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जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने में कृषिवानिकी सहायक

कृषिवानिकी कार्बन के भण्डारण में न केवल एक बड़ा योगदान प्रदान करती है बल्कि जलवायु परिवर्तन के अवशमन करने में भी मदद करती है. इसके साथ ही यह शुष्क व अर्ध्द क्षे़त्रों में फसलों की अनुकूलन क्षमता को भी बढ़ाती है. देश में विभिन्न भू - प्रयोगों में कार्बन भण्डारण क्षमता 2755.5 मिलियन टन कार्बन की है, जिसमें कृषिवानिकी की भागीदारी 19.3 प्रतिशत और वानिकी की भागीदारी 43.50 प्रतिशत है।

कृषिवानिकी कार्बन के भण्डारण में न केवल एक बड़ा योगदान प्रदान करती है बल्कि जलवायु परिवर्तन के अवशमन करने में भी मदद करती है. इसके साथ ही यह शुष्क व अर्ध्द क्षे़त्रों में फसलों की अनुकूलन क्षमता को भी बढ़ाती है. देश में विभिन्न भू - प्रयोगों में कार्बन भण्डारण क्षमता 2755.5 मिलियन टन कार्बन की है, जिसमें कृषिवानिकी की भागीदारी 19.3 प्रतिशत और वानिकी की भागीदारी 43.50 प्रतिशत है। देश में कार्बन डाईऑक्साइड समतुल्य उत्सर्जन की कुल मात्रा सन 1994 में 1228 मिलियन टन थी. जिसमें कृषि का योगदान 28 प्रतिशत तथा ऊर्जा क्षेत्र का योगदान 61 प्रतिशत तथा शेष अन्य उघमों का योगदान 13 प्रतिशत था. कृशि क्षेत्र से होने वाले कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को प्रिसाइज खेती से कम किया जा सकता है तथा कृषिवानिकी का विस्तार करके कार्बन भण्डारण को बढ़ाने के साथ साथ वनों में मौजूद कार्बन भण्डार को सुरक्षित रखा जा सकता है, क्योंकि कृषिवानिकी सबसे दक्ष कार्बन स्क्विस्ट्रेशन व फाइटोरेमेडियेसन करने वाली भू- उपयोग प्रणाली है. मृदा में पाए जाने वाले हानिकारक तत्वों को पेडों तथा फसलों द्वारा अवशोषित किया जाता है. इस प्रकार पेड़ एक सेटीनेट की तरह काम करता है,जिससे मृदा,एवं जल प्रदूशण को कम करने में मदद  मिलती है.

जलवायु के विभन्न घटकों, जैसे - तापमान एवं वर्षा में हो रहे बदलाव को जलवायु परिवर्तन कहते है. उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो किसी क्षेत्र में लगातार कम वर्षा होना अथवा तापमान में कमी अथवा बढ़ोतरी होना. जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मानव जनित कार्य है जिससे वैश्विक तापमान में वध्दि हो रही है. जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ रहा है.

पृथ्वी का एक अपना जलवायु तंत्र है तथा किसी भी स्थान की एक निश्चित जलवायु होती है, जो कि वहां की धूप, हवा तापमान, आर्द्रता आदि मिलकर निर्धारित करते है. जलवायु के विभिन्न घटकों में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है जिससे वहां पर रहने वाले जीव-जन्तु परिवर्तन के अनुकूल अपना सामंजस्य बनाते रहते हैं. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विकासशील देशों पर अधिक पड़ने की संभावना जतायी जा रही है क्योंकि उनकी क्षमता आर्थिक कमजोरी के कारण कम होती है.

जलवायु परिवर्तन के अवशमन के लिए जैविक  विधि बहुत उपयोगी तथा जोखिम रहित होती, जिसके अंतर्गत पेडों द्वारा वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड को शोषित किया जाता है, जिसको पेड़ अपने तनों व जडो़ं में प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से भंडारा करता है. पेड़ कृषिवानिकी का बहुवर्षीय घटक है तथा कृषिवानिकी एक बहुआयामी भू- उपयोग प्रणाली है, जिसका विश्व पर्यावरण व पारिस्थिति पध्दति सुधार में महत्वपूर्ण योगदान है.

जलवायु  परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

देश में कृषि व्यवस्था पूर्ण वर्षा पर निर्भर है, क्योंकि वर्षा ही सिंचाई के स्त्रा्रतों में पानी की उपलब्धता को निर्धारित करता है. जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में लगातार बदलाव हो रहा है तथा अर्धशुष्क व शुष्क क्षेत्रों में कभी कभी सामान्य से अधिक वर्ष की संभावना जतायी जा रही है तथा मध्य भारत में ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2050 तक ठंड के मौसम होने वाली वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत की कमी होगी.

