भारत में नींबू वर्गीय फलों की उत्पादकता अन्य देशों की उत्पादकता से कम है. नींबू वर्गीय फलों का उत्पादकता कम होने के कारण जैविक एवं अजैविक समस्याएं हैं.जैविक समस्याओं में मुख्यतौर पर फफूंद, जीवाणु, विषाणु एवं फाइटोप्लाजमा आदि है. इन रोगों के कारण उत्पादकता में काफी कमी आ जाती है. अजैविक समस्याओं में वातावरण के प्रभाव एवं कृषि क्रियाओं के अभाव के कारण भी बहुत से रोग उत्पन होते हैं.
नींबू का आर्द्र गलन रोगः- यह एक कवक से फैलने वाला रोग है.यह बीमारी नर्सरी में पौधों को नुकसान करता है. इस बीमारी से पौधा मिट्टी के सतह के पास से गलकर गिरने लगते है और पौधें मर जाते है. इस प्रकार का बीमारी सभी जगहों पर देखने को मिलता है जहां पर नमी अधिक हो एवं खेतों में पानी निकालने की अच्छी व्यवस्था न हो.
प्रबंधनः- 1. मिट्टी के 1 भाग एवं फार्मेलिन 50 भाग पानी में घोल बनाकर नर्सरी की मिट्टी को 4 इंच गहराई तक गिला करके निर्जर्मीकरण करना चाहिए.
इस रोग के प्रबंध हेतु रासायनिक कवकनाशी कैप्टान 0.2 प्रतिषत प्रतिलीटर पानी को फाइटोलॉन 0.2 प्रतिशत या पेरिनॉक्स 0.5 प्रतिषत के साथ मिलाकर मिट्टी निर्जर्मीकरण एवं पौध नर्सरी में छिड़काव करना चाहिए.
डाईबेक रोगः- यह बीमारी नींबू के फसल में जैविक और अजैविक दोनो कारणों से होता है.जैसे कि कवक द्वारा, वातावरण में बदलाव, पोषक तत्वों का असंतुलन आदि.इस रोग में पौधे की शाखा ऊपर से नीचे की ओर सुखने लगती है.ऐसे पौधो में फूल एंव फल कम आती है और अंत में पौधा पूरा सूख जाता है.
प्रबंधनः- 1. रोग ग्रस्त शाखाओं को काटकर बोर्डों मिश्रण या कॉपर युक्त कवकनाषी से लेप करना चाहिए.
1. नीबू वर्गीय फसलों की कटाई, छटाई दिसम्बर माह में करना चाहिए.
2. यूरिया खाद का 100 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी का घोल बनाकर पौधों के ओज बढ़ाने के लिए छिड़काव करना चाहिए.
3. 15-15 दिन के अंतराल में कवकनाशी कैप्टाफोल 2 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें.
चूर्णिल आसिता रोगः- यह रोग कवक से फैलता है.इस रोग का लक्षण शरद ऋतु में ही दिखाई देता है यह मैन्डरीन एवं स्वीट ऑरेंज की गम्भीर समस्या है इस रोग के लक्षण पत्तियों की डण्ठल एवं शाखाओं के ऊपरी सतह पर सफेद पावंडर के समान कवक की वृद्धि के धब्बे दिखाई देते है.और पत्तियां पीली पड़कर मुड़ने लगती है.गम्भीर संक्रमण होने पर छोटे फलों में भी सफेद चादर ढ़क जाती है.
प्रबंधनः- 1. इस रोग के नियंत्रण के लिए सुबह के समय सल्फर 20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
कैलक्सीन कवकनाशी को 0.2-0.3 प्रतिषत को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.
गमोसिस रोगः- यह एक फाईटोफ्थोरा कवक के द्वारा होता है.इस रोग का लक्षण अधिकतर अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में दिखाई देता है.इस रोग की लक्षण तने की छाल में सड़न गोंद निकलना, जड़ों का सड़ना और पत्तियां पीली होकर पौधा सूखने लगता है.कवक के बिजाणु मिट्टी में पडे़ रहते है, नमी मिलने पर तने में संक्रमण फैलाते है.
प्रबंधन:- 1. रोगरोधी मूलवृंत जैसे खट्टी नारंगी सिट्रमिलो टायर का प्रयोग करना चाहिए.
इस रोग की बचाव के लिए फोसेटाईल -ए.एल.(2.5 ग्राम प्रतिलीटर) या रिडोमिल एम.जेड.-72 (2.5 ग्राम प्रतिलीटर पानी) का छिड़काव 40 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.
रोग से बचाने के लिए स्वस्थ पौधों को प्रतिवर्ष बोर्डों पेस्ट से 50-75 से.मी. मिट्टी के ऊॅंचाई तक रंग देना चाहिए.
नींबू का कैंकर रोगः- यह रोग जीवाणु के द्वारा फैलता है.ये बरसात के दिनों में होने वाला गंभीर रोग है.इस रोग के लक्षण पत्तियों, शाखाओं,फलों एवं डण्ठल पर दिखाई देता है.यह रोग शुरू में पीले धब्बें के रूप में प्रकट होते है जो बढते हुए कठोर भूरे रंग के उभरे हुए छालों में बदल जाते है.ये छाले पीले घेरे से घिरे हुए होते है.नई पत्तियों पर यह दाग पीछे की ओर भी देखने को मिलता है.
