संरक्षित खेती एक कृषि प्रणाली है जो कि एक मृदा सतह पर फसल अवशेष का स्थायी आवरण, न्यूनतम या बिना मृदा को बादित और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देती है. इस प्रकार खेती का यह सिधान्त जमीन की सतह के ऊपर और नीचे जैव विविधता और प्राकृतिक जैविक क्रियाओं को बढ़ावा देता है, जो कि जल और पोषक तत्वों की उपयोग दक्षता बढ़ाने और फसल उत्पादन में निरंतरता और सुधार करने में योगदान देती है.
भारत में संरक्षित खेती की वर्तमान स्थिति
वर्तमान में वैश्विक स्तर पर, संरक्षित खेती लगभग 125 mमिलियन हेक्टेयर में की जाती है. संरक्षित खेती को बढ़ावा देने वालों देशों में अमेरिका, ब्राजील, अर्जेंटीना, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया अग्रहनी देश हैं. भारत में, संरक्षित खेती अभी भी शुरुआती चरणों में है. पिछले कुछ वर्षों में, जीरो जुताई और संरक्षित खेती को अपनाने से लगभग 1.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र का विस्तार हुआ है. गंगा-सिन्धु के मैदानी इलाकों में चावल-गेहूँ कृषि प्रणाली में गेहूँ में संरक्षण आधारित कृषि को अपनाया जा रहा है. भारत में, राज्य कृषि विश्वविद्यालयों और आईसीएआर संस्थानों संयुक्त प्रयासों से संरक्षित खेती के विकास और प्रसार करने का प्रयास किया गया है.
संरक्षित खेती के लाभ
मुख्यतः संरक्षित खेती के लाभ को तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो इस प्रकार है:-
1. मृदा की उत्पादकता में सुधार
2. उत्पादन क्षमता में सुधार
3. कृषि, पर्यावरण और समाज टिकाऊपन को अधिक सुनिशित करना
4. कार्बन संचयन, मृदा में कार्बनिक पदार्थों में निर्माण, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को लंबी अवधि तक कम करने के लिए संरक्षित खेती एक व्यापक पहल है. इसके साथ साथ संरक्षित खेती विभिन्न कृषि प्रणालियों पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से भी सुरक्षा प्रदान करती है.
5. गेहूं में फालारिस माइनर जैसे खरपतवार में कमी
6. फसल अवशेष ना जलाने से पोषक तत्वों की हानि, और पर्यावरण प्रदूषण को कम किया जा सकता है, जो की विभिन्न स्वास्थ्य सम्भंधी बिमारियों से निजात दिलाने में मदद करती है .
संरक्षित खेती अपनाने में आने वाली अड़चनें
संरक्षित खेती को अपनाने में किसानों को कई तरह की कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. उनमे से कुछ प्रमुख दिक्कतें इस प्रकार हैं: -
1. पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी
न्यूनतम जुताई की वजह से उर्वरकों का प्रयोग करने के बाद उससे मिलने वाले पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी आती है, जिससे फस्सल उत्पदान में कमी की आसंकाये बनी रहती है .
2. विश्वासनीय बाज़ार की कमीं
फसल विविधिकरण की मुख्य चुनोतियों में से, विश्वसनीय बाजार की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण चुनौती है. इसके साथ-साथ फलीदार फसलों की अच्छी किस्मों के बीजों की कमी बड़े स्तर पर है.
3.फसल चक्र में बाधाएं
सामान्यतया किसान साफ़ सुथरी खेती में विश्वास करते है. इसलिए, किसान चावल – गेहूं के बीच खाली समय में किसी दूसरी फलीदार फसल उगाने में संकोच करते हैं.
निष्कर्ष
संरक्षित खेती परंपरागत अनुसंधान से अलग कृषि अनुसंधान और विकास के लिए एक नये आयाम प्रदान करती है, जिसका प्रमुख उद्देश्य भारत में खाद्यान्न उत्पादन की पूर्ति को निर्धारित करना है. मुख्यतः संरक्षित खेती, संसाधनों के लगातार गिरते स्तर को रोकने, खेती की लागत को कम करने और कृषि विकाश को बढ़ावा देने के अवसर प्रदान करती है. संरक्षित खेती के अन्नेक प्रकार के लाभ के साथ साथ इसको अपनाने में भी कई तरह की अड़चनें हैं, इसलिए जीरो जुताई को लेकर किसानों की पुराणी अवधारणाओ को बदलने की आवश्यकता है. घनी जुताई को शून्य या न्यूनतम जुताई में बदल कर संरक्षित खेती के विभिन्न लाभों के प्राप्त करने के लिए व्यापक स्तर पर इसके बारे में किसानों को प्रेरित करने की आवश्यकता है.
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