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बच्चों को बेहतर जिंदगी दे रहे हैं 'जाड़ौल/उदयपुर' के किसान

किसी भी समाज की प्रगति और कामयाबी का आधार वहां के किसान और बच्चे होते हैं. बच्चे जो आगे चलकर समाज के कर्णधार तथा बेहतरी के सूत्रधार बनते हैं वहीं किसान उस समाज का पेट भरता है. अगर इन दोनों वर्गों में से किसी भी एक वर्ग के साथ हालात अनुकूल नहीं रहते तो उस समाज की व्यवस्था चरमरा जाती है. मौजूदा दौर में इन दोनों ही तबकों की हालत चिंताजनक हैं.

KJ Staff

किसी भी समाज की प्रगति और कामयाबी का आधार वहां के किसान और बच्चे होते हैं. बच्चे जो आगे चलकर समाज के कर्णधार तथा बेहतरी के सूत्रधार बनते हैं वहीं किसान उस समाज का पेट भरता है. अगर इन दोनों वर्गों में से किसी भी एक वर्ग के साथ हालात अनुकूल नहीं रहते तो उस समाज की व्यवस्था चरमरा जाती है. मौजूदा दौर में इन दोनों ही तबकों की हालत चिंताजनक हैं. किसान बेबसी में आत्महत्या को मजबूर है तो दूसरी तरफ बच्चों को उचित परवरिश, जरुरी पोषण तथा स्वस्थ माहौल के अभाव में अपना बचपन बदहाली में गुजारना होता है. दुनिया भर में तमाम निजी संगठन और मानवाधिकार समूह इससे संबंधित मामलों पर काम कर रहे हैं. जाहिर तौर पर इन कोशिशों का फायदा इन लोगों को हो रहा है लेकिन अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिलते. लेकिन क्या हो कि अगर ये दोनों ही प्रभावित वर्ग एक-दूसरे की मुश्किलें बाँट लें और अपनी समस्याओं से खुद लड़ें. ऐसी ही एक नायाब मिसाल कायम की है उदयपुर के एक किसानों के समूह ने. तक़रीबन  600 किसानों का यह समूह अपने क्षेत्र के उन बच्चों की जिंदगी सवांर रहा है जिनका बचपन तबाही की दहलीज पर है. ऐसे वक़्त में जब दुनिया, किसान-आत्महत्या और बाल तस्करी जैसी गंभीर समस्याओं के भयावह आँकड़ों से 'दो -चार' है, इन किसानों की यह पहल उम्मीद का एक चिराग जला रही है.

राजस्थान के उदयपुर जिले की जाड़ौल तहसील में एक गांव है-'पनरवा'.अरावली के पथरीले पहाड़ों से घिरे इस गांव की आबादी का मुख्य पेशा 'कृषि' है. अब जबकि देश में खेती को 'घाटे का सौदा' की उपमा से नवाजा जाता है, यहां के किसान ना सिर्फ खेती से मुनाफा कमा रहे हैं बल्कि जरूरतमंद बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए भी काम कर रहे हैं. इसकी शुरुआत चार साल पहले हुई थी जब कुछ किसानों ने जैविक खेती करने की शुरुआत की थी. यह इसलिए भी मुश्किल था क्योंकि सालों से केमिकल्स और पेस्टिसाइड्स का जहर निगल रही जमीन फसल के साथ भी जहर उगल रही थी. यूँ भी अरावली की तपती धरती, पानी की सीलन तक के लिए तरसती है. जमीन के नाम पर चंद टुकड़े रोज सूरज को आग उगलते हुए देखते थे. आखिर पत्थर दिल अरावली को पिघलना ही था.