प्रबंधनः- 1. नींबू वर्गीय फसलों की रोग ग्रस्त शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए.और कटे हुए शाखाओं पर बोर्डों पेस्ट का लेप लगाने से इस बीमारी को फैलने से बचाया जा सकता है.
स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट $ ट्रेट्रासाइक्लिन हाइड्रोक्लाराइड (90:10) 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में छिड़काव करें.
ट्रेट्रासाइक्लिन 10 ग्राम $ कॉपर सल्फेट 5 ग्राम को 100 लीटर पानी में घोल बनाकर फरवरी, अक्टूबर एवं दिसम्बर माह में प्रयोग करें.
पर्ण सुरंगक कीट के निंयत्रण के लिए ट्राइजोफॉस 40 ईसी को 2-3 मि.ली. /लीटर के दर से छिड़काव करें.
सिट्रस ग्रीनिग या हरितमा रोगः- यह रोग एक अविकल्पी जीवाणु जनित बीमारी है जो ग्राफ्टिंग एवं सिट्रस सिल्ला के द्वारा फैलता है.इस रोग से पौधों की पत्तियां छोटी व ऊपर की ओर बढ़ जाती है.पौधों में पत्तियां एवं फल ज्यादा गिरने लगते है.शाखाओं में मृत शिरा रोग (डाईबेक) के लक्षण दिखाई देती है.जबकि अन्य शाखा स्वस्थ दिखाई देती है.रोगी पौधों के फल पकने पर भी हरे रह जाती है.अगर ऐसे फलों को सूर्य के रोषनी के विपरीत देखते है तो उनके छिलको पर पीला धब्बा दिखाई देता है.
प्रबंधन- 1. बीजू पौधों को उगाने से इस रोग में काफी कमी पाया जाता है.
सिट्रस सिल्ला कीट के रोकथाम के लिए थायोमेथोक्साम 23 डब्लू जी कीटनाशक को 3 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
दानेदार डाइमेथोऐट कीटनाशक 10 प्रतिशत को प्रति पेड़ के थाले के चारों ओर मिट्टी में प्रयोग करने पर भी अच्छा नियंत्रण होता है.
प्लान्टोमाइसीन दवा को 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें या टेरासाइक्लिन 500 पी.पी.एम. को रोगी पौधों को इंजेक्षन देने से काफी हद तक नियंत्रण होता है.
सिट्रस ट्रिस्टेजा विषाणु रोगः- यह एक विषाणु जनित बीमारी है.यह रोग नींबू के माहू (एफिड) कीट से फैलता है.इस रोग का लक्षण छोटी टहनियों एवं शाखाओं के मृत षिरा रोग, पत्तियों का पीला पड़ना, फूल व फलों का अधिक आना, रोग ग्रस्त पौधों में पोषक तत्वों की कमी दिखाई देती है.जड़ों में भी सड़न शुरू हो जाती है.सात-आठ वर्ष बाद रोगीं पौधे की शाखाएं पूरी तरह सूख जाती है और पौधा उकठा रोग से ग्रस्ति दिखाई देता है.
प्रबंधन- 1. रोग अवरोधी मूलवृन्त का उपयोग करे जैसे रफलैमन, रंगपुर लाइम, ट्राईफाॅलिएट आरेन्जस आदि.
इस रोग को रोकने के लिए पौधषाला एवं बागों में नींबू के माहू को कीटनाशक मोनोक्रोटोफॉस या इमिडाक्लोप्रिड या एसीफेट 75 प्रतिषत एस.पी. किसी एक कीटनाशक को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें.
नींबू के धीमा उखरा/क्षय रोगः- यह रोग पौधों में सूत्रकृमिक के कारण होता है.सूत्रकृमि पौधों के जड़ों में चिपका रहता है और जैली जैसा चिपचिपा पदार्थ छोड़ता है.रोग के बढ़ने से जड़ की छाल जड़ों से अलग हो जाती है.पत्तियां पीली एवं छोटी हो जाती है और फल छोटे आकार के दिखाई पड़ते है.
प्रबंधनः- 1. गैंदा फूल को नींबू के साथ अन्तरा शस्य के रूप में लगायें.
नर्सरी से पौधे लेने की बाद जड़ो को 25 मिनट तक 470 सें. ताप वाले पानी में भिगाकर उपचारित करें.
नीम की खली 1 किलो ग्राम प्रति पौधा या 100 किलो ग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में मिलाऐं या थालों में कार्बोप्यूरान 4 जी का भुरकाव करें.
सूत्रकृमिनाशक दवाओं को समय-समय पर थालों में प्रयोग करें जैसे टेमिक -फ्यूराडान - कार्बोसल्फान को 1 से 1.5 किलो ग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें.
श्री विजय कुमार, श्री रंजीत कुमार राजपूत, डॉ. हरिषंकर, डॉ. केषव चन्द्र राजहंस, डॉ. एस.एस. साहू, श्री डोमन सिंह टेकाम, इंजी. कमलेष कुमार सिंह
कृषि विज्ञान केन्द्र, कोरिया
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