कम वर्षा के अलावा , समय से वर्षा का भी उत्पादन पर खास  प्रभाव पड़ता है. उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ राज्य में पूर्व मानसून वर्षा में कमी होती जा रही है. समुद्र तटीय क्षेत्रों से चक्रवातीय क्रियाओं द्वारा अधिक वर्षा से पुकसान की भी संभावना जतायी जा रही है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा कि भारत में 2080 तक सर्दियों में हाने वाली वर्षा में 5 से 25 प्रतिशत की कमी होगी, जबकि मानसून की वर्षा में 10 से 155 प्रतिशत तक की वध्दि हो सकती है. जलवायु परिवर्तन में दलहनी व सीरियल (धान्य) फसलों में बांझपन की बढ़ने की सेभावना जताई जा रही है, जिससे खाघान्न उपलब्धता पर सबसे बड़ा खतरा नजर आ रहा है.

इन्टर गवर्नमेन्ट पैनल ऑन क्लाईमेट चेन्ज (आई.पी.सी.सी.) की 2007 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यदि तापमान में 0.14-0.58 डिग्री सेल्सियस तापमान प्रति दशक बढ़ता है तो उष्णीय फसलों में दाने की पैदावार में 5.11 प्रतिशत की कमी होने की संभावना है तथा सन् 2050 तक 11.46 प्रतिशत तक की कमी हो  सकती है. आई.पी.सी.सी. की चौथी आकलन रिपोर्ट में कहा गया है अक्षांश पर बढ़ सकती है परन्तु यदि तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की वध्दि होती है उत्पादकता घट सकती है.

भारत में सन् 2002-03 में ठण्ड के मौसम में तुषार पड़ने से तथा मार्च 2004 में गर्म हवाओं से कृषि उत्पादन पर बहुत प्रभाव देखा गया है, जो कि असामान्य मौसम का एक उदाहरण है! इसी प्रकार दून घाटी में जनवरी 2005 में कई  दिनों तक चली शीत लहर का प्रभाव आम, केला, आवला एवं पपीता पर देखा गया है , जिससे 22 से 46 प्रतिशत तक उत्पादन प्रभावित हुआ. राजस्थान के सीकर, झुंझुनू, नागौर तथा चूरू में 25 दिसंबर 2005 से 10 जनवरी 2006 तक आयी तापमान में कमी के कारण गेहूं व जौ के उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि को प्रभावित करने वाले कीड़ो पर पड़ सकता है. कीट एवं खरपतवार जलवायु के प्रति काफी उदासीन होते हैं. गरमी अधिक होने तथा जलवायु में अधिक विभिन्नता से वन परिस्थिति को अधिक प्रभावित कर सकती हैं जिससे कीटों के बढ़ने व जंगलों में आग लगने की घटना बढ़ सकती है.

जलवायु परिवर्तन दुष्प्रभाव को कम करने के उपाय

जलवायु परिवर्तन से होने वाले ह्रास को रोकने के लिए कृषिवानिकी एक कारगार जैविक अवशमन का साघन है जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में कृषिवानिकी का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से योगदान होता है, जिसमें अप्रत्यक्ष लाभ, प्रत्यक्ष लाभों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं. क्योंकी अप्रत्यक्ष लाभ सतत् लाभ होते हैं, जो कि उत्पादन में टिकाउपन लाते है. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है यह तभी संभव है कि ग्रीन गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए तथा वायुमण्डल से इसे किसी न किसी माध्यम से शोषित किया जाए, जिससे वैश्विक तापमान में हो रहे बढ़ोतरी को कम किया जा सके तभी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सकता है.

अवशमन की युक्तियां

जलवायु परिपर्तन के अवशमन के लिए मुख्यतः निम्नवत तीन युक्तियां हैं-

1. कार्बन का जो भी मौजूदा भण्डार है उसे सुरक्षित रखा जाए.

2. मौजूदा भण्डार को बढ़ाया जाए जिससे कार्बन पृथक्करण अधिक हो सके.

3. प्राकृतिक ईंधन के स्थान पर जैव पुंज (बायोमास) से ऊर्जा उत्पादन किया जाए, जैविक ईधन का प्रयोग बढ़या जाए तथा गैर पंरपरागत ऊर्जा स्त्रोत का प्रयोग अधिक किया जाए, जैसे - सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा आदि.

