पपीते का पौधा फलदार वृक्षों में सबसे कम समय में फल देने वाला पौधा है संभवत इसीलिए किसानों की पसंद बनता जा रहा है। इसको अमृत घट के नाम से भी जाना जाता है। इसके फल में कई एंजाइम भी पाए जाते हैं जिनके सेवन से पुराने कब्ज के रोग को भी दूर किया जा सकता है। पपीते के फलो से पपेन तैयार किया जाता है। जिसका प्रसंस्कृत उत्पाद हेतु उपयोग किया जाता है। पपीता प्यूरी का भी बडा निर्यातक है।
जलवायु और मृदा-
पपीता एक उष्णकटिबंधीय जलवायु वाली फसल है जिसको मध्यम उपोष्ण जलवायु जहाँ तापमान 10-26 डिग्री सेल्सियस तक रहता है तथा पाले की संभावना न हो, इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। पपीता के बीजों के अंकुरण हेतु 35 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम होता है। ठंड में रात्रि का तापमान 12 डिग्री सेल्सियस से कम होने पर पौधों की वृद्धि तथा फलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पपीता की खेती के लिए 6.5-7.5 पी. एच मान वाली हल्की दोमट या दोमट मिट्टी जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
पपीता प्रजाति-
पपीते की किस्मों का चुनाव खेती के उद्देश्य के अनुसार किया जाना चाहिए जैसे कि औद्योगिक रूप से महत्व की किस्में जिनके कच्चे फलों से पपेन निकाला जाता है, पपेन किस्में कहलाती हैं इस वर्ग में महत्वपूर्ण किस्में सी. ओ- 2 ए सी. ओ- 5 एवं सी. ओ- 7 है।
इसके साथ दूसरा महत्वपूर्ण वर्ग है टेबिल वैरायटी या जिनको पकी अवस्था में काटकर खाया जाता है। इस वर्ग को पुनः दो भागों में बांटा गया है पारम्परिक पपीते की किस्में :- पारंपरिक पपीते की किस्मों के अंतर्गत बड़वानी लाल, पीला, वाशिंगटन, मधुबिन्दु, हनीड्यू, कुर्ग हनीड्यू , को 1, एवं 3 किस्में आती हैं। नई संकर किस्में उन्नत गाइनोडायोसियस /उभयलिंगी किस्में :- इसके अंतर्गत निम्न महत्वपूर्ण किस्में आती हैः- पूसा नन्हा, पूसा डेलिशियस, सी. ओ- 7 पूसा मैजेस्टी, सूर्या आदि।
रेड लेडी ताइवान 786- इस प्रजाति में नर व मादा फूल एक ही पौधे पर होते हैं जिसके कारण शत प्रतिशत पौधे पर फल बनते हैं। यह पपीते कि बहुत अच्छी किस्मों में से एक है और यह देश भर में काफी प्रचलित भी है।
पौधा तैयार करना-
जनवरी में प्रो - ट्रे में कोकोपीट के माध्यम से पौधों के माध्यम में बीज की बुवाई की जाती है तथा बीज के अंकुरण के बाद और रोपाई से पहले दो बार पानी में घुलनशील खादो को पौधों की जड़ों में दिया जाता है। पपीते के 1 हेक्टेयर के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परंपरागत किस्मों का 500 ग्राम बीज एवं उन्नत किस्मों का 300 ग्राम बीज की मात्रा की आवश्यकता होती है। पपीते की पौध क्यारियों एवं पालीथीन की थैलियों में तैयार की जा सकती है। क्यारियों में पौध तैयार करने हेतु क्यारी की लंबाई 3 मीटर, चैड़ाई 1 मीटर एवं ऊंचाई 20 सेमी रखें। प्लास्टिक की थैलियों में पौध तैयार करने के लिए 200 गेज मोटी 20 गुना 15 सेमी आकर की थैलियाँ (जिनमें चारों तरफ एवं नीचे छेद किए गए हो ) में वर्मीकंपोस्ट, रेत, गोबर खाद तथा मिट्टी के 1:1:1:1 अनुपात का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में 1 या 2 बीज बोंए।
पौध रोपाई एवं दूरी -
पौध रोपण पूर्व खेत की तैयारी मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर 2-3 बार कल्टिवेटर या हैरो से जुताई करें। तथा समतल कर लें । जब नर्सरी में पौधे लगभग 30 - 35 दिनों की हो जाए या पौधे की लंबाई 15 से 18 से.मी. हो जाए तब यह मुख्य खेत में रोपाई योग्य हो जाती है। पपीते को उचित दूरी पर लगाना चाहिए। पूर्ण रूप से तैयार खेत में 45*45*45 सेमी आकार के गढडे 2ग2 मीटर (पंक्ति - पंक्ति एवं पौध से पौध )की दूरी पर तैयार करें।
सिंचाई -
टपक सिंचाई तकनीक फलदार वृक्षों के लिए एकमात्र ऐसी विधि है, जिसके माध्यम से कम से कम पानी एवं खाद से अधिक से अधिक उत्पादन ले सकते हैं गर्मी के दिनों में 1 से 2 दिनों के अंतराल पर तथा सर्दियों में 5 से 7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक -
