीचे चला गया है।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कृषि तथा ग्रामीण उद्योग के पिछड़ेपन, बेरोजगारी और गरीबी से ग्रसित थी। अतः इन समस्याओं व चुनौतियों से निपटने हेतु सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिये तरह-तरह के विकास कार्यक्रमों की शुरुआत की गई। इन कार्यक्रमों के तहत सर्वप्रथम सामुदायिक विकास कार्यक्रम को शुरु किया गया। यह कार्यक्रम गाँवों की जनसंख्या पर विचार करने और कार्य करने के तरीकों को बदलने का महत्वपूर्ण प्रयत्न था।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम से तात्पर्य उन सभी प्रयासों से है जिनसे एक समुदाय-विशेष के सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलुओं का विकास संभव हो सकता है। इस प्रकार विकास ग्रामीण जीवन के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के रुपांतरण की एक प्रक्रिया है, जिसमें सरकार द्वारा पहल की जाती है और स्थानीय लोगों को प्रौद्योगिकी मार्गदर्शन एवं आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। इसके तहत दो बातों पर मुख्य जोर दिया गया-
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समुदाय के इस प्रकार के विकास को लक्ष्य के रुप में रखा गया जिससे वह आत्मनिर्भर बन सके।
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बाहरी हस्तक्षेप कम किया जाए जिससे दूसरों पर निर्भरता की प्रकृति कम की जा सके।
अतः इस कार्यक्रम में एक तरफ भौतिक लक्ष्यों अर्थात् शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, कुटीर उद्योग, संचार साधनों आदि के विकास पर जोर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ लोगों के विचारों, इच्छाओं तथा अभिरुचियों में परिवर्तन लाने एवं सहयोग किया गया। यह एक ऐसे समन्वित सांस्कृतिक परिवर्तन का प्रयास था जिसका उद्देश्य ग्रामों के सामाजिक, आर्थिक स्तर में परिवर्तन लाना था।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1952 में की गई थी तथा इसमें 55 सामुदायिक योजनाएँ शामिल की गई थीं। भारत में नगरों की तुलना में ग्रामों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति काफी दयनीय रही है, यथा-स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, निरक्षरता विकास हेतु आधारभूत संरचना का अभाव,रोजगार की अनुपलब्धता आदि ने देश में नियोजित परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता को उजागर किया और इसी को ध्यान में रखकर सरकार द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम को पंचवर्षीय योजनाओं में विशेष स्थान दिया गया। सामुदायिक विकास कार्यक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु केंद्र से लेकर गाँव के स्तर पर प्रभावशाली ढंग से प्रशासनिक ढाँचे को संगठित किया गया।
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सामुदायिक विकास कार्यक्रम के योगदान को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है –
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इस कार्यक्रम में जीवन के विभिन्न पक्षों के विकास हेतु समन्वित प्रयास को बढ़ावा दिया गया है।
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इसके परिणामस्वरुप लोगों का ध्यान ग्रामों के विकास की ओर आकृष्ट हुआ है।
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इस कार्यक्रम द्वारा इच्छित जन सहयोग प्राप्त करने तथा कार्यक्रम के अंतर्गत उत्पन्न समस्याओं को हल करने हेतु लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया विकसित की गई है।
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इस कार्यक्रम के अंतर्गत कुटीर उद्योगों व ग्रांमोद्योगों के विकास पर ध्यान केंद्रित करने से ग्रामीण बेरोजगारी में कमी आई है।
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सामुदायिक विकास कार्यक्रम ने ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता इकाई परिस्थितयों को सुधारने में योगदान दिया है।
यद्यपि इस कार्यक्रम से ग्रामीण क्षेत्रों को अनेक लाभ प्राप्त हुए लेकिन यह पूर्णतः सफल नही हो पाया। इसके पूर्ण सफल न होने के कारण थे – जनता का पूर्ण समर्थन न मिलना, खंडों का विस्तृत न होना, प्रशिक्षित कार्यकर्त्ताओं की कमी एवं इसके कार्यकारी अधिक लोगों में समन्वय का अभाव होना तथा उचित नियोजन का अभाव होना।
लेखक-
विशाल यादव (शोध छात्र)
प्रसार शिक्षा विभाग
आचार्य नoदेoकृoएवंoप्रौoविoविo, कुमारगंज, अयोध्या
[email protected]
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