किसानों के इस समूह के सदस्य ताजुराम बडेरा कहते हैं- 'जैविक खेती का फैसला उतना आसान नहीं था. अव्वल तो यह कि धरती इतने साल से फ़र्टिलाइज़र और कैमिकल की आदी हो गई थी. दूसरा, बीज की प्रजाति भी बदलनी थी जिसका मिलना उस वक़्त तो मुमकिन नहीं था. फिर भी इस शुरुआत में 20 लोगों ने इस पहल को आगे बढ़ाया. कुछ वक़्त तक अपेक्षित नतीजे देखने को नहीं मिले लेकिन जल्द ही इससे मुनाफा होने लगा. आलम यह हुआ कि आसपास के गांव के किसानों को जब जैविक खेती का यह प्रयोग कारगर लगा तो उन्होंने भी जैविक खेती को अपनाना शुरू कर दिया।'

अब अरावली की जमीन राहत की सांस ले रही थी. कैमिकल और पेस्टीसाइड के जहर को लोगों ने अलविदा कह दिया था. बारिश अभी भी उतनी ही कम हो रही थी लेकिन जमीन के छोटे टुकड़े हरियाली से भीग चुके थे. लेकिन शायद यह सफलता अभी अधूरी थी. कुछ था जो यहाँ के किसानों को चुभ रहा था. दुनिया भर में बाल तस्करी के अनगिनत मामले, यहाँ लोगों को नश्तर की तरह जख्मी कर रहे थे. अब इस अधूरी सफलता को पूरी करने का वक़्त आ गया था. वक़्त आ गया था कि बच्चों के साथ हो रही ज्यादती के नश्तर को नोंच के फेंक दिया जाये.

तक़रीबन पंद्रह गांव के 600 किसानों ने पिनरवा में स्थित एक स्वयंसेवी संस्था से राब्ता किया जो बच्चों के हक़ और उनके बेहतरी के लिए काम करती थी. मेवाड़ी भाषा में बात करते हुए 'भीमराव कसौटा' कहते हैं-"हम खेती से मुनाफा कमा रहे थे. लेकिन हमारे बच्चों को वैसी परवरिश नहीं मिल रही थी जैसी इस उम्र के बच्चों को मिलना जरुरी होता है. हमें इस बात का हमेशा दुःख रहता था. 'पानरवा' कार्यालय में 'चाइल्ड फण्ड इंडिया' संस्था ने उनकी इस उलझन को सुलझा दिया. संस्था ने किसानों को उनकी खेती और उसमें प्रयुक्त तकनीक के मोर्चे पर सभी जरुरी सुविधाएँ मुहैया कराई।"

अब किसानों को एक मंच मिल गया था और आगे बढ़ते रहने की वजह भी. उनकी फसल सीधे बाजार तक पहुँचने लगी. पूरी तरह से जैविक होने के चलते उन्हें इसकी अच्छी कीमत भी मिल रही थी और साथ ही उर्वरक और पेस्टीसाइड के अंध-खर्च से भी मुक्ति मिल गई थी. अब अपने ही घर में गौमूत्र, गोबर और नीम से मिलाकर खाद तैयार किया जाने लगा. जिससे अपनी जरुरुत तो पूरी हो ही रही थी, बाजार में बेचकर आय का साधन भी बन गया था. 

किसानों के इस समूह ने अपने क्षेत्र के बच्चों के लिए सभी जरुरत पूरी करने का तरीका खोज लिया और इस सफर को बेशक मुकम्मल किया 'चाइल्ड फण्ड इंडिया' ने. ताजुराम, नकाराम, अर्जुन लाल, बंशीलाल, शंकरऔर भीमाराम कसौटा जैसे नाम वो नाम हैं जो भले ही दुनिया की भीड़ का हिस्सा हैं लेकिन इनकी कोशिश एक मिसाल है. उनकी इस कोशिश से अरावली की गर्म धरती जरूर पसीज जाती होगी. किसी बच्चे की किलकारी से हो जाती होगी बारिश  और फूटती होंगी गुमनाम सी कोई फसल.

रोहिताश चौधरी, कृषि जागरण

English Summary: The farmers of Jadaul / Udaipur are giving a better life to the children Published on: 15 November 2018, 11:40 AM IST

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