बैड बनाते समय 10 से 15 कि. ग्रा. गोबर की खाद एवं 150 - 200 ग्राम नीम खली प्रति पौधा मिट्टी में मिला देना चाहिए। जब पौध रोपाई के बाद एक माह का हो जाए तब पौधे को पानी में घुलनशील खाद देना प्रारंभ करना चाहिए। इसके लिए 50 ग्राम नाइट्रोजन,60 ग्राम फास्फोरस एवं 80 ग्राम पोटाश प्रति महीने एवं कम मात्रा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। खाद की अनुशंसित मात्रा महीने में 3-4 बार देनी चाहिए। आरंभिक अवस्था में कम खाद देनी चाहिए और जैसे-जैसे समय बढ़ता जाए वैसे वैसे खाद की मात्रा को बढ़ाते रहना चाहिए।
अंत: वर्तीय फसलें –
पपीते बाग में अंतःवर्तीय फसलों के रूप में दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रेंचबीन व सोयाबीन आदि ली जा सकती। मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिण्डी आदि फसलों को पपीते पौधों के बीच अंतःवर्तीय फसलों के रूप में न उगायें।
तुडाई व उपज-
रोपाई के 9 से 10 माह बाद फल तुडाई योग्य हो जाते है। इसके लिए फलों पर पीलापन आने के बाद दौड़ते रहना चाहिए, क्योंकि अधिक पीलापन आने के बाद फल तुडाई करने पर छतिग्रस्त ज्यादा होते हैं। इसके अलावा अगर फल पर हल्के पीलेपन के बाद तुडाई करके पेपर में लपेटकर बंद कमरे में रख दें तो 2 - 3 दिनों में पपीता पूरी तरह से पक जाता है। प्रति पौधा पपीते की उपज 35 से 40 कि. ग्रा. औसत उपज पहले वर्ष में आ जाती है।
पाले से पौधे को बचाना-
नवंबर, दिसंबर और जनवरी माह में पाले से बचाव हेतु एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच की दूरी पानी भर देना चाहिए और बीच-बीच में जिस दिन मौसम विभाग द्वारा पाला पड़ने की संभावना जताई जाए तब खेत में धुआ करना चाहिए। धुँआ हवा की दिशा में करना चाहिए।
कीट और रोग व उनकी रोकथाम-
तना तथा जड़ गलन: इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गिरने लगता है और जब भी गलने लगती है, पत्तियां सूख जाती है और पौधे मर जाता है।
रोकथाम: पौधे में अच्छे जल निकास की व्यवस्था हो।पौधो में अच्छे जल निकास की व्यवस्था हो। पौधो पर 1% बोर्डो मिश्रण या पानी कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2 ग्राम \ लीटर पानी में घोल का छिड़काव करें।
डैंपिंग ऑफ: इस रोग में छोटे पौधे नीचे से गल कर मर जाते हैं।
रोकथाम: बीज को सेरेसान एग्रोसन जी. एन. से उपचारित कर ले।
मोजेक (पत्तियों का मुड़ना):
प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है वह डंठल छोटा और आकार में सिकुड़ जाता है।
रोकथाम: थायोमिथाक्साम 25 डब्लू. जी. 4 ग्राम/10 लीटर पानी या इमिडामक्लोप्रिड 17.8 एस. एल एक मि. ली./ लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें।
चेपा: ये किट छोटे एवं बड़े पौधे का रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं।
रोकथाम: डायमेथोएट 30 ई. सी. या प्रोपीनोफास 50 ई. सी. का 1 मि. ली./ लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें।
लाल मकड़ी:
यह किट पौधे की पत्तियों और एवं फलों की सतह को नुकसान पहुंचाता है। इसके कारण पत्तियां पीली पढ़कर लाल भूरे रंग की हो जाती हैं।
रोकथाम: डाईकोफाल 1 मि.ली./ लीटर पानी में का छिड़काव करें।
रिंग स्पॉट वायरस - इस रोग का कारण विषाणु है जो कि माहू द्वारा फैलता है । इस रोग के गंभीर आक्रमण की स्थिति में 50-60 प्रतिशत तक हानि हो जाती है । जिस कारण पत्तियों पर क्लोरोसिस दिखाई देता है पत्तियाँ कटी - कटी दिखाई देती है तथा पौधे की वृद्धि रूक जाती है।
लीफकर्ल - यह भी विषाणु जनित रोग है जो कि सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है जिस कारण पत्तियाँ मुड़ जाती है इस रोग से 70-80 प्रतिषत तक नुकसान हो जाता है।
