जब जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड समेत पहाड़ी राज्यों में ओले गिरते हैं, तो सेब, बादाम, चेरी, मशरूम समेत कई पहाड़ी फसलें खराब हो जाती हैं. ऐसे में आईआईटी बॉम्बे के वैज्ञानिकों ने एक तकनीक विकसित की है. दरअसल, पानी की बूंदों को ओले में बदलने की प्रक्रिया को रोकने के लिए ‘हेल गन’ विकसित की गई है. दावा किया जा रहा है कि इस तकनीक के उपयोग से सेब की फसल को नुकसान से बचाया जा सकता है.
वैज्ञानिकों के मुताबिक.....
साल 2019 में केंद्र सरकार के साइंस इंजीनियरिंग एंड रिसर्च बोर्ड की तरफ से फसलों को ओलावृष्टि से बचाने वाली तकनीक खोजने के लिए लगभग 85 लाख की लागत वाला यह प्रोजेक्ट दिया था. लक्ष्य था कि इस प्रोजेक्ट को साल 2022 तक पूरा किया जाए. फिलहाल, हिमाचल प्रदेश के डॉ. वाईएस परमार यूनिवर्सिटी (नौणी) विश्वविद्यालय के कंडाघाट स्थित रिसर्च स्टेशन में इस तकनीक का प्रयोग चल रहा है.
कैसे बनते हैं वायुमंडल में ओले
जब बादलों में ठंड बढ़ती है, तो वायुमंडल में पानी की बूंदें जमा होती हैं और बर्फ का आकार ले लेती हैं. फिर यह बर्फ गोले के आकार में जमीन पर गिरने लगती है. इसे ओला कहा जाता है. बता दें कि पहाड़ों में मार्च से मई के बीच ओलावृष्टि के कारण कई फसलें, सब्जी और फल खराब हो जाते हैं.
क्या है तकनीक
हेल गन में मिसाइल और लड़ाकू विमान चलाने वाली तकनीक का प्रयोग किया है. इस तकनीक में हवाई जहाज के गैस टरबाइन इंजन और मिसाइल के रॉकेट इंजन की तर्ज पर प्लस डेटोनेशन इंजन का इस्तेमाल किया जाता है. इसमें एलपीजी और हवा के मिश्रण को हल्के विस्फोट के साथ दागा जाता है. इस हल्के विस्फोट से एक शॉक वेव (आघात तरंग) तैयार होती है, जो ‘हेल गन’ के माध्यम से वायुमंडल में जाती है, साथ ही बादलों के अंदर का स्थानीय तापमान बढ़ा देती है. इस तरह ओला बनने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है.
10 लाख रुपए में लगेगी हेल गन
इस तकनीक का शुरुआती खर्च लगभग 10 लाख रुपए है, तो वहीं एलपीजी गैस के भी पैसे देने होंगे. इस तकनीक को सस्ता करने के लिए एलपीजी गैस का प्रयोग किया गया है.
10 किलोमीटर तक रहेगा असर
हेल गन के अंदर से निकलने वाली मिसाइल 5 से 10 किलोमीटर तक प्रभाव डालती है. यानी इतने क्षेत्र में बादलों के अंदर ओले बनने की प्रक्रिया थम जाएगी.
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