गेहूं भारत की प्रमुख फसलों में से एक है, और इसकी उपज में किसी भी प्रकार की कमी से किसानों की आय और देश की खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. लोहा (Fe) गेहूं की फसल के लिए एक अत्यंत आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व है. यह क्लोरोफिल निर्माण, एंजाइमों की सक्रियता और श्वसन क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. लोहा की कमी से पौधों में गंभीर शारीरिक और जैव रासायनिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, जो फसल की गुणवत्ता और मात्रा दोनों को प्रभावित करती हैं.
लोहा की कमी से होने वाले प्रमुख लक्षण
लोहा की कमी के कारण पौधों में विभिन्न प्रकार के लक्षण प्रकट होते हैं, जिनमें मुख्य रूप से शामिल हैं...
- पत्तियों का पीला पड़ना (क्लोरोसिस): युवा पत्तियां पहले पीली होने लगती हैं, जबकि उनकी नसें हरी रहती हैं.
- पौधों का कमजोर विकास: पौधे का समग्र विकास धीमा हो जाता है, और उसमें कांतिहीनता दिखाई देती है.
- क्लोरोफिल उत्पादन में कमी: लोहा क्लोरोफिल निर्माण के लिए आवश्यक होता है, और इसकी कमी से प्रकाश संश्लेषण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
- प्रजनन विकास पर प्रभाव: फूल और दाने कम बनते हैं, जिससे उपज में कमी होती है.
- रूट फंक्शन पर प्रभाव: जड़ों की वृद्धि में बाधा उत्पन्न होती है, जिससे पौधे पोषक तत्वों को ठीक से अवशोषित नहीं कर पाते.
लोहा की कमी के कारण
मिट्टी मे लोहा की कमी होने के कई कारण है जिनमे प्रमुख है...
- मिट्टी का उच्च pH: क्षारीय या चूना-युक्त मिट्टी में लोहा अघुलनशील हो जाता है और पौधे इसे अवशोषित नहीं कर पाते.
- अन्य पोषक तत्वों की अधिकता: फास्फोरस, जिंक, और मैंगनीज की अधिकता से लोहा का अवशोषण बाधित हो सकता है.
- जैविक पदार्थों की कमी: अधिकांश उत्तर भारतीय मिट्टियों में जैविक पदार्थों की कमी के कारण मिट्टी में उपलब्ध लोहा कम होता है. पराली जलाने की वजह से भी यह समस्या बढ़ रही है .
- जल निकासी की समस्या: जलभराव के कारण मिट्टी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, जिससे लोहा की उपलब्धता प्रभावित होती है.
- अधिक उर्वरक उपयोग: अति रासायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी की पोषक संतुलन को बिगाड़ सकता है.
लोहा की कमी के कारण होने वाले नुकसान
- उपज में गिरावट: लोहा की कमी के कारण पौधों का विकास बाधित होता है, और दानों का आकार व गुणवत्ता प्रभावित होती है.
- गुणवत्ता पर प्रभाव: गेहूं की गुणवत्ता घटने से बाजार मूल्य कम हो सकता है.
- कृषि लागत में वृद्धि: कमी को पूरा करने के लिए अतिरिक्त उर्वरक और संशोधन की आवश्यकता होती है.
- मिट्टी की सेहत पर असर: यदि समय रहते सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो मिट्टी की उर्वरता और खराब हो सकती है.
लोहा की कमी को कैसे करें प्रबंधित ?
1. मिट्टी की जांच और सुधार
मिट्टी परीक्षण: फसल लगाने से पहले मिट्टी की जांच कर इसकी pH और पोषक तत्वों की स्थिति का आकलन करें.
pH का प्रबंधन: मिट्टी का pH 6.0-6.5 के बीच रखना उपयुक्त होता है. इसके लिए चूने का सीमित उपयोग करें.
जैविक खाद का उपयोग: गोबर की खाद, हरी खाद, और वर्मी-कंपोस्ट मिट्टी में जैविक पदार्थ बढ़ाकर लोहा की उपलब्धता में सुधार करते हैं.
2. उर्वरकों का सही उपयोग
फेरस सल्फेट का उपयोग: मिट्टी में 25-50 किलोग्राम फेरस सल्फेट प्रति हेक्टेयर डालने से लाभ होता है.
फोलियर स्प्रे: 0.5% फेरस सल्फेट का छिड़काव पत्तियों द्वारा लोहा अवशोषित कराने में मदद करता है. इसे 10-15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार किया जा सकता है.
सूक्ष्म पोषक मिश्रण: बाजार में उपलब्ध सूक्ष्म पोषक मिश्रणों का उपयोग करें, जिनमें लोहा के साथ अन्य आवश्यक तत्व भी होते हैं.
3. फसल प्रणाली और फसल चक्र
पलटने वाली जुताई: मिट्टी की सतह पर लोहा उपलब्ध कराने के लिए पलटने वाली जुताई करें.
अंतर फसल प्रणाली: दलहनी फसलों के साथ गेहूं की खेती मिट्टी में लोहा की उपलब्धता बढ़ा सकती है.
4. जल प्रबंधन
जलभराव से बचने के लिए उचित जल निकासी व्यवस्था बनाएं. सूखे के दौरान स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली का उपयोग करें.
5. जैविक उपाय
लोहा सोल्युबिलाइजिंग बैक्टीरिया (Iron Solubilizing Bacteria) का उपयोग मिट्टी में लोहा की उपलब्धता बढ़ाने के लिए करें. माइकोराइज़ा कवक का उपयोग करें, जो जड़ों की पोषक तत्व अवशोषण क्षमता बढ़ाता है.
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