प्राकृर्तिक सिंक सुरक्षित करें

सिंक (कुण्ड) के रूप में वायु मण्डल, प्राकृतिक ईधन, भौमिक जैव पदार्थ व मृदा तथा समुद्र में उपस्थित है, जो कि कार्बन का उद्गम स्थान एवं कुण्ड भी है यदि हम इन प्राकृतिक सिंक (कुण्ड) की सुरक्षा करें तो ग्लोबल वार्मिग की समस्या को कम किया जा सकता है. कुछ प्राकृतिक संसाधन ऐसे हैं जिसे मनुष्य अपनी दैनिक आवश्यकता के लिए अधिक दोहन कर रहा है. जैसे- प्राकृतिक वनस्पति, मृदा एवं जल.

 कार्बन पृथक्करण का अभिप्राय यह है कि वनस्पति एवं मृदा में जो भी कार्बन है, उसकी मात्रा को बढ़ाया जाए जिससे वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन डाईआक्साइड की सांघ्रता को कम किया जा सके ,जो भी वन इस यमय मौजूद है उसमें कार्बन पूल को सिल्वीकल्चर ट्रीटमेन्ट, द्वितीय वन का संक्षण तथा क्षीण वन जिसका जैवपुंज व मृदा कार्बन कम है उसमें कृत्रिम पुनर्जनन के द्वारा कार्बन पृथक्करण को बढ़ाया जा सकता है. कृषि भूमि में कृषिवानिकी को अपनाकर वृक्ष आच्छादन को बढ़ाया जा सकता है जिससे पर्यापरण संरक्षण के साथ साथ मनुष्य की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता.

कार्बन प्रतिस्थापित का उद्देश्य है कि उत्पाद के लिए जैविक कार्बन के प्रयोग को प्राकृतिक ईंधन आधरित ऊर्जा व सीमेंन्ट आाधारित उत्पाद के स्थान पर जैविक उत्पाद का प्रयोग किया जाए. उदाहरण के तौर पर निर्माण कार्य में सीमेंन्ट, लोहा आदि के स्थान पर लकड़ी का प्रयोग तथा प्राकतिक ईंधन को जैविक ईंधन से प्रतिस्थापित किया जाए. लंबी अवधि की बात करें तो ग्रीन हाऊस गैस को कम करने के लिए प्रतिस्थापन प्रबंधन की बहुत अधिक संभावना है.

समाधान

कृषि उत्पादन स्थिर व अच्छे जलवायु पर निर्भर करता है. एबायोटिक स्ट्रेस के कारण किसी भी फसल की उपज में लगभग 30-60 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है तथा इसका प्रभाव अर्ध्द-शुष्क व शुष्क क्षेत्रों में अधिक होता है. शुष्क और अर्ध्दशुष्क क्षेत्रों में बुआई का सही समय, बीज मात्रा उचित- फसल/किस्म का चुनाव जल उपयोग क्षमता को बढ़ा सकता है. बुआई के समय को यदि मानसूनी वर्षा की समाप्ति के तुरन्त बाद रखा जाए तो फसल बढ़वार व पोषक तत्व लेने के लिए पर्याप्त नमी उपलब्ध हो जाता है. मौसम के विपरीत प्रभाव को कम करने के लिए एक दीर्घकालिक प्रस्ताव जैसे वर्षा के पानी की उपयोगिता एवं उसे दक्ष रूप से रखना जरूरी है.

कृषिवानिकी की विभिन्न पण्दतियों में एबायोटिक स्ट्रेसेस (सूखा,ठंड/ पाला, लवणीयता और क्षारीयता, बाढ़, तेज व गर्म हवाओं आदि) के अनुकूल पेडों व उनकी प्रजातियों का चुनाव करने उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर यूकेलिप्टस की लवण सहनशील प्रजातियां जैसे - आई.एफ.जी.टी. शुष्क बी.ई.सी. - 1,2,3 एवं 4 प्रजातियों को लगाकर लवणीय मृदा का उपयोग किया जा सकता है इसी प्रकार सुबबूल की सूखा सहनशील प्रजातियां जैसे - एस.- 10 ,24, 14 है. जिनका उपयोग बंजर भूमि के विकास के लिए किया जा सकता है तथा देश में विभिन्न शोध संस्थानों सूखा, जलभराव, लवणीय व क्षारीय भूमि आदि के लिए अनेकों वृक्ष व फसल प्रजातियां विकसित की गई हैं, जिनका उपयोग करके जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सकता है.

हेमन्त कुमार (पुष्प एवं भूदृश्य कला विभाग), डॉ. ओकेश चन्द्राकर (सब्जी विज्ञान विभाग), ललित कुमार वर्मा, सोनू दिवाकर (एम.एस.सी. प्रथम वर्ष)

पंडित किशोरी लाल शुक्ला उद्यानिकी महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, राजनांदगांव (छ.ग.)

English Summary: Agribusiness Assistant in protecting the side effects of climate change Published on: 30 July 2018, 05:07 IST

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