नियंत्रण - स्वस्थ पौधो का रोपण करें। रोगी पौधों को उखाड़कर खेत से दूर गढढे में दबाकर नष्ट करें। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु अनुसंशित कीटनाशक का प्रयोग करें।
पपीते के फल एवं उपज-
अच्छी तरह वैज्ञानिक प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 40-50 किलो उपज प्राप्त हो जाती है। पपीते की प्रति हेक्टेयर राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादकता 317 क्विं/हे. है।
संकर पपीते की खेती पर होने वाली आय व्यय का ब्यौरा (अनुमानित प्रति हेक्टेयर )
कुल लागत |
165400 |
उत्पादन ( क्वि. / हे.) |
900 |
विक्रय |
405000 |
लाभ लागत अनुपात |
2.44 |
शुद्ध लाभ |
194600 |
पपीते की उत्पादकता बढ़ाने के उपाय-
1. पपीते की व्यावसायिक खेती में उभयलिंगी किस्मों जैसे सूर्या ( भारतीय बागवानी अनु. सं. बैंगलोर ) सनराइज सोलो, रेडी लेडी -786 के साथ किचिन गार्डन के लिए पूसा नन्हा, कुर्ग हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पंत पपीता 1, 2 एवं 3 के चयन को प्राथमिकता दें।
2. रसचूसक कीटों के प्रभाव वाले क्षेत्रो में पपीते को अक्टूबर में रोपण करें। तथा पौधों की नर्सरी कीट अवरोधी नेट हाऊस के भीतर तैयार करें।
3. खाद व उर्वरक की संतुलित मात्रा 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्फुर तथा 250 -500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा/वर्ष प्रयोग करें।
4. सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धिति अपनाऐं।
5. फसल में रसचूसक कीटों के नियंत्रण हेतु फेरामोन ट्रेप, प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें तथा नीम सत्व 4 प्रतिशत का छिड़काव करें।
6. पपीते के पौधों को 30 सेमी उठी मेड़ पर 2 गुणा 2 मीटर की दूरी पर रोपाई करें। तथा अंतवर्तीय फसल के रूप में मिर्च , टमाटर बैंगन न लगाएं।
पपीते के फलों से पपेन निकालने की विधि-
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सामान्यत: पपेन को पपीते के कच्चे फलों से निकला जाता है । पपेन के लिए 90-100 दिन विकसित कच्चे फलों का चुनाव करें ।
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कच्चे चुने हुए फलों से सुबह ३ मि.मी. गहराई के 3-4 चीरे गोलाई आकार में लगाएं ।
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इसके पूर्व पौधों पर फलों से निकलने वाले दूध को एकत्रित करने के लिए प्लास्टिक के बर्तन को तैयार रखें ।
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फलों पर प्रथम बार के (चीरा लगाने के बाद ) 3-4 दिनों पश्चात पुन: चीरा लगाकर पपेन एकत्रित करें।
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पपेन (दूध) प्राप्त होने के बाद उसमे 5 प्रतिशत पोटेशियम मेन्टाबाई सल्फेट परिरक्षक के रूप में मिलाये ताकि पपेन को ३-४ दिन तक सुरक्षित रखा जा सके ।
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पपेन को अच्छी तरह सुखाकर पपेन को प्रसंस्करण केंद्र भेजें ।
पपेन का उत्पादन-
इस प्रकार पपीते की पपेन के लिए उपयुक्त किस्मों सी ओ -2 एवं सी ओ - 5 के पौधों से 100 - 150 ग्राम पपेन प्रति पौधा प्रति वर्ष प्राप्त हो जाता है ।
कच्चे पपेन को अच्छी तरह सुखाकर प्राप्त पाएं को प्रसंस्करण के लिए सयंत्र महाराष्ट्र के जलगॉव तथा येवला (नासिक ) में भेज दिया जाता है।
कच्चे फलों से पपेन निकालने के बाद उनसे अन्य प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे टूटी फ्रूटी, मुरब्बा बनाया जा सकता है तथा चीरा लगे पके फलों का जैम जेली मुरब्बा रास या गुदा जिसे प्यूरी कहते है बनाकर डिब्बाबंद किया जाता है। भारत पपीता प्यूरी का एक बड़ा निर्यातक है।
लेखक: सचि गुप्ता एवं हरेंद्र
शोध छात्र उद्यान विज्ञान विभाग
आचर्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कुमारगंज अयोध्या- 224229
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