पादप रोगों के नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले रसायनों की कीमतों में लगातार वृद्धि पर्यावरण प्रदूषण और रोग कारकों में रसायनों के प्रति बढ़ती सहनशीलता को देखते हुए इनके कम से कम प्रयोग की बात अब पूरी दुनिया भर में उसे लगी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक अनुमान लगाया गया है कि लगभग 100000 से भी अधिक लोग किसी यस या नो के गलत प्रयोग के कारण हर वर्ष बीमार हो जाते हैं जिनमें से लगभग 20,000 से अधिक मृत्यु के शिकार भी होते हैं.
इस समस्या का हल निकालने के लिए आवश्यक है कि ऐसी तकनीकों का विकास किया जाए जो कम खर्चीली हो और पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने हेतु रोगों का प्रभारी नियंत्रण कर सकें. इसी दिशा में एमिटी यूनिवर्सिटी कार्य कर रही है और यहां पर जैविक नियंत्रण के द्वारा कैसे फसलों के रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है. उससे किसानों को प्रशिक्षित कर रही है और अधिक से अधिक इस बात के लिए प्रेरित कर रही है कि जैविक नियंत्रण के द्वारा ही फसलों की सुरक्षा करेंगे तभी आप की सुरक्षा होगी और फसल की भी सुरक्षा होगी. इसमें लागत भी कम आएगी और उत्पादन भी अच्छा मिल सकेगा. जब केंद्र की दिशा में विश्वविद्यालय कार्य करते हुए कुछ तकनीकों तो किसानों के खेतों तक पहुंचाई जा चुकी हैं और इसके अलावा विश्वविद्यालय में जैविक नियंत्रण के द्वारा फसलों को कैसे सुरक्षित रखा जाए इसके लिए प्रयोगशाला स्थापित किए जाने का प्रयास किया जा रहा है.
जैव नियंत्रण तकनीक
जैव नियंत्रण तकनीक के अंतर्गत कुछ ऐसे जेब कारकों का प्रयोग किया जाता है जो फसलों को बिना किसी नुकसान के रूप कारकों का नियंत्रण कर सकते हैं. प्राय ऐसे जब कार्य मिट्टी में पाए जाते हैं तथा इन्हें मिट्टी से अलग कर बड़े पैमाने पर उगाया जा सकता है. इसके लिए ट्राइकोडर्मा जॉब कारकों की विभिन्न प्रजातियां मिट्टी से निकाली जा चुकी हैं उन्हें ज्वार गन्ने की खोई अथवा गेहूं के चोकर पर बड़े पैमाने पर उगाया जा सकता है.
जेब कार को मृदा अथवा बीज उपचार के द्वारा प्रयोग किया जाता है इनके प्रयोग से द रेनी फलों सब्जियों चुकंदर तंबाकू आदि के मृदा रोगों जैसे कट्टा जड़ गलन पौध गलन आदि के नियंत्रण में सफ़लता मिली है.
चने और मशहूर तथा अन्य दल ने फसलों में मुक्ता और जड़ गलन की रोकथाम में जेब कारकों का प्रयोग बहुत सफलतापूर्वक किया गया है वहीं से पहले चने के बीज पर इसका हल का लेप किया जाता है और उसके पश्चात जाती है तो उनकी जड़ों में कम रूम लगता है चना और मसूर रवि की दो प्रमुख दलहनी फसलें हैं इनमें जैविक नियंत्रण का अपना महत्व है क्योंकि इन फसलों में उठता और जड़ गलन विरोधी किस्मों का अभाव है रसायनों का प्रयोग करके भी इनका नियंत्रण नहीं किया जापा ता है इसलिए यदि हम वर्तमान में जैव नियंत्रण के सहयोग से बीजों को उपचारित कर करेंगे तो निश्चित रूप से पौधों में लगने वाली बीमारियों को काफी हद तक नियंत्रण कर सकते हैं अब इस विधि का प्रयोग कुछ नई फसलें जैसे मक्का और 16 कारी पौधों के लोग नियंत्रण के लिए भी सफलतापूर्वक किया जा रहा है और हमें विश्वास है कि किसान फसल की लागत को कम करने के लिए और रसायनों से बचने के लिए जैव नियंत्रण विधि को अपनाएंगे और अच्छा उत्पादन प्राप्त करें.
लेखक - शालिनी सिंह विशन
निदेशक एमिटी यूनिवर्सिटी लखनऊ
डॉ. आर एस सेंगर, प्रोफेसर
सरदार वल्लभ भाई पटेल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, मेरठ
ईमेल आईडी: [email protected]
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